इज्राइल : ईसाई धर्म के प्रवर्तक
जन्म व मृत्यु : प्रथम ईस्वी शताब्दी
जीसस क्राइस्ट के जन्म काल से ही प्रथम शती का आरंभ माना जाता है। अतः उनका जन्म काल प्रथम ईस्वी शताब्दी का आरंभ पूर्व माना जा सकता है। अपने अनुयायियों के लिए शूली पर चढ़कर अपने शत्रुओं को भी क्षमा दान देने वाले जीसस क्राइस्ट इतिहास के अनुपम एवं श्रद्धेय महापुरुष हैं। अपने अद्भुत त्याग के कारण ही वह मरती हुई मानवता को पुनर्जीवन प्रदान कर सके। अत्यंत सादा जीवन बिताने वाले क्राइस्ट ने बड़े होते ही प्रवचनों द्वारा ईसाई धर्म का संदेश देना आरंभ कर दिया। ईसा ने कई चमत्कार दिखाए। उन्होंने अनेक मृतकों को जीवित किया एवं रोगियों को स्वस्थ कर दिया। बाइबिल के ‘न्यू टेस्टामेंट’ (New Testament) में उनके उपदेश संगृहीत हैं।
क्राइस्ट का जन्म 25 दिसंबर को येरूशलम के पास बैथेलहम (फिलिस्तीन- इज्राइल) में हुआ था। उनके पिता जोसेफ एवं मां मरियम अत्यंत ही निर्धन थे। क्राइस्ट बचपन से ही धर्म चर्चा में रुचि लेते थे। उन्होंने हिब्रू (Hebrew) तथा अनेक यहूदी ग्रन्थों का भी अध्ययन किया था। 30 वर्ष की आयु में जीसस ने अपना वंशगत बढ़ई का काम छोड़कर उपदेश देना तथा रोगियों को स्वस्थ करना आरंभ कर दिया। ईसा का धर्म मानवीय भ्रातृत्व पर आधारित था, परंतु हिब्रू सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं था, अतः उन पर मुकदमा चलाने का नाटक किया गया और उनके नासमझ विरोधियों ने उन्हें काफी कष्ट देकर सलीब पर ठोंक दिया। कहा जाता है कि वे अपनी मृत्यु के तीन दिन बाद फिर जीवित हो गए थे, पर वे कुछ ही व्यक्तियों को दिखाई पड़े थे।
सलीब पर चढ़े क्राइस्ट की प्रतिमूर्ति आज भी लोगों के हृदय को द्रवित कर देती है। उनके उपदेश और बलिदान के कारण ही ईसाई धर्म विश्व का सबसे व्यापक धर्म बन सका। क्राइस्ट का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उन्होंने प्रेम, त्याग, अहिंसा, मानवता और विश्व-बंधुत्व का जो संदेश दिया वह आज करोड़ों लोगों का मार्गदर्शन कर रहा है। जीसस क्राइस्ट वास्तव में मानवप्रेम के प्रतीक थे। उन्हें श्रद्धालुओं द्वारा ‘ईश्वर का पुत्र’ माना जाता है।