भारत : बंगला साहित्य के गौरव
जन्म : 1861 मृत्यु 1941
नव संस्कृति के अमर गायक ‘कवींद्र’ रवींद्र ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मानव संस्कृति हत्य को सम्मान दिला कर देश की प्रतिष्ठा बढ़ाई, जोन पर महती उपलब्धि है। 13 नवम्बर, 1913 को रवींद्रनाथ को अपनी काव्य पुस्तक ‘गीतांजलि’ पर एशिया का प्रथम नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था जो पूरे देश के लिए गौरव की बात थी। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि दी थी, जो 1919 में उन्होंने जलियांवाला बाग में हुए दर्दनाक और अमानवीय हादसे के विरोध में वापिस कर दी। वस्तुतः रवींद्रनाथ ठाकुर बंगला के कवि ही नहीं, उत्कृष्ट नाटककार, कथाकार, समालोचक, दार्शनिक, चित्रकार, संगीतकार, अभिनेता, सभी कुछ थे और प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। काव्य रचनाओं में ‘गीतांजलि’ के अतिरिक्त उनकी ‘सोनार तरी’ तथा ‘बलाका’ विशेष प्रसिद्ध हैं।
उन्होंने अनेक उपन्यासों की रचना की जिनमें से कुछ नाम हैं- ‘राजर्षि’, ‘बहु ठाकुरानीर हाट’, ‘नौका डूबी’, ‘चोखेर बाली’, ‘गोरा’, ‘घरे बाइरे’, ‘योगायोग’ ‘नरकवास’ और ‘शेषेर कविता’। उनके नाटकों में ‘विसर्जन’, ‘राजा और रानी’, ‘चिरकुमार सभा’, ‘प्रायश्चित्त’, ‘अचलायतन’, ‘रक्त करवी’ और ‘मुक्तधारा’ अत्यंत लोकप्रिय हुए।
रवींद्रनाथ का एक और बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने ही बंगला साहित्य में कहानी विधा की प्रतिष्ठा की। उनकी ‘काबली वाला’, ‘नष्ट नीड़’ और ‘क्षुधित पाषाण’ कहानियाँ अत्यधिक प्रसिद्ध हुई हैं।
रवींद्रनाथ का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता (पश्चिम बंगाल) में श्री देवेद्र नाथ ठाकुर के यहां हुआ था। उन्होंने इंग्लैंड जाकर बेकन, गेटे, एंजेलो आदि का अध्ययन किया और शेक्सपियर के ‘मैकबेथ’ का बंगला में अनुवाद भी किया। 1883 में उनका विवाह हुआ। उनकी पत्नी का नाम मृणालिनी था।
उनका व्यक्तित्व प्रकृति-प्रेमी था और उनकी उन्मुक्त वातावरण में शिक्षा पद्धति की कल्पना 1901 में ‘शांतिनिकेतन’ के रूप में साकार हुई। उन्हीं के सिद्धान्तों पर ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय’ की स्थापना हुई है।