Prerak Prasang

तू कब ठहरेगा

Angulimaal Ki Katha Hindi short Story

एक बार बुद्धदेव अपने शिष्यों के साथ कौशल राज्य गए। उन दिनों कौशल राज्य में अंगुलिमाल के नाम के एक दस्यु का बड़ा आतंक था। उसके रास्ते में जो भी आता, वह उसे मार देता और उसकी अंगुलियों की माला गले में पहन लेता था। वहाँ के राजा प्रसेनजित ने इसके बारे में अपनी चिंता जताई। बुद्धदेव ने उसका पता पूछा और वहाँ जाने का निश्चय किया। राजा और उसके शिष्यों ने उन्हें वहाँ जाने के लिए बार-बार मना किया किंतु वे नहीं माने।

रात के अँधेरे में दुर्गम वन के बीच होकर वे चले जा रहे थे। सहसा चारों दिशाओं को प्रकम्पित करती हुई आवाज आई “ठहर जाओ।” बुद्धदेव ने कोई ध्यान न दिया और चलते गए। अंगुलिमाल को आश्चर्य हुआ कि जिस रास्ते पर आने में सभी थर्राते हैं, वहाँ यह साधु इतना निर्भीक भाव से कैसे चला जा रहा है! उसने फिर गरजकर कहा “ठहर जा” चलते-चलते ही बुद्धदेव ने उत्तर दिया- “भैया, मैं तो ठहरा ही हूँ, लेकिन तुम कब ठहरोगे?” अंगुलिमाल क्रोधित था ही, कटार लेकर उनको मारने दौड़ा। पर वह कितना ही दौड़ा बुद्धदेव के पास नहीं पहुँच पाया। उन्होंने योगबल से अपने और उसके बीच दूरी स्थित कर दी थी जो घटती ही नहीं थी। जब वह थककर बैठ गया तो भगवान बुद्ध ने उसके निकट जाकर कंधे पर स्नेह का हाथ फेरते हुए कहा, “मैं तो ठहर गया, क्या तू नहीं ठहरेगा? सब दिन योही दौड़ता रहेगा?”

बुद्ध के कथन का तात्पर्य था कि कामना और वासना को नष्टकर संबोधि के बीच की स्थिति को प्राप्त कर चुका हूँ। मैं तो ठहर गया हूँ किंतु तुम्हारा चलना तो अबतक भी समाप्त नहीं हुआ है।

उस महापुरुष के दिव्य स्पर्श को पाते ही अंगुलिमाल का भाव बदल गया। वह उनके चरणों में गिरकर रोने लगा। उनके शांत तेजोद्दीप्त चेहरे को देखकर उसने आत्मसमर्पण कर दिया और उनका शिष्य हो गया। बुद्ध ने उसका मस्तक मुंडन करवाया, भिक्षु का वस्त्र पहनवाया तथा हाथ में भिक्षा पात्र बनाकर अपनी शिष्य मंडली में उसे शामिल कर लिया। द्वार-द्वार पर जाकर वह भिक्षा माँगता था। सभी उसे पत्थर मारते पर बिना प्रतिरोध किए वह उन पत्थरों को सहता रहता कि इस तन ने बहुत पाप किए हैं अतः इसे सजा मिलनी चाहिए। बाद में अंगुलिमाल ने लंका में बौद्धधर्म का काफी प्रचार किया।

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