हरिबाबा से एक भक्त ने कहा, “महाराज ! यह अभागा, पापी मन रुपये पैसों के लिए तो रोता-पिटता है लेकिन भगवान अपना आत्मा है, फिर भी आज तक नहीं मिले इसके लिए रोता नहीं है। क्या करें?”
हरिबाबा: “रोना नहीं आता तो झूठमूठ में ही रो लें।”
“महाराज! झूठमूठ में भी रोना नहीं आता है तो क्या करें?”
महाराज दयालु थे। उन्होंने भगवान के विरह की दो बातें कहीं। विरह की बात करते- करते उन्होंने बीच में ही कहा कि “चलो, झूठमूठ में रोओ।” सबने झूठमूठ में रोना चालू किया तो देखते-देखते भक्तों में सच्चा भाव जग गया।
झूठा संसार सच्चा आकर्षण पैदा करके चौरासी के चक्कर में डाल देता है तो भगवान के लिए झूठमूठ में रोना सच्चा विरह पैदा करके हृदय में प्रेमाभक्ति भी जगा देता है।
अनुराग इस भावना का नाम है कि “भगवान हमसे बड़ा स्नेह करते हैं, हम पर बड़ी भारी कृपा रखते हैं। हम उनको नहीं देखते पर वे हमको देखते रहते हैं। हम उनको भूल जाते हैं पर वे हमको नहीं भूलते। हमने उनसे नाता-रिश्ता तोड़ लिया है पर उन्होंने हमसे अपना नाता-रिश्ता नहीं तोड़ा है। हम उनके प्रति कृतघ्न हैं पर हमारे ऊपर उनके उपकारों की सीमा नहीं है। भगवान हमारी कृतघ्नता के बावजूद हमसे प्रेम करते हैं, हमको अपनी गोद में रखते हैं, हमको देखते रहते हैं, हमारा पालन-पोषण करते रहते हैं। इस प्रकार की भावना ही प्रेम का मूल है। अगर तुम यह मानते हो कि ‘मैं भगवान से बहुत प्रेम करता हूँ लेकिन भगवान नहीं करते तो तुम्हारा प्रेम खोखला है। अपने प्रेम की अपेक्षा प्रेमास्पद के प्रेम को अधिक मानने से ही प्रेम बढ़ता है कैसे भी करके कभी प्रेम की मधुमय सरिता में गोता मारो तो कभी विरह की।
दिल के झरोखे में झुरमुट के पीछे से जो टुकुर-टुकुर देख रहे हैं दिलबर दाता, उन्हें विरह में पुकारोः ‘हे नाथ !…. हे देव !… है रक्षक पोषक प्रभु !…. टुकुर-टुकुर दिल के झरोखे से देखने वाले देव !…. प्रभुदेव !… ओ देव !… मेरे देव !…. प्यारे देव !….. तेरी प्रीति, तेरी भक्ति दे….. हम तो तुझी से माँगेंगे, क्या बाजार से लेंगे? कुछ तो बोलो प्रभु !…
कैसे भी उन्हें पुकारो। वे बड़े दयालु हैं। वे जरूर अपनी करुणा-वरुणा का एहसास कराएँगे।
“तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीज।
भूमि फेंके उगेंगे, उलटे सीधे बीज॥”
विरह से भजो या प्रेमाभक्ति से जप करके भजो या ध्यान करके, उपवास, नियम- व्रत करके भजो या सेवा करके, अपने परमात्मदेव की आराधना ही सर्व मंगल, सर्व कल्याण करने वाली है।
इष्ट की लीला का श्रवण करना भी उपासना है। इष्ट का चिंतन करना, इष्ट के लिए रोना, मन ही मन इष्ट के साथ खेलना- ये सभी उपासनाएँ हैं। ऐसा उपासक शरीर की बीमारी के वक्त सोये-सोये भी उपासना कर सकता है। उपासना सोते-सोते भी हो सकती है, लेटे-लेटे भी हो सकती है, हँसते-हँसते भी हो सकती है, रोते-रोते भी हो सकती है। बस मन इष्टाकार हो जाए।
मेरे इष्ट गुरुदेव थे। मैं नदी पर घूमने जाता तो मन ही मन उनसे बातें करता। मुझे बड़ा मजा आता था। दूसरे किसी देव से प्रत्यक्ष में कभी बात हुई नहीं थी, उसकी लीला देखी नहीं थी लेकिन अपने गुरुदेव पूज्यपाद स्वामी श्री लीलाशाह जी भगवान का दर्शन, उनका बोलना चालना, व्यवहार करना आदि सब मधुर लीलाएँ प्रत्यक्ष में देखने को मिलती थीं, उनसे बातचीत का मौका भी मिला करता था। अतः एकांत में जब अकेला होता तब गुरुदेव के साथ मन ही मन अठखेलियाँ कर लेता। अभी भी कभी-कभी पुराने अभ्यास के मुताबिक घूमते- फिरते अपने साँईं से बातें कर लेता हूँ, प्यार कर लेता हूँ।