एक बार किसी भक्त ने भक्ति की। उसकी दृढ़ भावना थी कि भगवान साकार रूप में दर्शन दें और मैं उनसे बातचीत कर सकूँ। भक्ति करते-करते उसके समक्ष एक बार भगवान साकार रूप लेकर आ गए और बोलेः “वरं ब्रूयात्। “वर माँग। भक्तः “वरदान क्या माँगें? मुझे तो असली तत्त्व का ज्ञान दे दीजिए। जो सबसे बढ़िया हो वह दे दीजिए।” भगवानः “बढ़िया से बढ़िया है आत्मज्ञान। मेरे दर्शन का परम फल भी यही है कि जीव अपने स्वरूप का ज्ञान, आत्मज्ञान पा ले।
“मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पावहि निज सहज सरूपा।”
मेरे दर्शन का यही अनुपम फल है कि जीव अपने सहज स्वरूप को पा ले।” भक्तः “मेरा सहज स्वरूप क्या है?” भगवानः “जो मेरा सहज स्वरूप है, वही तुम्हारा है।” भक्तः “भगवान भगवान! आप तो सृष्टि की उत्पत्ति कर लेते हैं, पालन करते हैं और प्रलय करते हैं। हम तो कुछ नहीं कर सकते तो आप और हम एक कैसे हुए?” भगवानः “तुम्हारा यह साधारण शरीर और मेरा यह मायाविशिष्ट स्वरूप इन दोनों को छोड़ दो। बाकी जो तुम चैतन्य हो वही मैं हूँ और जिसकी सत्ता से मेरी आँखें देखती हैं उसी की सत्ता से ही तुम्हारी आँखें भी देखती हैं।” भक्तः “भगवान! आप तो सर्वशक्तिमान हैं और हममें तो कोई शक्ति नहीं है। फिर आप और हम एक कैसे? आप तो सृष्टि बना सकते हैं लेकिन हम नहीं बना सकते?” भगवानः “अच्छा! आज के बाद जाग्रत की सृष्टि का संकल्प मैं करूँगा तब जाग्रत की सृष्टि बनेगी और स्वप्न की सृष्टि तुम बनाओगे।” तब से इस जीव को स्वप्न आने लगे। जैसे स्वप्न में सब बनाकर भी आप उससे अलग रहते हैं वैसे ही जाग्रत में सब देखते हुए भी आप सबसे अलग, सबसे न्यारे हैं जैसे स्वप्न से उठने पर पता चलता है कि सब आपका खिलवाड़ ही था ऐसे ही यह जगत भी वास्तव में आपके चैतन्य का ही रूपान्तरण है। यह अगर समझ में आ जाए तो महाराज ! अधिकारी के रूप में मैं ही आदेश दे रहा हूँ और कार्यकर्ता के रूप में मैं ही आदेश मान रहा हूँ। धनवानों में भी मैं ही हूँ और सत्तावानों में भी मैं ही हूँ…. इस प्रकार का अनुभव हो जाएगा। अगर यह अनुभव हो गया तो ब्रह्मलोक तक के जीवों में भी जो उच्च पद हैं उन सब पदों का भोग ब्रह्मवेत्ता एक ही साथ भोग लेते हैं। आपका शरीर सब भोग एक साथ नहीं भोग सकता लेकिन सबके शरीर में आप ही हो। यह अनुभव हो जाए तो सब भोग आप ही तो भोग रहे हो।