विनोबा जी के आश्रम में एक लड़का था जिसको बीड़ी पीने की लत पड़ गई थी। आश्रम में बीड़ी पी नहीं सकते, तम्बाकू खा नहीं सकते और दूसरे व्यसन भी नहीं कर सकते, इस नियम की उसे जानकारी थी फिर भी वह चुपचाप बीड़ी पीता रहता था।
एक दिन एक आश्रमवासी ने उस लड़के को छिपकर बीड़ी पीते हुए देख लिया। वह लड़का घबरा गया। विनोबा के प्रति उसके मन में भक्ति थी, इसलिए वह विनोबा के पास गया। विनोबा ने कहा “बेटा, घबराना नहीं। बड़े-बड़े लोग भी बीड़ी पीते हैं, तुमने गलती यह की है कि चोरी-छिपे पी है। अब मैं तुम्हें एक अलग कोठरी देता हूँ और बीड़ी का बंडल मँगा देता हूँ। जब कभी बीड़ी पीने की इच्छा हो तब मुझसे माँगकर उस कोठरी में जाकर बीड़ी पी लिया करो।” आश्रमवासियों को यह बात विचित्र लगी। वे कहने लगे “उसकी आदत छुड़ाने की बात तो दूर रही ऊपर से उसको बीड़ी पिलाने की व्यवस्था कर रहे हैं आप?”
विनोबा ने कहा “भाइयो, बीड़ी पीना खराब है। परंतु उसकी आदत पड़ गई है इसलिए उसको चोरी-छिपे पीनी पड़ती है। यह तो और भी खराब बात है वह खुलेआम बीड़ी पीए, यह भी ठीक नहीं है। इसलिए उसको आदत छोड़ने का मौका देना चाहिए। यह अहिंसा का विचार है अहिंसा की विशेषता यह है कि उसमें दूसरे के दोषों को सहन करने की शक्ति प्रकट करनी होती है। ऐसे प्रसंग पर मन में उदारता और सहानुभूति का रुख रखना चाहिए। हाँ, इतना आग्रह जरूर रखें कि उससे दूसरों का नुकसान न हो, भोग-विलास न बढ़े।”
आज भी आश्रम की बही में उस बीड़ी के बंडल का खर्च और विवरण लिखा हुआ मिलेगा।