Prerak Prasang

सत्शिष्य

buddh and aanad hindi short story

भगवान बुद्ध ने एक बार घोषणा की कि “अब महानिर्वाण का समय नजदीक आ रहा है। धर्मसंघ के जो सेनापति हैं, कोषाध्यक्ष हैं, प्रचार मंत्री हैं, व्यवस्थापक हैं तथा अन्य सब भिक्षुक बैठे हैं उन सबमें से जो मेरा पट्टशिष्य होना चाहता हो, जिसको मैं अपना विशेष शिष्य घोषित कर सकूँ ऐसा व्यक्ति उठे और आगे आ जाए। “बुद्ध का विशेष शिष्य होने के लिए कौन इन्कार करे? सबके मन में हुआ कि भगवान का विशेष शिष्य बनने से विशेष मान मिलेगा, विशेष पद मिलेगा, विशेष वस्त्र और भिक्षा मिलेगी। एक होते हैं मेवाभगत और दूसरे होते हैं सेवाभगत। गुरु का मान हो, यश हो, चारों और बोलबाला हो तब तो गुरू के चेले बहुत होंगे। जब गुरु के ऊपर कीचड़ उछाला जाएगा, कठिन समय आएगा तब मेवाभगत पलायन हो जाएँगे, सेवाभगत ही टिकेंगे। बुद्ध के सामने सब मेवाभगत सत्शिष्य होने के लिए अपनी ऊँगली एक के बाद एक उठाने लगे। बुद्ध सबको इन्कार करते गए। उनको अपना विशेष उत्तराधिकारी होने के लिए कोई योग्य नहीं जान पड़ा। प्रचारमंत्री खड़ा हुआ। बुद्ध ने इशारे से मना किया। कोषाध्यक्ष खड़ा हुआ। बुद्ध राजी नहीं हुए। सबकी बारी आ गई फिर भी आनंद नहीं उठा। अन्य भिक्षुओं ने घुसपुस करके समझाया कि भगवान के संतोष के खातिर तुम उम्मीदवार हो जाओ मगर आनंद खामोश रहा। आखिर बुद्ध बोल उठे “आनंद क्यों नहीं उठता है?” आनंद बोला: “मैं आपके चरणों में आऊँ तो जरूर आपके कृपापात्र के रूप में तिलक तो करवा लूँ लेकिन मैं आपसे चार वरदान चाहता हूँ। बाद में आपका सत्शिष्य बन पाऊँगा।” “वे चार वरदान कौन-से हैं?” बुद्ध ने पूछा। “आपको जो बढ़िया भोजन मिले, भिक्षा ग्रहण करने के लिए निमंत्रण मिले उसमें मेरा प्रवेश न हो आपका जो बढ़िया विशेष आवास हो उसमें मेरा निवास न हो। आपको जो भेंट-पूजा और आदर- मान मिले उस समय में वहाँ से दूर रहूँ। आपकी जहाँ पूजा-प्रतिष्ठा होती हो वहाँ मुझे आपके सत्शिष्य के रूप में घोषित न किया जाए। इस ढंग से रहने की आज्ञा हो तो मैं सदा के लिए आपके चरणों में अर्पित हूँ।” आज भी लोग आनंद को आदर से याद करते हैं।

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