बुद्ध के जमाने में एक विश्व सुंदरी हुई थी। उसका नाम भी था विश्वसुंदरी और वास्तव में वह विश्वसुंदरी थी। बहुत गर्विष्ठ। बड़े-बड़े राजा, महाराजा, उसकी मुलाकात के लिए लालायित रहते थे। वह किसी को दाद नहीं देती थी। 16- 17 साल की उसकी उम्र थी। बहुत ही सुंदर थी वह। बुद्ध को पता चला। उसको अपने पास बुलाया और कहाः “सामने खड़ी हो जा।” सुंदरी एक-दो मिनट खड़ी रही फिर बोली: “भन्ते ! क्या आज्ञा है?” “आज्ञा यह है कि तू खड़ी रह।” बुद्ध दक्ष थे। अपने निर्वाण स्वरूप में विश्रांति पाए हुए थे। इच्छा- वासना से परे थे। कोई अपेक्षा नहीं थी उस सुंदरी से सुख लेने की। आदमी जितना निरपेक्ष होता है उतना उसका संकल्प बल और आत्मबल कार्यान्वित होता है। जितनी अपेक्षाएँ अधिक उतना संकल्प बल क्षीण, हो जाता है। बुद्ध ने अपने संकल्प का जोर लगाया। सुंदरी सामने खड़ी है, स्थिर…… शांत… । महसूस करने लगी कि मैं 17 साल में से बीस साल की हो गई… पच्चीस की हो गई. थोड़ी देर बाद देखती है तो अपनी उम्र और बढ़ रही है… तीस साल की हुई है… चालीस साल की हुई… पैंतालीस की हुई…. यौवन शिथिल हो गया…. तन पर बुढ़ापे के चिह्न उभर आए। सुंदरी दंग रह गई। क्या अजीब-सा अनुभव हो रहा है ! आश्चर्य !! कुछ क्षण और बीते। वह महसूस करने लगी कि वह पचास की हो गई… पचपन की हो गई… साठ की हो गई… बाल सफेद हो गए हैं…. दाँत गिर पड़े हैं….. मुँह खोखला हो गया है…. चेहरे पर झुर्रियाँ फैल गई हैं…… कमर झुक गई है… हाथ में लकड़ी आ गई है….. मुँह फटे टाट जैसा हो रहा है। सत्तर साल की हुई… आँखों से पानी टपक रहा है… नाक टेढ़ा हो गया है। वह चकराई। “अरे! मुझे यह क्या हो रहा है? आपने मुझे क्या दिया “बुद्ध मुस्कराए, “मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ। जो आगे होने वाला वह अभी दिख रहा है। तू जिस यौवन का आज गर्व कर रही है, विश्व सुंदरी होकर प्रसिद्ध हो रही है वह चमड़े का सौन्दर्य आखिर कब तक?”
रूप दिसी मगरूर न थी हुसन ते एतरो नाज न कर
रूप सभ संवलजा अथई रांवलजा आहिन् रंग घणा,
मत कर रे गरव गुमान गुलाबी रंग उड़ी जावेलो॥
“तू अपनी देह की आकृति पर, हाड़-मांस चाम के देह की सुंदरता पर गर्व करके जवानी बरबाद न कर। आखिर इस देह का कैसा हाल होने वाला है यह देख ले अभी से सावधान हो जा। चार दिन की जवानी पर नाज मत कर। बुद्ध के प्रभाव से बाद में वह धर्मचारिणी बनी।