जाह्नवी का सुरम्य तट। ब्राह्म मुहूर्त की बेला और कंपायमान- करने वाले पौष मास के दिवस। पवनदेव मानव-दंतावली से ‘दंत- वीणोपदेशाचार्य’ की शिक्षा-दीक्षा लेने में निरत थे।
प्रकृति शीत में बेहोश मालूम होती थी। वहीं सरिता के रेतीले भूभाग पर ऋषि दयानंद बैठे थे। वे प्राणायाम करते, समाधिस्थ होते और अलिप्त भावों में खो जाने का अभ्यास करते थे।
नातिदूर, एक दीन-हीन माँ अपने शिशु के शव को भागीरथी के जल में बहाने को झुकी। मारे शीत के स्त्री स्वयं जल प्रवाह में लुक लुढ़कते बची। उसकी एकमात्र ओढ़नी ही कफन का वस्त्र था और वह अब भीग चुका था। दुख, विलाप और विवशता की त्रिवेणी में डूबती हुई वह अबला अनिमेष नेत्रों से लाश को निहार- कर लौट चली।
वीतराग दयानंद सरस्वती यह सब देखकर चिंतित हो उठे। उनकी ज्ञान-वीणा के तार विशृंखलित होने लगे। लेकिन उनका विचारमंथन अकथनीय था। अंगत: उस नीरवता में, उनकी वाणी यों प्रस्फुटित हुई : “हे सर्वेश्वर! यह क्या देख रहा हूँ। मेरी माताओं की यह दशा मुझे सर्वागीण शक्ति दो। मैं पिछड़े लोगों को उठाकर ही दम लूँगा। राष्ट्र के समस्त भाई-बहनों के हित में, मैं आज से अपनापन मिटा दूँगा।”