गांधीजी जेल में बंद थे। वहाँ की बदइंतजामी से क्षुब्ध होकर कर उन्होंने अनशन शुरू कर दिया। एक दिन वह तख्त पर बैठे-बैठे लोगों से बातें कर रहे थे।
पास में अंगीठी पर पानी गर्म हो रहा था। पानी जब खौलने लगा तब पतीले को नीचे उतारा गया। मगर अंगीठी जलती ही रही। थोड़ी देर बाद गांधी जी ने पूछा, “अब इस अंगीठी पर क्या रखा जाएगा?” किसी ने कहा, “कोई काम नहीं है।”
गांधीजी ने कहा, “फिर यह बेकार में क्यों जल रही है। इसे बुझा दो।” पास बैठे जेलर ने कहा, “जलने दीजिए, क्या फर्क पड़ता है। यहाँ का कोयला सरकारी है। उसका जवाब सुन कर गांधी जी को गुस्सा आ गया। बोले, “तुम भी सरकारी हो क्या तुम्हें भी जलने दिया जाए।”
फिर उन्होंने जेलर को समझाया, भाई, कोई चीज़ सरकारी नहीं होती। यहाँ की एक-एक चीज़ राष्ट्र की संपत्ति है उन सभी पर जनता का हक है। किसी वस्तु का नुकसान जनता का नुकसान है। आप कैसे जनता के सेवक हैं। आपको तो समझना चाहिए कि जिस वस्तु को आप सरकारी मान कर बर्बाद कर रहे हैं वही किसी जरूरतमंद को जिंदगी दे सकती है। जेलर अपनी गलती के लिए गांधीजी से माफी माँगने लगा। गांधीजी ने कहा, “माफी क्यों माँगते हो। तुम्हें तो वचन देना चाहिए कि तुम्हारे सामने कोई वस्तु इस तरह बर्बाद नहीं होगी। यह ठीक है कि हम परतंत्र हैं मगर यहाँ के एक-एक कण पर भारतीयों का अधिकार हैं।” जेलर ने तत्काल अंगीठी बुझा दी।