जाड़े के दिन थे। गांधीजी सेवाग्राम स्थित अपने आश्रम की गोशाला में पहुँचे। गायों की पीठ पर हाथ फेरा, बछड़ों को प्यार से सहलाया और तभी उनकी नज़र वहीं खड़े एक गरीब लड़के पर पड़ी। बापू उसके पास आए – “तू रात में यहीं सोता है?”
लड़के ने सिर हिलाया – “हाँ, बापू।”
“रात को ओढ़ता क्या है तू?”
लड़के ने अपनी फटी सुती चादर दिखला दी। गांधीजी तत्काल अपनी झोंपड़ी में लौट आए। बा की दो पुरानी साड़ियाँ लीं, पुराने अख़बार तथा थोड़ी-सी रूई मँगवाई। स्वयं अपने हाथ से रुई धुनी, बा की सहायता से साड़ियों का खोल सी डाला और अखबार के मोटे कागज़ व रूई भरकर कुछेक घंटों में ही गुदड़ी तैयार कर दी गई। गोशाला के उस गरीब लड़के को बुलाकर गांधीजी ने गुदड़ी दे दी।
दूसरे दिन सुबह गांधीजी फिर गोशाला में गए। लड़का दौड़ा हुआ आया–”बापू ! रात मुझे बहुत मीठी नींद आई!”
बापू मुस्कराए – “सच? तब तो मैं भी इसी तरह की गुदड़ी वनवाकर ओढ़ूँगा।” और वे महादेव भाई की ओर मुड़े, “देखो, तुम अपनी सारी पुरानी धोतियाँ मुझे दे डालो!”