एक बार गौतम बुद्ध के शिष्य वाणिक ने उनसे सुरापरान्त नामक प्रान्त में धर्म-प्रचार की आज्ञा माँगी। वाणिक से बुद्ध ने पूछा “अच्छा सुरापरान्त ! लोग कठोर वचनों का प्रयोग करेंगे तो तुम्हें कैसा लगेगा?”
दिया।
“मै समझूँगा कि वे भले हैं, क्योंकि उन्होंने मुझ पर हाथ नहीं उठाया, जवाब मिला। “यदि उनमें से किसी ने तुझ पर धूल फेंके और थप्पड़ लगाया तो?”, बुद्ध ने पूछा।
“मैं भला समझूँगा कि उन्होंने मेरे ऊपर डंडों का तो प्रयोग नहीं किया”, शिष्य बोला “डंडे मारनेवाले भी दस-पाँच मनुष्य मिल सकते हैं”, बुद्ध बोले। “मै समझूँगा कि वे भले हैं, क्योंकि शस्त्र चलाकर प्राण तो नहीं लेते”, शिष्य ने जवाब दिया।
“यदि वे तुम्हारे प्राण ले ले तब?”, गुरुदेव ने कहा।
“मौत तो टाली नहीं जा सकती। मैं न तो मौत को न्योता देकर बुलाऊँगा और न उसे टालने के लिए परेशान होऊँगा”, शिष्य का उत्तर मिला।
शिष्य वाणिक की बात सुनकर बुद्धदेव बड़े ही प्रसन्न हुए और बोले “अब तुम पर्यटन के योग्य हो गए हो। सच्चा साधु वही है जो कभी किसी दशा में किसी को बुरा नहीं कहता। जो सबका भला चाहता है वहीं परिव्राजक होने योग्य है।”