एक बार बुद्धदेव पाटलिपुत्र गए। राजा बिम्बिसार और नगरवासियों ने अपनी क्षमतानुसार उन्हें कीमती हीरे-मोती के हार भेंट किए। बुद्धदेव ने उन सबको अनमने ढंग से एक हाथ से स्वीकार कर लिया।
इतने में 70-80 वर्ष की एक बुढ़िया लाठी टेकते-टेकते वहाँ आई। बुद्धदेव को प्रणाम कर वह बोली, “भगवन् ! आपके आने का समाचार मुझे अभी-अभी मिला है। उस समय मैं अनार खा रही थी। मेरे पास कोई दूसरी चीज़ न होने के कारण मैं इस अधखाये फल को ही ले आई हूँ। यदि आप मेरी इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करे तो मैं अपने आपको भाग्यशाली समझूँगी।” बुद्धदेव ने प्रसन्न मुद्रा में उसके उस फल को दोनो हाथों से ग्रहण किया।
राजा बिम्बिसार को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने बुद्धदेव से पूछा, “भगवन् !
हम सबने आपको इतने कीमती उपहार दिए जिन्हें आपने उदासीन भाव से एक ही हाथ से ग्रहण किया, लेकिन इस बुढ़िया द्वारा दिए गए इस तुच्छ और जूठे फल को आपने आह्लादित् मुद्रा में दोनों हाथों से ग्रहण किया, ऐसा क्यों?”
यह सुनकर बुद्धदेव मुस्कराए। बोले। “राजन्! आप सबने जो बहुमूल्य उपहार दिया है वह आपकी संपत्ति का शतांश भी नहीं है। परंतु इस बुढ़िया ने जो कुछ दिया है वही उसका सबकुछ था। आपने जो कुछ दिया उसका कई गुणा तो आपके खजाने में भी भरा पड़ा है। इस बुढ़िया ने तुच्छ और छोटा ही भेंट क्यों न भेंट किया हो, अपना सबकुछ दिया है। सच्चे अन्तःकरण से दिया है। यही कारण है कि इस दान को मैंने खुले हृदय से दोनो हाथों से लिया है।”