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खड़ी बोली और गद्य का विकास (लघु निबंध)

khadi boli aur hindi gadya ka vikas

हिंदी साहित्य के इतिहासज्ञों ने जो काल विभाजन किया है उसके आधार पर हिंदी साहित्य में गद्य-युग का प्रारंभ संवत् 1900 से होता है। यह अंग्रेजी शासन काल था, इसलिए जब अन्य देशों में युग परिवर्तन हुआ और पद्य का स्थान गद्य ने लिया तो हिंदुस्तान भी अपनी भाषा हिंदी के लिए ऐसा करने में इस समय लगा। इसका प्रधान कारण यह था कि सभी सरकारी कामों में अंग्रेजी का प्रयोग होता था और इसलिए नौकरी पाने के इच्छुक विद्यार्थी केवल अंग्रेजी ही पढ़ना पसंद करते थे। शासन सत्ता हिंदी का कोई महत्त्व नहीं समझती थी और प्रजा भी इसे लाभदायक न मानकर इसकी ओर ध्यान न देती थी। हिंदी और उर्दु के कुछ मदरसे यहाँ थे अवश्य, परंतु यह अनाथाश्रमों से कम नहीं थे। लॉर्ड मैकाले ने भारत में अंग्रेजी का प्रचार किया। 1835 ई० में अदालतों की भाषा उर्दू बनी। इससे जनता को अपनी भाषा के निकट आने का अवसर तो प्राप्त हुआ परंतु अपनी वास्तविक भाषा का ज्ञान नहीं हो सका। उर्दू से जनता की अपनी भाषा पृथक् थी इसलिए वह भी जनता द्वारा अंग्रेजी की भाँति केवल काम निकालने के लिए अपनाई गई।

खड़ी बोली, जिस पर उर्दू और फ़ारसी का प्रभाव था, ‘रेखता’ कहलाई। मुग़ल साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने पर दिल्ली-आगरे का प्रभुत्व नष्ट हो गया। यहाँ के कवियों ने लखनऊ और मुर्शिदाबाद में जाकर आश्रय लिया। इनके साथ खड़ीबोली भी वहाँ पहुँची और प्रचारित हुई। यह उर्दू न होकर साधारण बोलचाल की भाषा थी। रीतिकाल की कविता का युग जीवन की रंगीनियों के साथ समाप्त हुआ और वास्तविकता ने अपना पैर जमाया। वास्तविकता के स्पष्टीकरणों के लिए एक स्वच्छ भाषा की आवश्यकता थी और वह भी गद्य के रूप में। आने वाले युग में परिवर्तित विचारों का अवधी और ब्रज साथ न दे सकी।

यों तो खड़ीखोली और गद्य के उदाहरण यत्र-तत्र पिछले युग में भी मिलते हैं, परंतु उस समय यह भाषा काव्य-भाषा न होने के कारण साहित्यिकों द्वारा नहीं अपनाई गई। हिंदी गद्य के चार प्रवर्तक माने जाते हैं। सदासुखलाल जी, लल्लूलाल जी, सदल मिश्र और इंशा अल्लाखाँ। इन विद्वानों ने हिंदी में सर्वप्रथम गद्य लिखे; किसी की भाषा में पूर्वीपन और संस्कृत में मिश्रित पदावली तो किसी ने उसमें ब्रज की पुट दे रखा था; किसी ने फ़ारसी के शब्दों की झड़ी लगा रखा था, तो किसी ने उसमें मुहावरे और अंत्यानुप्रास भरकर उसे रोचक बनाने का प्रयत्न किया था।

इन चार महानुभावों के अतिरिक्त गद्य के प्रचार में ईसाई धर्म और आर्य-समाज ने भी काफ़ी सहयोग दिया। ईसाई पादरियों को अपने मत के प्रचार के लिए हिंदी सीखनी पड़ी और इस प्रकार हिंदी का भी प्रचार हुआ। बाइबिल का खड़ीबोली में अनुवाद हुआ। स्वामी दयानंद जी ने अपना प्रधान ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश, हिंदी गद्य में लिखा इसके पश्चात् राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह जी का समय आता है। इस काल में भी हिंदी प्रचार पर काफ़ी बल दिया गया।

इस समय तक केवल खड़ी बोली गद्य का प्रारंभिक काल चल रहा था, जिसमें कोई विशेष साहित्यसृजन नहीं हुआ और न ही कोई प्रतिभाशाली लेखन ही उस काल का मिलता है। जो कुछ नमूने मिलते हैं वह गद्य के उत्थान-काल के होने के कारण हिंदी साहित्य के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। अब हिंदी गद्य के उत्थान में दूसरा युग भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र का आता है। भारतेंदु जी ने भाषा क्षेत्र में जिस मार्ग का अनुसरण किया है वह राजा शिव प्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह का मध्यवर्ती भाग था। इन्होंने भाषा में उन सभी शब्दों का प्रयोग किया जिन्हें भाषा पचा सकती थी। न इन्हें फ़ारसी से कोई द्वेष था और न भाषा को संस्कृतगर्भित बनाने में कोई रुचि। तत्सम शब्दों की अपेक्षा तद्भव शब्द आप अधिक प्रयोग में लाए हैं। भारतेंदु जी की प्रतिभा सभी दिशाओं में समान थी इसलिए आपने सभी प्रकार के साहित्य का सृजन किया है। नाटक, गद्य लेख, कविता और विविध विषयों पर आपने लिखा है। प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बाबू बालमुकुंद, बद्रीनारायण चौधरी तथा अंबिकाप्रसाद व्यास इस काल के प्रमुख लेखक हैं। यह काल भाषा निर्माण के लिए जितना उल्लेखनीय है उतना ही साहित्य निर्माण के लिए भी है। शुद्ध व्यवस्थित भाषा न होने के कारण ठोस साहित्य का सृजन इस काल में भी कम अवश्य हुआ, परंतु उसका सर्वथा अभाव नहीं कहा जा सकता। इस काल में बँगला और अंग्रेजी साहित्यों से काफी अनुवाद हुए। गद्य लेख भी इस काल में लिखे गए और पत्र-पत्रिकाएँ भी निकलीं जिनमें गद्य लेखों का जोर रहा। यह समय हिंदी प्रचार के आंदोलन का समय था, इसलिए इस काल से हम ठोस साहित्य की आशा भी नहीं कर सकते।

इसके पश्चात् हमारे सामने महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का काल, जिसे नवीन युग कहते हैं, आता है। इस काल में हिंदी गद्य ने व्यवस्थित रूप धारण किया और द्विवेदी जी के परिश्रम द्वारा भाषा को परिमार्जित करने में बहुत सहयोग मिला। भाषा को शुद्ध सुसंस्कृत रूप दिया। व्याकरण की अशुद्धियाँ दूर की, वाक्य दोषों को निकाला, विचारशील लेखकों को हिंदी लिखने पर मजबूर किया, भाषा के कोष में शब्दावली की कमी पूरी की, हिंदी में नए लेखकों को जन्म दिया। वह सभी दिशाओं में अबोध रूप से होना प्रारंभ हो गया। नाटक, कहानी और उपन्यास, समालोचना, निबंध, जीवनियाँ, इतिहास, गद्य-काव्य, नागरिकशास्त्र, यात्राएँ दर्शनशास्त्र, विज्ञान, चिकित्सा सभी विषयों पर ग्रंथ लिखे गए। गद्य का परिमार्जन और व्यवस्था होने की देर थी कि लेखकों ने अपनी लेखनियों को उठा लिया और साहित्य भंडार को भर दिया। जयशंकर ‘प्रसाद’ जैसे नाटककार, देवकीनंदन खत्री और मुंशी प्रेमचंद जैसे कहानीकार और उपन्यासकार, पंडित पद्मसिंह तथा रामचंद्र शुक्ल जैसे समालोचक, महावीर-प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल और गुलाबराय एम. ए. जैसे निबंधकार हिंदी-साहित्य में पैदा हुए जिन्होंने सुंदर गद्य लिखकर पठन-पाठन के लिए पर्याप्त पुस्तकें हिंदी-साहित्य को प्रदान कीं। इस प्रकार यह नवीन काल भाषा और साहित्य दोनों की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस काल में गद्य साहित्य अपनी सभी दिशाओं में पूर्णरूप से प्रस्फुटित हुआ और आज हिंदी जब कि यह राष्ट्र-भाषा घोषित हो चुकी है इसमें सभी प्रकार का साहित्य दिन प्रतिदिन दिन दूनी और रात चौगुनी प्रगति के साथ लिखा जा रहा है। हिंदी का गद्य साहित्य आज किसी भाषा से पिछड़ा हुआ नहीं कहा जा सकता। उसमें सभी विषयों की पुस्तकें अच्छे-अच्छे विचारवान लेखकों द्वारा लिखी हुई मिलती हैं और जिन विषयों पर अभी पुस्तकों की कमी है, उस कमी को हिंदी के प्रकाशक बहुत शीघ्र पूरा करने का प्रयत्न किया जा रहा था। आशा है निकट भविष्य में हिंदी का गद्य-साहित्य अंग्रेजी और रूसी साहित्य के समान विश्व-साहित्यों की श्रेणी में रखा जा सकने योग्य बन जाएगा। प्रत्येक हिंदी भाषा-भाषी को इसके लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए।

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