एक बार एक अमेरिकन स्त्री ने बापू से पूछा – “आपको क्रोध प्राता है या नहीं?”
बापू ने हँसकर जवाब दिया- “बा से पूछो।”
बा को बापू के क्रोध का कैसा अनुभव था, वह इस घटना में पढ़िए :
बापू भिवानी गए थे। साथ में बा भी थीं। बापू का बड़ा भारी स्वागत हुआ। हॉल में बापू बैठे थे और दर्शकों से हॉल भरा हुआ था; पर बा नहीं थीं। पंडित नेकीराम शर्मा बा को खोजने लगे, तो वे एक सूने कमरे में खिड़की के पास बाहर की ओर मुँह करके चुप- चाप खड़ी मिलीं।
पंडित नेकीराम ने पूछा – “आप यहाँ क्यों खड़ी हैं?”
बा ने उदास भाव से कहा – “बापू की खड़ाऊँ कहीं खो गई हैं।”
पंडितजी ने कहा – “खड़ाऊँ की यहाँ क्या कमी है? अभी नई मँगवा देता हूँ।”
बा ने कहा- “वे अपनी खड़ाऊँ पहचानते हैं।”
नहाने का समय आया। बापू ने स्नान किया तो उनके सामने एक जोड़ी नई खड़ाऊँ रखी गईं। उन्हें देखकर उन्होंने कहा – “ये तो मेरी खड़ाऊँ नहीं हैं।”
डरी हुई बा ने आगे आकर कहा – “वे तो रेल में कहीं छूट गई।”
बापू ने कहा – “तुम्हारे साथ रहकर जो क्रोध को जीत सकता है, वह संसार को जीत सकता है।”
और वे खड़ाऊँ पहने बिना ही अपने काम के कमरे में चले गए।