सकडाल-पुत्र कुम्हार का काम करता था। उसके मिट्टी के बर्तनों का व्यापार भी अच्छा चलता या। गोशालक का अनुयायी होने के कारण वह भाग्यवादी था। उसकी मान्यता थी कि जो कुछ होता है, नियतिवश होता है; मानव के कृतित्व जैसा कुछ नहीं है।
एक बार भगवान महावीर उधर से निकले और उसके यहाँ ठहरे। बातचीत चली। उसी दौरान में उन्होंने पूछा – “भाई, एक बात बताओ ! तुम्हारे यहाँ मिट्टी के बर्तन बनाए जाते हैं – भला यह सब कौन करता है?” सकडाल – पुत्र ने झट उत्तर दिया– “सब नियतिवश ही तो होता है—जब संयोग मिल जाता है, तब ऐसा हो जाता है।” उन्होंने फिर पूछा – “अच्छा, मगर तुम्हारे इन पके पकाए बर्तनों को कोई फोड़ दे तो?” कुम्हार कुछ तमका- “फोड़ेगा कैसे मेरा नुकसान जो होता है; और वह है कौन मेरा नुकसान करने वाला?” भगवान महावीर ने फिर पूछा- अगर कोई अत्याचारी तुम्हारी पत्नी से बलात्कार करे तो…?” यह सुनना था कि सकडाल पुत्र आवेश में आ गया – “कौन माई का लाल है जो मेरे रहते मेरी पत्नी की तरफ आँख उठाकर देखे – मैं उसकी खबर न ले लूँ?” महावीर बोले—“लेकिन इसमें उसका क्या दोष? जो कुछ होता है, वह नियतिवश हो तो होता है ! सकडाल – पुत्र की आँखें खुलीं। उसकी सारी भाग्यवादी मान्यता क्षण-भर में दूर हो गई। वह बड़े विनम्र भाव से बोला- “नहीं महाराज, आप ठीक कहते हैं। भाग्य का बीज तो पुरुषार्थ ही है।”