काशी में एक विशुद्धानंद परमहंस हो गए हैं। बड़े-बड़े राजे-रजवाड़े उनके शिष्य थे। वे थे भी उच्च कोटि के महापुरुष एक बार काश्मीर के महाराजा उनका दर्शन करने गए। बाबा अकेले अपने कमरे में पलंग पर विराजमान थे। उनका रहन-सहन पलंग-गलीचे, सोने-चाँदी की वस्तुएँ, बेशकीमती कालीने आदि देखकर राजा का दिमाग चक्कर खा
गया। वे खड़े-खड़े ऊपर-नीचे उन चीजों को निहारते रहे, तभी स्वामी जी ने घंटी बजाई और उनके दो चेले खट् वहाँ पहुँच गए। उन्होंने महाराजा काश्मीर से कहा कि तुम अभी जाओ, कल बारह बजे आना तब तुम्हारा परमहंस मिलेगा। चेलो ने महाराजा को भेज दिया।”
“दूसरे दिन सबेरे ही स्वामी जी ने अपने कमरे का सारा सामान बाहर मैदान में निकलवा दिया। कुल कमरा खाली कर दिया गया और खुद वे एक लंगोटी पहने बाहर मिट्टी में बैठ गए। भक्तों को आदेश दिया कि वे शहर से भिखमंगों को बुला लाएँ। तुरंत वहाँ सैकड़ों भिखमंगे आ गए। स्वामी जी ने कुल सामान उन्हें दे दिए। ठीक बारह बजे राजा वहाँ आया। बाबा ने उन्हें मिट्टी में अपने साथ बैठने को कहा। बोले “आओ, देखो ठाट से अपने परमहंस को!”
“वे देर तक उनसे सत्संग करते रहे तभी वहाँ काशी नरेश आ गए। वे भी स्वामी जी के भक्त थे। उन्हें वह नजारा देखकर हैरानी हुई। उन्होंने तुरंत आदमी भेजकर बाजार से सारे साजो-सामान मँगवाए। पहले की तरह कमरे को पलंग, कालीन, गलीचों आदि से सुसज्जित कर दिया गया तब उन्होंने स्वामी जी से वस्त्र धारण करके वहाँ विराजमान होने की विनती की।
स्वामी जी हँसते हुए बोले- लो ! फिर तो तुमने मुझे अपने जैसा राजा बना ही दिया। मैंने इस बाबू को मिलने के लिए वे सारी चीजें लुटा दी थीं। कारण, इनके अनुसार परमहंस तो नंगा और दरिद्र होता है।
काश्मीर के महाराजा ने अपनी भूल स्वीकार की और स्वामी जी से क्षमा माँगी। उनकी समझ में आ गया कि परमहंस कोई पहनावा अथवा रहन-सहन नहीं होता। वह तो विचार और वैराग्य की वैसी ऊँची धारणा है जिसके लिए इन चीजों का होना या न होना कोई महत्त्व नहीं रखता।