रावण जब सीताजी को उठाकर ले गया तब रामचंद्र जी को रास्ते का पता चले, इस दृष्टि से सीताजी ने अपने गहने नीचे पृथ्वी पर फेंक दिए थे। जब प्रभु के हाथ में वे गहने आए तब उन्होंने लक्ष्मणजी को वे गहने दिखाए। पूछने लगे कि क्या तुम इन गहनों को पहचानते हो?
लक्ष्मणजी ने जवाब दिया
“नाहं जानामि केयूर, नाहं जानामि कुण्डले।
नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्॥”
“केयूर और कुण्डल, जो कि ऊपर के भाग के अलंकार हैं, उन्हें मैं नहीं जानता। मैं माता सीता के नूपुरों को जानता हूँ, क्योंकि रोज उनके चरणों की वन्दना करते समय मैं उन्हें देखता था।”
एक बार साबरमती आश्रम में इस श्लोक पर चर्चा चली। बापू तो क्रांतिकारी थे ही वे बोल उठे “लक्ष्मण का यह कथन सही नहीं लगता। माता जैसी भाभी का मुख नहीं देखना, यह कैसा ब्रह्मचर्य?” फिर विनोबा से पूछा “इस पर तुम्हारा क्या अभिप्राय है?”
विनोबा ने जवाब दिया, “लक्ष्मण ब्रह्मचारी थे, इसलिए सीता का मुख उन्होंने देखा नहीं था। यह दृष्टि आपको नापसंद है, इसलिए आप उस वाक्य को नापसंद करते हैं। उस दृष्टि से वह नापसंद करने योग्य ही है। स्त्री का मुख नहीं देखने का नियम ब्रह्मचारी को लेना, इसमें गलती नहीं है। परंतु मैं इस वाक्य का दूसरा अर्थ लेता हूँ कि राम, सीता के पति, लक्ष्मणजी से पूछते हैं। इसका अर्थ है कि राम भी अपनी पत्नी के गहने पहचानते नहीं थे। मतलब, पति भी पत्नी के गहने नहीं पहचानता है। निष्कर्ष यह निकला कि सीता और राम, दोनों अनासक्त थे, दोनों एक दूसरे की आकृति की ओर नहीं देखते थे, एक-दूसरे को ब्रह्मरूप देखते थे। परंतु लक्ष्मण सीता के चरणों की पूजा करता था, पादाभिवंदन करता था, यानि उपासना के तौर पर चरणाकृति को मूर्ति समझकर उपासना करता था।”
इतना सुंदर भाष्य बनाकर बापू ने कहा “तुम तो शास्त्र – वचनों का खूब सुंदर बचाव करना जानते हो। यह ठीक भी तो है। जहाँ तक संभव हो, शास्त्रवचनों का अच्छा अर्थ करना चाहिए।”
विनोबा बहुत बार कहते थे कि मैं अपने को स्त्री की उपस्थिति में बहुत सुरक्षित महसूस करता हूँ। सामने कोई स्त्री आई तो मुझे लगता है कि माता आई। ब्रह्मचर्य में पुरुष न पुरुष रहता है न स्त्री स्त्री दोनों आत्मा है। सबको ब्रह्मरूप देखना, यही ब्रह्मचारी की दृष्टि हो सकती है।”