सप्त सरोवर स्थित स्वामी सत्यमित्रानंद जी महाराज के पंडाल में संत सम्मेलन हो रहा या। पंडाल गैरिक वस्त्रधारी साधुओं से भरा था। मंच पर भी दर्जनों महात्मागण विराजमान ये। सबसे आगे ही परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के वयोवृद्ध आत्मनिष्ठ संत स्वामी भजनानंद सरस्वती जी महाराज को बिठाया गया था।
कुछ कहने के लिए उनकी ओर माइक बढ़ाया गया। इस बनावट भरी दुनिया में वे परम विरक्त महापुरुष चुपचाप बैठे थे। टाँगों का कपड़ा भी हटा हुआ या। अति वृद्ध तो थे ही माइक देखकर बोल पड़े- सत्यमित्रानंद, क्या कहूँ मैं? तुमलोग अंग्रजी पढ़े साधु हो। नई उम्र के हो। तुम्हीं बोलो। मुझे कुछ नहीं कहना है।”
नहीं-नहीं कहते-कहते वे सामने बैठे लोगों की ओर देखते हुए बोल पड़े “सुननेवाले भी तो हों? आजकल श्रोता कहाँ कोई होता है। श्रोता को सरल, सुशील और शुचि हृदयवाला होना चाहिए। पात्र नहीं होगा तो अमृत कहाँ टिकेगा। सात्विक संपदावाला ही सत्संग सुनकर उसकी धारणा कर सकता है।”
अब ये बच्चियाँ आई हैं सुनने। बताओ, बिंदिया लगाकर, होठ रंगकर, चिट-मिट कपड़े पहनकर साधु दर्शन और सत्संग सुनने के लिए आई हैं ये क्या मिलेगा इन्हें? देह की साज-सज्जावाले लोग देहातीत सिद्धांतों को कहाँ समझ पाएँगे !
वैसा कहते-कहते सामान्य बोलचाल में वे गीता के आत्मा के अमरत्व तथा देह की नश्वरता पर बड़ा ही मार्मिक उपदेश कर गए। आधे घंटे में सबकुछ कह गए वे।
फिर एकाएक माइक हटाकर बोले – “लो, मुझे कुछ कहना नहीं है। तुम्हीं लोग सुनाओ
इन्हें।”
शास्त्र तो उन महापुरुषों के जीवन में मानो मूर्त हुआ था।