एक बार गुरु गोविन्दसिंह जी के यहाँ एक कलंदर आया जो रीछ को पकड़कर नचाते हैं, उन्हें कलंदर (मदारी) कहते हैं। उस समय गुरु गोविंदसिंह जी आराम की मुद्रा में बैठे थे और एक सेवक चॅवर डुला रहा था। भालू का खेल देखकर वह सेवक खूब हँसा और बोला: “किस पाप के कारण इसकी यह गति हुई?”
गुरु गोविन्दसिंह जी ने उससे कहाः “यह तेरा बाप है।”
सेवकः “मैं मनुष्य हूँ, यह रीछ मेरा बाप कैसे?”
“यह पिछले जन्म में तेरा बाप था। यह गुरु के द्वार तो जाता था लेकिन गुरु का होकर सेवा नहीं करता था। अपना अहं सजाने के लिए, उल्लू सीधा करने के लिए सेवा करता था, इसलिए इसे रीछ बनना पड़ा है।
एक दिन सत्संग पूर्ण होने के बाद प्रसाद बाँटा जा रहा था। इतने में वहाँ से किसान लोग बैलगाड़ियाँ लेकर निकले। उन्हें गुरुजी के दर्शन हो गए। अब गुरुद्वार का एक-एक कौर प्रसाद लेते जाएँ। वे बैलगाड़ी से उतरे, बैलों को एक ओर खड़ा किया और इससे बोलेः “हमें प्रसाद दे दो।”
इसने उधर देखा ही नहीं। वे भले गरीब किसान थे लेकिन भक्त थे। उन्होंने दो तीन बार कहा किंतु प्रसाद देना तो दूर बल्कि इसने कहा: ‘क्या है ? काले-कलूट रीछ जैसे, बार- बार प्रसाद माँग रहे हो, नहीं है प्रसाद !”
वे बोलेः “अरे भाई ! एक-एक कण ही दे दो। जिनके हृदय में परमात्मा प्रकट हुए हैं, ऐसे गुरुदेव की नजर प्रसाद पर पड़ी है। ब्रह्मज्ञानी की दृष्टि अमृतवर्षी थोड़ा सा ही दे दो।’
इसने कहा: ‘क्या रीछ की तरह ‘दे-दे कर रहे हो ! जाओ नहीं देता !”
उसमें एक बूढ़ा बुजुर्ग भी था। वह बोलाः ‘हमें गुरु के प्रसाद से वंचित करते हो, हम तो रीछ नहीं हैं किंतु जब गुरुसाहब तुम्हें रीछ बनायेंगे तब पता चलेगा !” किसान लोग बद्दुआ देकर चले गये और कालांतर में तेरा बाप मर कर रीछ बना। फिर भी इसने गुरुद्वार की सेवा की थी, उसी का फल है कि कई रीछ जंगल में भटकते रहते हैं किंतु यह कलंदर के घर आया और यहाँ सिर झुकाने का इसे अवसर मिला है। लाओ, अब इसका गुनाह माफ करते हैं।”
गुरुदेव ने पानी छाँटा सेवक ने देखा कि गुरुसाहब की कृपा हुई रीछ के कर्म कट गये और उस नीच चोले से उसका छुटकारा हुआ।