तपोवन के वृक्षों की चोटी पर नवीन प्रसन्नता से प्रभात जागा। विद्याभ्यास में लीन तापस-बालक उस पावन प्रातःबेला में सुस्निग्ध ओस की बूँदों के समान निर्विकार लगते थे। परम श्रद्धालु भाव से वे सब एक अति वृद्ध वट वृक्ष की छाया में आचार्य गौतम को घेरकर बैठे थे।
इसी मुहूर्त में सत्यकाम ने समीप आकर ऋषि के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और उत्सुक नेत्रों ने टकटकी लगाए गुरु के आदेश की प्रतीक्षा करता रहा। आचार्य ने आशीर्वाद देकर पूछा- “प्रियदर्शी सौम्य ! आज तो बताओ, तुम्हारा गोत्र वया है?”
बालक सुमन ग्रीवा को उन्नत कर कहा-भगवन्, में नहीं जानता कि मेरा गोत्र क्या है ! माता से पूछा था-उन्होंने कहा – ‘बेटा सत्यकाम ! अपरिमित दैन्य से दंशित युवावस्या में ऋषियों और गृहस्थों की परिचर्या करके तुम्हें पाया है। इतना ही भर मुझे ज्ञात है कि तुम इस पतिहीना जावाला की कोख से जन्मे हो ! तुम्हारा गोत्र में नहीं जानती!”
सुनकर शेष छात्रों ने धीमे-धीमे बातें शुरू कर दीं। मधु के छत्ते में पत्थर फेंकने पर विक्षिप्त और चंचल मधुमक्खियों के समान सभी विक्षिप्त से हो गए। कोई हँसने लगा, कोई उसे ‘लज्जाहीन अनार्य के अहंकार’ को धिक्कारने लगा। किंतु गौतम ऋषि आसन छोड़कर उठे और दोनों बाँहों में सत्यकाम को भरकर बोले- “हे द्विजोत्तम ! आओ, मैं तुम्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दूँगा ! तुम सब विद्याओं के अधिकारी हो!”