सन् 1923 की बरसात में साबरमती में बाढ़ आई थी। नदी का पानी तेजी से चढ़ता था रहा था। आश्रमवासियों की जान खतरे में थी। अहमदाबाद से सरदार पटेल ने ख़बर भेजी कि आश्रम तुरंत खाली करके सभी लोग शहर में आ जाएँ, सवारियाँ भेजी जा रही हैं।
बाबू विचार में पड़ गए। घंटा बजाकर आश्रमवासियों को प्रार्थना-स्थल पर इकट्ठे होने की सूचना दी गई। पानी आश्रम की सीढ़ियों पर चढ़ने लग गया। बाढ़ का रौद्र रूप सामने था।
सभी इकट्ठे हुए। बापू ने कहा- “भगवान के कालरूप का हम सभी दर्शन कर रहे हैं। उनकी लपलपाती जीभ शायद थोड़ी ही देर में हम सभी को समेट लेगी। आश्रम खाली करने की सूचना भी आ गई है। जो शहर जाना चाहें, जा सकते हैं। पर मैं तो आश्रम के पशु-पक्षियों और जानवरों को छोड़कर यहाँ से नहीं जाऊँगा।”
सभी आश्रमवासी उनके साथ ही रहे। नदी के पानी का चढ़ाव देखकर सब आनंद-विभोर हो रहे थे। इस पर एक भाई ने पूछा- “बापू, मौत सामने खड़ी है, पर ये आश्रमवासी तो आनंदमग्न हैं। ऐसा क्यों?”
बापू ने तुरन्त उत्तर दिया- “भाई, यह तो सामूहिक मृत्यु का आनंद है।”