एक फकीर ऋषिकेश में गंगा किनारे नंगे बदन बैठा था। उनकी जाँघ में एक जबर्दस्त फोड़ा हो गया था। उसमें कीड़े रेंग रहे थे। फकीर उसको निहारकर अत्यंत खुश हो रहा था। कोई आदमी बगल में खड़े होकर वह देख रहा था। जब कीड़े जख्म से नीचे गिर जाते थे तब फकीर उन्हें उठाकर फिर घाव के बीच रख देता था। वह दृश्य देखकर उस आदमी का दिल सिहर गया। उसने फकीर से कहा, “आप इस जख्म का इलाज क्यों नहीं कराते? अमुक अस्पताल में साधु-संतों को मुफ्त दवा दी जाती है, आप वहाँ जाकर मरहम-पट्टी करवा लें।”
फकीर ने उस आदमी से बात का प्रसंग बदलते हुए पूछा, “आप कल कहाँ ठहरे थे?” उसने जवाब दिया, “अमुक धर्मशाला में।” फकीर ने पूछा, “धर्मशाला में समुचित सफाई व्यवस्था थी? कमरे की सफेदी ठीक थी? बिस्तरे साफ-सुथरे थे? नालियों में गन्दगी तो नहीं थी?”
उस आदमी ने कहा, ‘धर्मशाला तो धर्मशाला ही ठहरा। वहाँ गंदगी रहती ही है। मुझे तो सिर्फ आज की रात गुजारनी थी, वहाँ की गंदगी से क्या लेना-देना था?”
फकीर ने कहा, “भले आदमी, वहाँ कुछ रोज ठहरकर सफाई या मरम्मत वगैरह तो कराना चाहिए था!”
उस आदमी ने कहा, “रात भर सिर्फ रुकना या किराया चुकता किया, चलता बना। वहाँ मरम्मत कराने की बेवकूफी क्यों करता?”
फकीर ने कहा, ‘भई, तुमने जो बेवकूफी नहीं की वहीं मुझे करने को कहते हो? यह शरीर कुछ दिनों के लिए मुझे रहने को मिला था। अब किराया पूरा हो चुका है। मैं इसमें रहकर अपना काम बना चुका हूँ। अब कल इसे खाली कर दूँगा। एक रोज के लिए मरम्मत कराकर किसी का एहसान क्यों लूँ?’
वह आदमी दूसरे दिन वहाँ गया। देखा, फकीर का मृत शरीर पड़ा था। उस आदमी को बाबा की एक रोज पूर्व की बात यादकर वहीं वैराव्य जग गया और वह भी फकीर हो गया।