एक बार महाराष्ट्र के विख्यात संत गाडगे जी महाराज कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध सज्जन अपने हाथ में चिट्ठी लिए हुए घूम रहे थे और सबसे उसे पढ़ने का निवेदन कर रहे थे। मगर लोग अपने-अपने कार्यों में इस तरह व्यस्त थे कि उस वृद्ध की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जा रहा था। उसकी चिट्ठी पढ़ना तो बहुत दूर की बात थीं। एकाध व्यक्ति ने देखा भी तो मुँह बनाकर चल पड़ा। वृद्ध की ऐसी हालत देखकर संत गाडगे जी महाराज से नहीं रहा गया। वह उनके पास पहुँच कर उनसे बातें करने लगे। वृद्ध ने उनसे भी चिट्ठी पढ़ने का अनुरोध किया। संत गाडगे जी के साथ उनके एक शिष्य भी वहीं मौजूद थे। गाडगे जी का संकेत पाकर शिष्य ने वृद्ध को चिट्ठी पढ़कर सुनाई। चिट्ठी पढ़वाने के बाद जब वृद्ध गाडगे जी महाराज का धन्यवाद करके जाने लगे तो उन्होंने वृद्ध से कहा, “बाबा, आप अपने घर के बच्चों को स्कूल भेजते हो या नहीं? यदि आप अपने बच्चों को अभी भी नहीं पढ़ाएँगे तो उन्हें भी भविष्य में आप ही की तरह अपनी चिट्ठी पढ़वाने के लिए लोगों की मिन्नत करनी पड़ेगी, उनके हाथ-पैर जोड़ने पड़ेंगे। इतने पर भी पता नहीं कि कोई उन्हें चिट्ठी पढ़कर सुनाएगा भी या नहीं। संत गाडगे जी महाराज की बात सुनकर वृद्ध अत्यंत लज्जित हुए और बोले, “महाराज, आज आपने मेरी आँखें खोल दी हैं और मुझे शिक्षा की अहमियत बता दी है। मैं अब अपने बच्चों को तो पढ़ाऊँगा ही साथ ही खुद भी पढ़ने की कोशिश करूँगा। उसका जवाब सुनकर संत गाडगे जी बहुत खुश हुए और बोले, “बाबा, आपका फैसला बिल्कुल सही है। नेक कर्म व अच्छी चीज़ ग्रहण करने की कोई उम्र नहीं होती, उसे किसी भी उम्र में ग्रहण किया जा सकता है। जब जागो तभी सवेरा यह कहकर उन्होंने उस वृद्ध को शुभकामनाएँ दीं और सत्संग करने के लिए चल पड़े।