किसी गाँव में एक संत आए। रात्रिकाल में कुछ ग्रामीण उनके निकट सत्संगलाभ करने के लिए इकट्ठे हुए। महात्मा ने सत्संग में कहा कि भगवान सबके रक्षक हैं। उनका नाम विश्वम्भर है। वे ही सबका भरण-पोषण करते हैं। श्रोताओं में से एक ने शंका उठाते हुए कहा ‘महात्मन्. भगवान सबको कैसे दाना-पानी देते हैं? हम न खाएँ तो क्या वे आकर खिलाएँगे? हाँ, वे चाहें तो जबरन भी खिला सकते हैं,’ महात्मा ने विश्वासपूर्वक कहा। उस व्यक्ति को महात्मा के कथन की सत्यता को परखने की जिद्द हो आई। वह जंगल में चला गया और एक पेड़ की डाली पर चढ़कर बैठ गया। उसने प्रण किया कि देखें भगवान मुझे कैसे यहाँ जबरन खिलाते हैं।
उधर से कुछ बाराती गुजर रहे थे। उन्होंने उस पेड़ के नीचे बैठकर खाने को सोचा। खाने का सामान उनके साथ था। वे अभी खाने ही लगे ये कि जंगल से शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। जान की रक्षा में वे सभी इधर-उधर भाग खड़े हुए। उन्होंने खाना वहीं छोड़ दिया। वह आदमी ऊपर से भोजन को देखता रहा पर उसकी तो प्रतिज्ञा यी कि खिलानेवाला ऊपर लाकर मुझे जबरन खिलाएगा तब भी मैं नहीं खाऊँगा। रात हो गई। कुछ चोर चोरी करने के उद्देश्य से चलते-चलते वहीं रुक गए। उन्होंने भोजन पड़ा देखा तो अपना भाग्य सराहा।
वे खाने ही लगे ये कि उनमें से किसी ने चौंककर कहा – ‘इस निर्जन वन में भोजन का पड़ा होना शंका का विषय है। कहीं कोई छिपा न हो और इसमें विष न मिला रखा हो। अतः पहले इधर-उधर देख लेना चाहिए। उन्होंने दीए की रोशनी से ऊपर देखा तो वह आदमी बैठा मिल गया। उसे उन्होंने नीचे उतारा। उसकी लाख सफाई देने के बाद भी उन्हें विश्वास नहीं हुआ और तय किया कि यह खाना उसे ही खिलाया जाए। विष होगा तो वहीं तो मरेगा। वह इधर-उधर मुँह करता रहा पर वे भला कब माननेवाले थे। उन्होंने दो-चार तमाचे लगाए और पकड़कर जबरन उसके मुँह में पूड़ियाँ घुसेड़नी शुरू कर दीं। मार खाकर बेचारा खाने लग पड़ा और उसका मन मान गया कि भगवान चाहे तो जबरन भी खिला सकता है। उसे संतों के उपदेशों की सत्यता प्रमाणित हो गई। वह पूर्ण ईश्वरनिर्भर भक्त बन गया। अपने देह-गेह की परवाह छोड़कर अहर्निश भगवान के भक्ति-पूजन में मग्न रहने लगा। उच्च भक्ति भावना से उसका जीवन दिव्य हो गया। वही व्यक्ति ‘मलूकदास’ के नाम से विख्यात हुआ जिन्होंने अपने पदो मे गाया है-
“अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कहि गए सबके दाता राम।।