एक पादरी था उसका एक आदिवासी नौकर था। नौकर ने एक दिन पादरी की घड़ी चुरा ली। पादरी ने जानते हुए भी कुछ नहीं कहा, न नौकर से और न ही किसी और से चार-पाँच वर्ष बीत गए तब एक दिन उस नौकर ने पादरी की घड़ी खुद लौटा दी। पादरी सिर्फ कुछ मुस्कराया, कहा कुछ भी नहीं।
नौकर ने पूछा – “फादर, क्या आप जानते थे कि मैंने आपकी घड़ी चुराई थी?” पादरी ने कहा “जानता था।” नौकर ने फिर पूछा तब आपने कुछ कहा क्यों नहीं? पादरी बोला “किसी से कहना मेरा काम नहीं है। मेरा काम प्रभु ईसा के समक्ष लोगों को अच्छा बनने के लिए प्रार्थना कर देना मात्र है।”
नौकर ने प्रभावित होते हुए पूछा “फादर, इस तरह रात-दिन प्रार्थना कर देने से आपको क्या मिलता है? क्या इसकी कुछ सुनवाई होती है, प्रभु के यहाँ?”
पादरी ने उत्तर दिया सुनवाई नहीं होती तो तुमने घड़ी कैसे लौटा दी? तुम अच्छे बन गए, यही फायदा हुआ फायदा यह नहीं कि मेरी घड़ी मिल गई। सभी अच्छे बनें, सुखी बनें, इसी के लिए मैं रात-दिन प्रभु ईसा से प्रार्थना करता हूँ। दूसरा कोई मेरा स्वार्थ नहीं है।”
तबसे वह नौकर बिल्कुल सुधर गया और उस पादरी का परम भक्त बन गया। बाद में खुद ईसाई भी बन गया। यह है साधु की सेवा करने का तरीका।”