कष्ट का अनुभव किए बिना काम करने की कला मेरे पिताजी में थी। पंद्रह-बीस मील पैदल चलना उनके लिए साधारण बात थी। उनकी मृत्यु की घटना भी मेरे मन में हू-ब-हू चित्रित है। वे ईवरनपुर स्कूल में अध्यापक थे। वहीं उन्हें प्लेग की गिल्टी निकल आई। उन्हें लगा कि जीवन-यात्रा पूरी होने को आई घोड़े पर बैठ कर नदी तक आए। वहाँ से घोड़ा लौटा दिया और दर्द होने के बावजूद दोपहर में गठरी लादे घर पर पहुँचे।
दूसरे ही दिन उन्होंने शरीर त्याग दिया। अंत समय में मैंने उनसे पूछा, “कुछ कहना है?”
शांतिपूर्वक उत्तर मिला, “कहना क्या है! कुछ भी गुप्त नहीं है।” और बड़ी निश्चिंतता से उन्होंने शरीर त्याग दिया।