प्रयाग में गंगा तट पर एक महात्मा रहते थे। वे वयोवृद्ध थे। जब कभी महर्षि दयानंदजी उन्हें मिलते, तो वे महर्षिजी को ‘बच्चा’ कहकर संबोधन करते थे। एक दिन उस वृद्ध संत ने महर्षिजी को कहा – “बच्चा, अगर आप पहले के ही निवृत्ति-मार्ग में स्थिर रहते और परोपकार के झगड़े में न पड़ते तो आपकी इसी जन्म में मुक्ति हो जाती। अब तो आपको एक और जन्म धारण करना पड़ेगा।’
महर्षिजी ने कहा – “महात्मन् ! मुझे अपनी मुक्ति का कुछ भी ध्यान नहीं है। जिन लाखों मनुष्यों की मुक्ति-चिंता मुझे चलाय- मान कर रही है उनकी मुक्ति हो जाए, मुझे भले ही क्यों न कई जन्म धारण करने पड़ें। दुखों के त्रास से, दीन दशा से और दुर्बल अवस्था से परम पिता के पुत्रों को मुक्ति दिलाते, मैं आप ही आप मुक्त हो जाऊँगा।”