14 श्रावण संवत् 1936 को क्रांति के अग्रदूत, महर्षि दयानंद बरेली पधारे। मुंशीराम के पिता श्री नानकचंद्रजी को आदेश मिला कि पंडित दयानंद सरस्वती के व्याख्यानों में कोई उपद्रव न हो ऐसा प्रबंध करें। प्रबंध के लिए वे स्वयं सभा में गए और महर्षि के व्याख्यान से बड़े प्रभावित हुए, साथ ही उन्हें यह भी विश्वास हो गया कि उनके नास्तिक पुत्र की संशय – निवृत्ति उनके सत्संग में हो जाएगी। घर आकर उन्होंने मुंशीराम से कहा- “बेटा मुंशीराम ! एक दण्डी संन्यासी आए हैं। बड़े विद्वान घोर योगिराज हैं। उनकी वक्तृता सुनकर तुम्हारे संशय दूर हो जाएँगे। कल मेरे साथ चलना।”
मुंशीराम व्याख्यान सुनते जाते थे और उनका हृदय महर्षि की ओर आकर्षित होता जाता था, जैसे कि भटके हुए जहाज का कप्तान प्रकाशस्तंभ का प्रकाश पाकर तीव्रता से उधर बढ़ रहा हो। उस दिन व्याख्यान परमात्मा के निज नाम ‘ओ३म्’ पर था। व्याख्यान के संबंध में मुंशीरामजी (जो बाद में स्वामी श्रद्धानंद कहलाए) ने लिखा है- “वह पहले दिन का आत्मिक अह्लाद कभी भूल नहीं सकता। नास्तिक रहते हुए भी आत्मिक आह्लाद में निमग्न कर देना ऋषि-आत्मा का ही काम था।”