(सन् 1398-1518)
कबीर संत काव्य-धारा के प्रमुख एवं प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। इनके जन्म और मृत्यु को लेकर अलग-अलग मत मिलते हैं। फिर भी अधिकतर विद्वान कबीर का जन्म सन् 1398 में तथा निधन सन् 1578 में स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार इनके परिवार व वंश को लेकर भी कई अटकलें लगायी जाती रही हैं। चर्चित तथ्यों के आधार पर इनके पोषक के रूप में नीरू और नीमा जुलाहा दंपति का नाम लिया जाता है। इनका अधिकांश जीवन काशी में बीता।
रचनाएँ: कबीर निरक्षर थे। उन्होंने स्वयं कोई रचना नहीं लिखी। उन्होंने जीवन के अपने अनुभवों को ही मौखिक तौर पर कहा। उनके शिष्यों ने उनके निधन के बाद उनके उपदेशों को रचनाओं के रूप में संकलित किया जो कि ‘बीजक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसके तीन भाग हैं-साखी, सबद और रमैनी साखी दोहों में लिखी गयी है। साखी साक्षी( गवाह) शब्द से बना है। कबीर की भाषा में ब्रज, अवधी, राजस्थानी आदि का मिश्रण मिलता है।
प्रस्तुत पाठ में कबीर की उन साखियों का संग्रह किया गया है जो हमें धर्मानुसार सही-गलत का विवेक देती हैं और जीवन के सत्य को पहचानने की दृष्टि देती हैं।
साच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदे साच है, ताके हिरदे आप॥
साधू भूखा भाव का धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं॥
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय॥
संत ना छाडै संतई, जो कोटक मिले असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत॥
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित हुआ न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ें सु पंडित होय॥
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥
जाति ना पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का पड़ा रहन दो म्यान॥
कबीर तन पंछी भया, जहाँ मन तहां उड़ी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ॥
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनुवा तौ चहुँ दिशि फिरै, यह तो सुमिरन नांहि॥
काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब्ब॥
दोहा – 01
साच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदे साच है, ताके हिरदे आप॥
शब्दार्थ
साच – सच्चा
तप – तपस्या
पाप – Sin
जाके – जिसके
हिरदे – हृदय
ताके – उसके
आप – ईश्वर
प्रसंग
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि जिनके बात-व्यवहार में सच्चाई होती है उनके जीवन में सब कुछ अच्छा होता है और उनके हृदय में प्रभु का वास होता है।
व्याख्या –
कबीर जी कहते हैं कि सत्य हमेशा श्रेष्ठ होता है। संसार में सत्य के समान न कोई तपस्या है या न कोई ज्ञान। उसी प्रकार झूठ या मिथ्या पाप या बुरे काम के बराबर है। जिसके हृदय में सत्य का निवास है अर्थात् जो हमेशा सच बोलता है, उसका हृदय निर्मल होता है, पापरहित होता है। उसके निर्मल हृदय में ही भगवान विराजमान होते हैं अर्थात् सत्यवादी को ही भगवान के दर्शन मिलते हैं। ऐसे महानुभाव महान होते हैं, तत्त्वदर्शी होते हैं। समाज भी सत्यवादी का आदर करता है और पापी का अनादर।
दोहा – 02
साधू भूखा भाव का धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधू नाहिं॥
शब्दार्थ
साधू – सिद्ध पुरुष
भूखा – क्षुधा
भाव – भावना, स्नेह
धन – दौलत
नाहिं – नहीं
फिरै – घूमना
सो – वह
प्रसंग
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि वास्तव में असली साधु का स्वभाव कैसा होता है।
व्याख्या –
कबीर जी का दृढ़ विश्वास है कि साधु ने सांसारिक चीजों का त्याग कर दिया होता है और वे केवल भावनाओं को वरीयता देते हैं और दूसरों से भी भावपूर्ण व्यवहार की आशा रखते हैं परंतु अगर कोई साधु धन को प्राथमिकता देता है तो यह तय है कि वह साधु के वेश में ढोंगी है, पाखंडी है।
दोहा – 03
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय॥
शब्दार्थ
भोजन – खाना
तैसा – वैसा
वाणी – आवाज़
होय – होना
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमारे तन, मन और मस्तिष्क पर हमारे खाद्य-पदार्थ का बहुत प्रभाव पड़ता है इसलिए हमें सात्विक भोजन ही करना चाहिए।
व्याख्या –
कबीर जी कहते हैं कि जो व्यक्ति जैसा खान-पान करता है उनका व्यवहार और उनकी वाणी भी वैसी ही हो जाती है जिस प्रकार अगर कोई तामसिक भोजन करता है यानी मांस-मदिरा से युक्त खाद्य खाता है तो उसका व्यवहार भी असुर प्रवृत्ति वाला हो जाता है। अगर कोई राजसिक भोजन करता है तो उसमें कहीं न कहीं विलासिता के लक्षण दिखने लगते हैं और अगर कोई सात्विक भोजन जैसे शाकाहारी भोजन करता है तो वह आचरण और व्यवहार कुशल हो जाता है।
दोहा – 04
संत ना छाडै संतई, जो कोटक मिले असंत।
चंदन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत॥
शब्दार्थ
संत – सज्जन
छाडै – छोड़ना
संतई – सज्जनता
कोटक – करोड़ों
असंत – दुर्जन
भुवंगा – साँप
बैठिया – बैठते हैं
तऊ – तो भी
सीतलता – शीतलता
तजंत – त्याग करना
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि जो सज्जन पुरुष या साधु प्रवृत्ति वाले होते हैं वे अपनी सज्जनता या साधुता किसी भी कीमत पर त्याग नहीं करते।
व्याख्या –
कबीर जी अपने अनुभवों के आधार पर कहते हैं कि जो व्यक्ति सज्जन होता है या साधुता के गुण जिसमें विद्यमान होते हैं और जो इस गुण के लाभों से लाभान्वित हो चुका होता है, वह अपनी सज्जनता या साधुता का कभी भी त्याग नहीं करता। इस दोहे में सज्जन पुरुष के गुणों की तुलना चंदन के पेड़ से की गई क्योंकि चंदन के पेड़ पर साँप हमेशा लिपटे रहते हैं पर चंदन का पेड़ कभी भी अपनी शीतलता का त्याग नहीं करता उसी प्रकार लाखों-करोड़ों दुर्जनों के संपर्क में आने के बाद भी सज्जन या साधु अपनी सज्जनता और साधुता का त्याग नहीं करते।
दोहा – 05
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित हुआ न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ें सु पंडित होय॥
शब्दार्थ
पोथी – मोटी किताबें या ग्रंथ
पढ़ि–पढ़ि – पढ़कर
जग – दुनिया
मुवा – मर गए
पंडित – ज्ञानी
कोय – कोई
ढाई – अढ़ाई
आखर – अक्षर
सु – वह
होय – होता है।
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि वास्तव में असली ज्ञानी कौन होता है –
व्याख्या –
प्रस्तुत पंक्तियों में कबीर ने तथाकथित उन विद्वानों का उल्लेख किया है जिन्होंने अनेक मोटे-मोटे ग्रंथ पढ़ डाले और मृत्यु को प्राप्त हुए मगर असल में पंडित नहीं बन पाए। कबीर कहते हैं कि पंडित बनने के लिए मोटे-मोटे ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता नहीं बल्कि प्यार का ढाई अक्षर या प्रेम रूपी एक शब्द ही काफी है। प्यार और प्रेम को जीवन में उतारने पर ही मनुष्य सही मायनों में मनुष्य कहलाता है।
दोहा – 06
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥
शब्दार्थ
देखन – देखने
मिलिया – मिला
कोय – कोई
दिल – हृदय
खोजा – ढूँढना
आपना – अपना
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमें सबसे पहले आत्ममंथन करके अपनी बुराइयों के बारे में पता लगाना चाहिए और उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
व्याख्या –
कबीर जी ने आत्ममंथन के उपरांत अपने अनुयायियों को यह बताया है कि अगर हम बुराई की खोज में निकलेंगे तो हो सकता है कि हमें बुराई न मिले लेकिन जब हम अपने हृदय में देखेंगे तो निश्चित रूप से हमें यह ज्ञात होगा कि हममें बहुत सारी बुराइयाँ हैं। अतः, हमें सबसे पहले अपनी बुराइयों को, कमियों और खामियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए।
दोहा – 07
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय॥
शब्दार्थ
धीरे-धीरे – धीरज के साथ।,
रे मना – हे मन,
धीरे-धीरे – आहिस्ता-आहिस्ता।,
होय – होता है।,
माली – gardener,
सीचें सौ घड़ा – सौ घड़ा पानी सींचना।,
ऋतु आए फल होय – ऋतु आने पर फल होते हैं।
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि प्रकृति के सारे काम धीरे-धीरे होते हैं और हमें भी धीरज धारण करना चाहिए।
व्याख्या –
कबीर दास का कहना है कि प्रकृति के सारे काम धीरे-धीरे होते हैं। उसके लिए धैर्य की आवश्यकता है। इस कथन को पुष्ट करने के लिए उदाहरण देकर कबीर कहते हैं कि माली के सौ घड़े पानी सींचने पर भी किसी भी पेड़ में समय से पहले फल नहीं लग जाते। फल पाने के लिए उपयुक्त ऋतु की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। सही समय के आने से ही पेड़ में फल लगते हैं।
दोहा – 08
जाति ना पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का पड़ा रहन दो म्यान॥
शब्दार्थ
जाति – Caste
साधु – ज्ञानी
मोल – कीमत
तरवार – तलवार
म्यान – तलवार रखने की खोली
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमें ज्ञान को महत्त्व देना चाहिए न कि जाति को क्योंकि उन्नति का आधार ज्ञान होता है जाति नहीं।
व्याख्या –
कबीर यह मानते हैं कि समाज, राज्य, देश और संसार की उन्नति के लिए ज्ञान का होना अनिवार्य है। ज्ञान के आधार पर ही उन्नति के भवन निर्मित होते हैं इसलिए हमें ज्ञान और ज्ञानी को प्राथमिकता देनी चाहिए न कि ज्ञानी की जाति पर। अपनी बातों को पुष्ट करने के लिए कबीर जी कहते हैं कि जितना मूल्य तलवार का होता है उतना उसकी म्यान का नहीं होता।
दोहा – 09
कबीर तन पंछी भया, जहाँ मन तहां उड़ी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ॥
शब्दार्थ
तन – शरीर
भया – हो गया
तहाँ – वहाँ
उड़ी – उड़कर
जाइ – जाना
संगती – Company
सो – वह
तैसा – वैसा
फल – परिणाम
पाइ – पाए
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी तन और मन के अटूट संबंध के बारे में बताना चाह रहे हैं।
व्याख्या –
कबीर जी कहते हैं कि हमारा मन बहुत चंचल होता है। चंचल मन उस पंछी के समान होता है जो विस्तृत गगन में स्वच्छंद उड़ता है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं। इसी प्रकार जब हमारा मन हमसे नियंत्रित नहीं होता या नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो मन के साथ हमारा शरीर भी हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है। यहाँ हमें चाहिए कि हम अपने मन को नियंत्रित करें और अच्छों की संगति करें ताकि हमें भविष्य में अच्छा फल मिले इसके विपरीत अगर हम ऐसा करने में विफल हो जाते हैं तो अनचाहे फल की प्राप्ति होना अवश्यंभावी है।
दोहा – 10
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
शब्दार्थ
अति – अधिक
भला – सही
चूप – चुप रहना
बरसना – बारिश होना
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि जीवन में संतुलन की बहुत आवश्यकता है।
व्याख्या –
इस दोहे में कबीर जी मानव को सही जीवन जीने का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि हमें अपने जीवन में न ही ज्यादा बोलना चाहिए और न ही अधिक चुप्पी साधे रहना चाहिए। आवश्यकता अनुसार हमें मुखर और मूक दोनों में उचित संतुलन बनाना चाहिए। अपने मंतव्य को पुष्ट करने के लिए वे कहते हैं कि अधिक बारिश आने से बाढ़ की संभावना रहती है और कम बारिश आने से अनावृष्टि की। दोनों ही स्थितियाँ सही नहीं हैं। उसी प्रकार अधिक धूप से उद्भिजों के सूख जाने का खतरा बना रहता है तो कम धूप से उद्भिजों के मर जाने का।
दोहा – 11
माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनुवा तौ चहुँ दिशि फिरै, यह तो सुमिरन नांहि॥
शब्दार्थ
माला – जप माला
कर – हाथ
फिरै – फिरना
मांहि – में
मनुवा – मन
चहुँ दिशि – चारों दिशा
सुमिरन – स्मरण
नांहि – नहीं
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि मन को नियंत्रण में रखे बिना किसी प्रकार का प्रभु स्मरण और नाम-जाप करना व्यर्थ है।
व्याख्या –
कबीर जी कहते हैं कि हाथ में माला है और जीभ से हम ईश्वर के नाम का स्मरण कर रहे होते हैं परंतु हमारा मन तो स्वच्छंद होकर चारों दिशाओं में घूमता रहता है। अगर ऐसे ही प्रभु के नाम का स्मरण करना है तो यह एक प्रकार का छलावा है जो हम दूसरों से नहीं वरन् खुद से कर रहे हैं। ईश्वर के नाम का स्मरण वास्तविक रूप से करना है तो सबसे पहले हमें अपने मन को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है।
दोहा – 12
काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब्ब॥
शब्दार्थ
काल्ह – कल
करै – करना
सो – वह
अब्ब – अभी
पल – क्षण
परलै – प्रलय, मृत्यु
होयगी – होगी
बहुरि – फिर
करैगो – करोगे
कब्ब – कब
प्रसंग –
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमें अपने कामों को कल या बाद में करने के लिए नहीं टालना चाहिए बल्कि उसे तत्काल पूरा करने के लिए संकल्पित होना चाहिए।
व्याख्या –
प्रस्तुत दोहे के माध्यम से कबीर हमें यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमें अपने कामों के प्रति आलस्य भाव का प्रदर्शन न करके उद्यमी बने रहना चाहिए। हम सबके पास एक निश्चित समय काल है इसलिए हमें अपने काम को कल पर नहीं टालना चाहिए क्योंकि कल कभी भी नहीं आता। कल के इंतज़ार में बहुत देर हो जाती हैं।
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-
(i) कबीर के अनुसार ईश्वर किसके हृदय में वास करता है?
उत्तर – कबीर के अनुसार ईश्वर उन लोगों के हृदय में वास करते हैं जो सत्य वाणी बोलते हैं।
(ii) कबीर ने सच्चा साधु किसे कहा है?
उत्तर – कबीर ने सच्चा साधु उन्हें कहा है जो किसी भी कीमत पर अपनी साधुता का त्याग नहीं करते और सात्विक भावनाओं को प्राथमिकता देते हैं।
(iii) संतों के स्वभाव के बारे में कबीर ने क्या कहा है?
उत्तर – संतों के स्वभाव के बारे में कबीर ने कहा है कि जिस प्रकार साँपों से लिपटे होने पर भी चंदन का पेड़ अपनी शीतलता का त्याग नहीं करता उसी प्रकार करोड़ों दुर्जनों की संगति में आकार भी संत कभी भी अपनी सज्जनता का त्याग नहीं करते हैं।
(iv) कबीर ने वास्तविक रूप से पंडित / विद्वान किसे कहा है?
उत्तर – कबीर ने वास्तविक रूप से पंडित या विद्वान उन्हें कहा है जो प्रेम या प्यार के शब्द का पूरा मर्म जानते हैं और अपने जीवन में प्रतिक्षण औरों के लिए प्रेमभाव प्रदर्शित करते रहते हैं।
(v) धीरज का संदेश देते हुए कबीर ने क्या कहा है?
उत्तर – धीरज का संदेश देते हुए कबीर ने कहा है कि हमें सदैव धीरज से काम लेना चाहिए क्योंकि प्रकृति के सारे काम अपने समय पर ही होते हैं हम चाहे घड़े भर-भरकर भी पेड़ में पानी दें पर फल तो मौसम आने पर ही लगेंगे।
(vi) कबीर ने सांसारिक व्यक्ति की तुलना पक्षी से क्यों की है?
उत्तर – कबीर ने सांसारिक व्यक्ति की तुलना पक्षी से की है क्योंकि जिस प्रकार स्वच्छंद गगन में उड़ने वाले पंछी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता उसी प्रकार सांसारिक व्यक्ति तरह-तरह की माया में लिप्त रहते हैं और उनका मन भी उनके वश में नहीं रहता।
(vii) कबीर ने समय के सदुपयोग पर क्या संदेश दिया है?
उत्तर – कबीर ने समय के सदुपयोग पर यह संदेश दिया है कि हम सबके पास एक सीमित समय है। इसलिए अपने काम को कल पर टालने की बजाय तत्काल प्रभाव से करना चाहिए।
II. निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(i) जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय॥
उत्तर – प्रसंग
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमारे तन, मन और मस्तिष्क पर हमारे खाद्य-पदार्थ का बहुत प्रभाव पड़ता है इसलिए हमें सात्विक भोजन ही करना चाहिए।
व्याख्या
कबीर जी कहते हैं कि जो व्यक्ति जैसा खान-पान करता है उनका व्यवहार और उनकी वाणी भी वैसी ही हो जाती है जिस प्रकार अगर कोई तामसिक भोजन करता है यानी मांस-मदिरा से युक्त खाद्य खाता है तो उसका व्यवहार भी असुर प्रवृत्ति वाला हो जाता है। अगर कोई राजसिक भोजन करता है तो उसमें कहीं न कहीं विलासिता के लक्षण दिखने लगते हैं और अगर कोई सात्विक भोजन जैसे शाकाहारी भोजन करता है तो उसका आचरण और व्यवहार कुशल हो जाता है।
(ii) बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥
उत्तर – प्रसंग
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमें सबसे पहले आत्ममंथन करके अपनी बुराइयों के बारे में पता लगाना चाहिए और उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
व्याख्या
कबीर जी ने आत्ममंथन के उपरांत अपने अनुयायियों को यह बताया है कि अगर हम बुराई की खोज में निकलेंगे तो हो सकता है कि हमें बुराई न मिले लेकिन जब हम अपने हृदय में देखेंगे तो निश्चित रूप से हमें यह ज्ञात होगा कि हममें बहुत सारी बुराइयाँ हैं। अतः, हमें सबसे पहले अपनी बुराइयों को, कमियों और खामियों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए।
(iii) जाति ना पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का पड़ा रहन दो म्यान॥
उत्तर – प्रसंग
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमें ज्ञान को महत्त्व देना चाहिए न कि जाति को क्योंकि उन्नति का आधार ज्ञान होता है जाति नहीं।
व्याख्या
कबीर यह मानते हैं कि समाज, राज्य, देश और संसार की उन्नति के लिए ज्ञान का होना अनिवार्य है। ज्ञान के आधार पर ही उन्नति के भवन निर्मित होते हैं इसलिए हमें ज्ञान और ज्ञानी को प्राथमिकता देनी चाहिए न कि ज्ञानी की जाति पर। अपनी बातों को पुष्ट करने के लिए कबीर जी कहते हैं कि जितना मूल्य तलवार का होता है उतना उसकी म्यान का नहीं होता।
(iv) अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप॥
उत्तर – प्रसंग
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि जीवन में संतुलन की बहुत आवश्यकता है।
व्याख्या
इस दोहे में कबीर जी मानव को सही जीवन जीने का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि हमें अपने जीवन में न ही ज्यादा बोलना चाहिए और न ही अधिक चुप्पी साधे रहना चाहिए। आवश्यकता अनुसार हमें मुखर और मूक दोनों में उचित संतुलन बनाना चाहिए। अपने मंतव्य को पुष्ट करने के लिए वे कहते हैं कि अधिक बारिश आने से बाढ़ की संभावना रहती है और कम बारिश आने से अनावृष्टि की। दोनों ही स्थितियाँ सही नहीं हैं। उसी प्रकार अधिक धूप से उद्भिजों के सूख जाने का खतरा बना रहता है तो कम धूप से उद्भिजों के मर जाने का।
(v) माला तो कर में फिरें, जीभ फिरै मुख मांहि।
मनुवा तौ चहुँ दिशि फिरै, यह तो सुमिरन नांहि॥
उत्तर – प्रसंग
प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के पहले अध्याय ‘कबीर दोहावली’ से लिया गया है। इसमें कबीर जी यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि मन को नियंत्रण में रखे बिना किसी प्रकार का प्रभु स्मरण और नाम-जाप करना व्यर्थ है।
व्याख्या
कबीर जी कहते हैं कि हाथ में माला है और जीभ से हम ईश्वर के नाम का स्मरण कर रहे होते हैं परंतु हमारा मन तो स्वच्छंद होकर चारों दिशाओं में घूमता रहता है। अगर ऐसे ही प्रभु के नाम का स्मरण करना है तो यह एक प्रकार का छलावा है जो हम दूसरों से नहीं वरन् खुद से कर रहे हैं। ईश्वर के नाम का स्मरण वास्तविक रूप से करना है तो सबसे पहले हमें अपने मन को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है।
निम्नलिखित शब्दों का वर्ण-विच्छेद कीजिए-
शब्द वर्ण-विच्छेद
बराबर = ब् + अ + र् + आ + ब् + अ + र् + अ
भोजन = भ् + ओ + ज् + अ + न् + अ
पंडित = प् + अ + ण् + ड् + इ + त् + अ
म्यान = म् + या + आ + न् + अ
बरसना = ब् + अ + र् + अ + स् + अ + न् + आ
- पुस्तकालय से कबीर के दोहों की पुस्तक लेकर प्रेरणादायक दोहों का संकलन कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने शब्दों में करें।
- कबीर के दोहों की ऑडियो या वीडियो सी. डी. लेकर अथवा इंटरनेट से प्रात:काल/संध्या के समय दोहों का श्रवण कर रसास्वादन कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने शब्दों में करें।
- कैलेण्डर से देखें कि इस बार कबीर जयंती कब है। स्कूल की प्रातःकालीन सभा में कबीर जयंती के अवसर पर कबीर साहिब के बारे में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने शब्दों में करें।
- एन. सी. ई. आर. टी. द्वारा कबीर पर निर्मित फ़िल्म देखिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने शब्दों में करें।
- ‘मेरी नज़र में सच्ची भक्ति’ इस विषय पर कक्षा में चर्चा कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने शब्दों में करें।
कबीर के अतिरिक्त रहीम, बिहारी तथा वृंद ने भी अनेक दोहों की रचना की है जो कि बहुत ही प्रेरणादायक हैं। इनके द्वारा रचित नीति के दोहे तो विश्व प्रसिद्ध हैं और हमारे लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। इन्हें पढ़ने से एक ओर जहाँ मन को शांति मिलती है वहीं दूसरी ओर हमारी बुद्धि भी प्रखर होती है।