(सन् 1911-1987)
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को प्रतिभा संपन्न कवि, कथाकार, ललित निबंधकार, संपादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 7 मार्च, 1911 को उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता।
सन् 1929 में बी. एस. सी. करने के बाद एम. ए. में इन्होंने अंग्रेजी विषय रखा पर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण इनकी पढ़ाई पूरी न हो सकी।
अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकू कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकांतमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ ये एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।
इन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक अध्यापन कार्य किया। दिनमान साप्ताहिक और नवभारत टाइम्स का सफल संपादन भी इन्होंने किया। सन् 1964 में ‘आंगन के पार द्वार’ पर इन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार और सन् 1978 में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। 4 अप्रैल, 1987 को इनकी मृत्यु हो गई।
रचनाएँ – इनकी प्रमुख कृतियों में भग्नदूत, चिंता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनुष रौंदे हुए थे, अरी ओ करुणा प्रभामय, सुनहले शैवाल, कितनी नावों में कितनी बार, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ आदि कविता-संग्रह उल्लेखनीय हैं। कहानी संग्रहों में विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी आदि प्रसिद्ध हैं। अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली इनके यात्रावृत्त हैं। शेखर एक जीवनी, नदी के द्वीप तथा अपने-अपने अजनबी इनके चर्चित उपन्यास हैं। इनके अतिरिक्त अज्ञेय ने निबंध संस्मरण और नाटक जैसी विधाओं में भी लिखा है।
प्रस्तुत कविता में कवि ने पेड़ की सहनशीलता और सबलता को प्रस्तुत किया है। पेड़ अनेक मुसीबतें सहता हुआ भी शांत खड़ा रहता है और साथ ही अपने बढ़ने का श्रेय किसी और को देता है। कवि यहाँ पेड़ के माध्यम से सहनशील स्वभाव के दीर्घजीवी होने का दावा करते हैं। विनम्रता को सर्वश्रेष्ठ गुण मानते हैं। कवि का यह भी मानना है कि हमें अपने साथ कठोर रहना चाहिए तभी हम उन्नति की राह पर अग्रसर हो सकते हैं। इस कविता के माध्यम से कवि ईमानदारी की भी प्रतिष्ठा करने की कोशिश करते हैं कि हमें कभी भी अपने आधार को नहीं भूलना चाहिए और हमारी सफलता के लिए जो भी आंशिक रूप से जिम्मेदार हैं उन्हें भी श्रेय देना चाहिए। कविता के अंतिम पंक्तियों में कवि एक सार्वभौमिक सत्य का उद्घाटन करते हुए कहते हैं कि इस पृथ्वी के हर एक प्राकृतिक तत्त्वों में जीवन देने की क्षमता है। इन्हीं प्राकृतिक तत्त्वों के कारण इस गृह पर हमारा वर्चस्व है और हम इस सत्य से अनजान खुद को ही श्रेष्ठ मानकर मिथ्याभिमान करते हैं।
मैंने कहा, “पेड़, तुम इतने बड़े हो,
इतने कड़े हो,
न जाने कितने सौ बरसों के आँधी-पानी में
सिर ऊँचा किये अपनी जगह अड़े हो।
सूरज उगता-डूबता है, चाँद मरता छीजता है
ऋतुएँ बदलती हैं, मेघ उमड़ता पसीजता है, और तुम सब सहते हुए
संतुलित शांत धीर रहते हुए
विनम्र हरियाली से ढँके, पर भीतर ठोठ कठैठ खड़े हो।
काँपा पेड़, मर्मरित पत्तियाँ
बोली मानो, नहीं, नहीं, नहीं, झूठा
श्रेय मुझे मत दो!
मैं तो बार-बार झुकता, गिरता, उखड़ता
या कि सूखा ठूँठ हो के टूट जाता,
श्रेय है तो मेरे पैरों तले इस मिट्टी को
जिसमें न जाने कहाँ मेरी जड़ें खोयी हैं:
ऊपर उठा हूँ उतना ही आश में
जितना कि मेरी जड़ें नीचे दूर धरती में समायी हैं।
श्रेय कुछ मेरा नहीं, जो है इस नामहीन मिट्टी का।
और हाँ, इन सब उगने – डूबने, भरने – छीजने,
बदलने, गलने, पसीजने,
बनने-मिटने वालों का भी:
शतियों से मैंने बस एक सीख पायी है:
जो मरण-धर्मा हैं वे ही जीवनदायी हैं।”
पंक्तियाँ – 01
मैंने कहा, “पेड़, तुम इतने बड़े हो,
इतने कड़े हो,
न जाने कितने सौ बरसों के आँधी-पानी में
सिर ऊँचा किये अपनी जगह अड़े हो।
शब्दार्थ
कड़े – सख्त
बरसों – वर्षों
सिर ऊँचा किये – मजबूती से खड़ा होना
अड़े – टिका होना
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘मैंने कहा, पेड़’ कविता से ली गई है। इस कविता के कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी हैं। इस कविता में कवि ने पेड़ से हुए अपने संवाद को रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इन पंक्तियों में कवि पेड़ से उसके कई सौ सालों से खड़े रहने का कारण पूछ रहे हैं।
व्याख्या –
कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी इन पंक्तियों में पेड़ से उसके विचित्र स्वभाव और गुणों के बारे में कहते हैं कि तुम इतने बड़े हो, विशालकाय हो, तुम इतने कड़े हो, न जाने कितनी शताब्दियों से आँधी-पानी अर्थात् मौसमों की मार को झेल रहे हो फिर भी अपनी जगह पर सिर ऊँचा किए अर्थात् पूरे आत्मविश्वास से टिके हुए हो।
पंक्तियाँ – 02
सूरज उगता-डूबता है, चाँद मरता छीजता है
ऋतुएँ बदलती हैं, मेघ उमड़ता पसीजता है, और तुम सब सहते हुए
संतुलित शांत धीर रहते हुए
विनम्र हरियाली से ढँके, पर भीतर ठोठ कठैठ खड़े हो।
शब्दार्थ
सूरज – सूर्य
चाँद – चंद्र
छीजता – नष्ट होने
ऋतुएँ – मौसमें
मेघ – बादल
पसीजता – दया भाव उमड़ना
संतुलित – Balanced
धीर – धीरज, धैर्य
विनम्र – Polite
हरियाली – Greenary
ढँके – Covered
भीतर – अंदर
ठोठ – केवल
कठैठ – सख़्त, मज़बूत
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘मैंने कहा, पेड़’ कविता से ली गई है। इस कविता के कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी हैं। इस कविता में कवि ने पेड़ से हुए अपने संवाद को रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इन पंक्तियों में कवि पेड़ से उसके शांत स्वभाव तथा धीरज की प्रशंसा करते हैं।
व्याख्या –
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी इन पंक्तियों के माध्यम से पेड़ को संबोधित करते हुए कहते हैं कि नजाने कितनी बार सूर्य प्राची (पूर्व) से प्रतीची (पश्चिम) की ओर गया होगा। कितनी बार चंद्रमा ने अपने आकार बदलकर चंद्रकलाएँ दिखाई होंगी। कितनी बार मौसमों के चक्रों का घूर्णन हुआ होगा। कितनी बार बादलों का पसीजना अर्थात् बरसना हुआ होगा। लेकिन तुम सभी मौसमों की मार को झेलते हुए संतुलित अवस्था में विनम्र भाव से शांतचित्त होकर खड़े हो। तुम्हारे शाखाओं के पत्ते तुम्हारी विनम्रता की सूचक है और तुम अंदर से बड़े सख़्त हो। अर्थात् तुम अपने लिए कठोर नियमों का पालन करने वाले हो पर दूसरों के लिए बड़े ही संवेदनशील हो।
पंक्तियाँ – 03
काँपा पेड़, मर्मरित पत्तियाँ
बोली मानो, नहीं, नहीं, नहीं, झूठा
श्रेय मुझे मत दो!
मैं तो बार-बार झुकता, गिरता, उखड़ता
या कि सूखा ठूँठ हो के टूट जाता,
श्रेय है तो मेरे पैरों तले इस मिट्टी को
जिसमें न जाने कहाँ मेरी जड़ें खोयी हैं:
ऊपर उठा हूँ उतना ही आश में
जितना कि मेरी जड़ें नीचे दूर धरती में समायी हैं।
श्रेय कुछ मेरा नहीं, जो है इस नामहीन मिट्टी का।
शब्दार्थ
काँपा – थरथराना
मर्मरित – मर्मर ध्वनि करता हुआ
पत्तियाँ – पत्ते
श्रेय – Credit
मत – नहीं
सूखा – Dried
ठूँठ – पेड़ का बचा हुआ धड़
तले – नीचे
जड़ें – Roots
खोयी – गुम होना
आश – आशा
धरती – पृथ्वी
समायी – घुसी
नामहीन – बिना नाम के
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘मैंने कहा, पेड़’ कविता से ली गई है। इस कविता के कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी हैं। इस कविता में कवि ने पेड़ से हुए अपने संवाद को रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इन पंक्तियों में कवि पेड़ से उसके कई सौ सालों से खड़े रहने का कारण पूछ रहे हैं और इस पर पेड़ कवि के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कह रहा है कि
व्याख्या –
कवि के संबोधन और प्रशंसा को सुनकर पेड़ अपने पत्तियों के कंपन और मर्मरित ध्वनि से कहता है कि मुझे मेरे सदियों से खड़े रहने का श्रेय, मुझे मत दो, यह झूठ है। मैं तो बार-बार गिर सकता था, उखड़ सकता था, झुक सकता था या सूख कर ठूँठ बन सकता था। अगर आज तक मैं टिका हुआ हूँ तो इसका सारा श्रेय मेरे पैरों तले की जो मिट्टी है, उसको जाता है। इस मिट्टी में नजाने कहाँ तक मेरी जड़ें समाईं हुई हैं। मैं तो उतना ही ऊपर उठा हुआ हूँ जितना की मेरी जड़ें इस मिट्टी के अंदर खोई हुई हैं। इसलिए मेरे खड़े होने के पीछे मेरा श्रेय नहीं है बल्कि सारा श्रेय तो इस नामहीन अर्थात् महत्त्वपूर्ण होते हुए भी सामान्य समझे जानेवाली मिट्टी का है जिसने मुझे खड़ा कर रखा है।
पंक्तियाँ – 04
और हाँ, इन सब उगने – डूबने, भरने – छीजने,
बदलने, गलने, पसीजने,
बनने-मिटने वालों का भी:
शतियों से मैंने बस एक सीख पायी है:
जो मरण-धर्मा हैं वे ही जीवनदायी हैं।
शब्दार्थ
छीजने – नष्ट होना
गलने – शेष होना
पसीजने – दया भाव उमड़ना, बादल का बरसना
बनने-मिटने – निर्माण-विनाश
शतियों – शताब्दी, सौ सालों से
सीख – शिक्षा
मरण-धर्मा – Mortal
जीवनदायी – जीवन देने वाली
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘मैंने कहा, पेड़’ कविता से ली गई है। इस कविता के कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी हैं। इस कविता में कवि ने पेड़ से हुए अपने संवाद को रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इन पंक्तियों में कवि पेड़ से उसके कई सौ सालों से खड़े रहने का कारण पूछ रहे हैं और इस पर पेड़ कवि के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कह रहा है कि
व्याख्या –
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी के प्रश्नों का शेष उत्तर देते हुए पेड़ कहता है कि सूरज का उगना और अस्त होना, चाँद का अपना आकार बदलना, मौसमों का निरंतर बदलना, बादलों का बरसना, जीवन-मरण का चक्र यह तो अनादि काल से चलता आ रहा है और चलता ही रहेगा। लेकिन शताब्दियों से मैंने एक ही सीख प्राप्त की है कि जो भी इस दुनिया में मृत्यु को प्राप्त होने वाले मरणशील हैं वास्तव में वे ही जीवन देने वाले भी होते हैं। अर्थात् जीवित जीवन की सृष्टि कर सकता है। यहाँ पेड़ यह कहना चाहता है कि प्रकृति के हरेक तत्त्व जीवन देते हैं उसे संपोषित करते हैं। प्रकृति का एक-एक उपादान इस दुनिया को जीवन प्रदान करता है। मेरे इस विशालकाय रूप के पीछे इन सभी प्राकृतिक उपादानों का श्रेय है।
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-
(i) पेड़ आँधी-पानी में भी किस तरह से अपनी जगह खड़ा है?
उत्तर – पेड़ आँधी-पानी में भी सिर ऊँचा किए अर्थात् पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी जगह पर खड़ा है।
(ii) सूरज, चाँद, मेघ और ऋतुओं के क्या-क्या कार्य-कलाप हैं?
उत्तर – सूरज उगता है और अस्त होता है, चाँद अपनी आकृति में परिवर्तन लाता रहता है, मेघ बरसते रहते हैं और ऋतुओं का एक व्यवस्थित चक्र निरंतर घूमता रहता है।
(iii) पेड़ में सहनशक्ति के अतिरिक्त और कौन-कौन से गुण हैं?
उत्तर – पेड़ में सहनशक्ति के अतिरिक्त विनम्रता, सत्यवादिता और उपदेशक के गुण मौजूद हैं।
(iv) पेड़ के बढ़ने और जड़ों के धरती में समाने का क्या संबंध है?
उत्तर – पेड़ के बढ़ने और जड़ों के धरती में समाने का गहरा संबंध है क्योंकि पेड़ की जड़ें जितनी अधिक धरती में समाएगी पेड़ उतना ही अधिक आकाश की ओर ऊर्ध्वगामी होगा।
(v) पेड़ मिट्टी के अतिरिक्त और किस-किस को श्रेय देता है?
उत्तर – पेड़ मिट्टी के अतिरिक्त सूरज, चाँद, बादल और मौसमों को श्रेय देता है।
(vi) पेड़ ने क्या सीख प्राप्त की है?
उत्तर – पेड़ ने शताब्दियों से यही सीख प्राप्त की है कि जो मरणशील होते हैं वास्तव में वे ही जीवन देने की क्षमता रखते हैं।
II. निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(i) सूरज उगता डूबता है, चाँद मरता-छोजता है
ऋतुएँ बदलती हैं, मेघ उमड़ता पसीजता है,
और तुम सब सहते हुए
संतुलित शांत धीर रहते हुए
विनम्र हरियाली से ढँके, पर भीतर ठोठ कठैठ खड़े हो।
उत्तर – प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘मैंने कहा, पेड़’ कविता से ली गई है। इस कविता के कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी हैं। इस कविता में कवि ने पेड़ से हुए अपने संवाद को रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इन पंक्तियों में कवि पेड़ से उसके शांत स्वभाव तथा धीरज की प्रशंसा करते हैं।
व्याख्या –
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी इन पंक्तियों के माध्यम से पेड़ को संबोधित करते हुए कहते हैं कि नजाने कितनी बार सूर्य प्राची (पूर्व) से प्रतीची (पश्चिम) की ओर गया होगा। कितनी बार चंद्रमा ने अपने आकार बदलकर चंद्रकलाएँ दिखाई होंगी। कितनी बार मौसमों के चक्रों का घूर्णन हुआ होगा। कितनी बार बादलों पसीजना अर्थात् बरसना हुआ होगा। लेकिन तुम सभी मौसमों की मार को झेलते हुए संतुलित अवस्था में विनम्र भाव से शांतचित्त होकर खड़े हो। तुम्हारे शाखाओं के पत्ते तुम्हारी विनम्रता की सूचक है और पर तुम अंदर से बड़े सख़्त हो। अर्थात् तुम अपने लिए कठोर नियमों का पालन करने वाले हो पर दूसरों के लिए बड़े ही संवेदनशील हो।
(ii) काँपा पेड़, मर्मरित पत्तियाँ
बोली मानो, नहीं, नहीं, नहीं, झूठा श्रेय मुझे मत दो!
मैं तो बार-बार झुकता, गिरता, उखड़ता
या कि सूखा हूँठ हो के टूट जाता,
श्रेय है तो मेरे पैरों तले इस मिट्टी को
जिसमें न जाने कहाँ मेरी जड़ें खोयी हैं
उत्तर – प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘मैंने कहा, पेड़’ कविता से ली गई है। इस कविता के कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी हैं। इस कविता में कवि ने पेड़ से हुए अपने संवाद को रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इन पंक्तियों में कवि पेड़ से उसके कई सौ सालों से खड़े रहने का कारण पूछ रहे हैं और इस पर पेड़ कवि के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कह रहा है कि
व्याख्या –
कवि के संबोधन और प्रशंसा को सुनकर पेड़ अपने पत्तियों के कंपन और मर्मरित ध्वनि से कहता है कि मुझे मेरे सदियों से खड़े रहने का श्रेय, मुझे मत दो, यह झूठ है। मैं तो बार-बार गिर सकता था, उखड़ सकता था, झुक सकता था या सूख कर ठूँठ बन सकता था। अगर आज तक मैं टिका हुआ हूँ तो इसका सारा श्रेय मेरे पैरों तले की जो मिट्टी है, उसको जाता है। इस मिट्टी में नजाने कहाँ तक मेरी जड़ें समाईं हुई हैं। मैं तो उतना ही ऊपर उठा हुआ हूँ जितना की मेरी जड़ें इस मिट्टी के अंदर खोई हुई हैं। इसलिए मेरे खड़े होने के पीछे मेरा श्रेय नहीं है बल्कि सारा श्रेय तो इस नामहीन अर्थात् महत्त्वपूर्ण होते हुए भी सामान्य समझे जानेवाली मिट्टी का है जिसने मुझे खड़ा कर रखा है।
1.निम्नलिखित शब्दों का वर्ण-विच्छेद कीजिए-
शब्द वर्ण-विच्छेद
पेड़ = प् + ए + ड़् + अ
चाँद = च् + आँ + द् + अ
मेघ = म् + ए + घ् + अ
मिट्टी = म् + इ + ट् + ट् + ई
सूरज = स् + ऊ + र् + अ + ज् + अ
ऋतुएँ = ऋ + त् + उ + एँ
पत्तियाँ = प् + अ + त् + त् + इ + य् + आँ
जीवनदायी = ज् + ई + व् + अ + न् + अ + द् + आ + य् + ई
2.निम्नलिखित तद्भव शब्दों के तत्सम रूप लिखिए-
तद्भव तत्सम
मिट्टी मृत्तिका
सूरज सूर्य
सिर शिर
पानी जल
चाँद चंद्र
पत्ता पत्र
सीख शिक्षा
सूखा शुष्क
- ‘पेड़ लगाओ’ इस विषय पर चार्ट पर स्लोगन लिखकर कक्षा में लगाइए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
- प्रत्येक विद्यार्थी अपने जन्म दिन पर अपने विद्यालय में, घर में पौधा लगाए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
- भिन्न-भिन्न पौधों की जानकारी एकत्रित कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
- ‘पेड़ धरा का आभूषण, करता दूर प्रदूषण’ इस विषय पर कक्षा में चर्चा कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
- भारत का राष्ट्रीय पेड़ बरगद है।
- एक साल में एक पेड़ इतनी कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेता है जितनी एक कार से 26,000 मील चलने के बाद निकलती है।
- एक एकड़ में फैला जंगल सालभर में 4 टन ऑक्सीजन छोड़ता है जो 18 लोगों के लिए एक साल की ज़रूरत है।
- एक व्यक्ति द्वारा जीवन भर में फैलाए गए प्रदूषण को खत्म करने के लिए 300 पेड़ों की ज़रूरत होती है।
- 25 फुट लंबा पेड़ एक घर के सालाना बिजली खर्च को 8 से 12 फीसदी तक कम कर देता है।
- सबसे चौड़ा पेड़ दुनिया का सबसे चौड़ा पेड़ 14,400 वर्ग मीटर में फैला है। कोलकाता में आचार्य जगदीशचंद्र बोस बोटैनिकल गार्डन में लगा यह बरगद का पेड़ 250 वर्ष से अधिक समय में इतने बड़े क्षेत्र में फैल गया है। दूर से देखने में यह अकेला बरगद का पेड़ एक जंगल की तरह नज़र आता है। दरअसल बरगद के पेड़ की शाखाओं से जटाएँ पानी की तलाश में नीचे ज़मीन की ओर बढ़ती हैं। ये बाद में जड़ के रूप में पेड़ को पानी और सहारा देने लगती हैं। फिलहाल इस बरगद की 2800 से अधिक जटाएँ जड़ का रूप ले चुकी हैं।