डॉ. योगेंद्र बख़्शी का जन्म जम्मू तवी में सन् 1939 में हुआ था। बचपन से ही अध्ययन के प्रति विशेष रुचि के परिणामस्वरूप इन्होंने हिंदी साहित्य में एम. ए. तथा बाद में पीएच. डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। बख़्शी जी अध्यापन के क्षेत्र का लंबा सफ़र तय करते हुए स्नातकोत्तर हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद से राजकीय महेंद्रा कॉलेज पटियाला से सेवानिवृत्त हुए हैं। अध्यापन के साथ-साथ इनका लेखन कार्य भी निरंतर चलता रहा है और इसीलिए इन्होंने हिंदी साहित्य को अपनी अनेक रचनाओं से शोभित किया है। सरल हृदय डॉ. बख़्शी मूलतः कवि हैं। इनके काव्य तथा ग़ज़ल संग्रह ‘सड़क का रोग’, ‘खुली हुई खिड़कियाँ’, ‘ग़जल के रूबरू’ (गजल संग्रह), ‘कि सनद रहे’ (ग़ज़ल संग्रह), ‘आदमीनामा: सतसई’ आदि खूब चर्चित रहे हैं। इसके अतिरिक्त इनकी रचनाओं में हिंदी तथा पंजाबी उपन्यास का तुलनात्मक अध्ययन, ‘प्रसाद का काव्य तथा कामायनी’ (आलोचना पुस्तकें); ‘पैरिस में एक भारतीय’ (एस. एस. अमोल के पंजाबी यात्रावृत्तान्त का हिंदी अनुवाद), ‘काव्य विहार’, ‘निबंध परिवेश’, गैल गैल’, ‘आओ हिंदी सीखें: आठ’ (सम्पादित पुस्तकें); तथा बाल साहित्य के अंतर्गत ‘बंदा बहादुर’, ‘मैथिलीशरण गुप्त’ आदि का नाम लिया जा सकता है।
अपने आस-पास की घटनाओं से संवेदना के धरातल पर जुड़े बख़्शी जी ने कविता को अपने भीतर की भावुकता, तड़प, दुख और रोष को व्यक्त करने के सशक्त माध्यम के रूप में चुना है।
इस कविता में कवि ने खालसा पंथ की नींव की ऐतिहासिक घटना का बहुत प्रभावशाली ढंग से चित्रण किया है। औरंगज़ेब के जुल्मों से त्रस्त हिंदुओं में नई चेतना लाने के लिए गुरु गोबिन्द सिंह ने आनंदपुर साहिब में लोगों से आत्म- बलिदान की माँग करके उस खालसा पंथ की नींव डाली, जिसने न केवल हिंदुओं के लिए औरंगज़ेब के जुल्मों का विरोध किया अपितु बाद में चलकर सिक्ख संप्रदाय के रूप में अपनी पहचान भी स्थापित की।
एक सुबह आनंदपुर साहिब में जागी,
कायरता जब सप्तसिन्धु की धरती से भागी।
धर्म-अधर्म के संघर्ष की रात।
एक खालस महामानव।
युग दृष्टा युग स्रष्टा
साहस का ज्वलन्त सूर्य ले हाथ
आह्वान कर रहा-
जागो वीरो जागो
जूझना ही जीवन है- जीवन से मत भागो!
सन् सोलह सौ निन्यानवे की
वैशाखी की पावन बेला है
दशम नानक के द्वारे आनंदपुर में
दूर दूर से उमड़े भक्तों-शिष्यों का
विशाल मेला है।
तेज पुंज गुरु गोबिन्द के हाथों में
है नंगी तलवार
लहराती हवा में बारम्बार
“अकाल पुरुष का है फरमान
अभी तुरन्त चाहिये एक बलिदान
अन्याय से मुक्ति दिलाने को
धर्म बचाने, शीश कटाने को
मरजीवा क्या कोई है तैयार?
मुझे चाहिए शीश एक उपहार!
जिसका अद्भुत त्याग देश की
मरणासन्न चेतना में कर दे नवरक्त संचार।”
सन्नाटा छा गया मौन हो रही सभा
सब भयभीत नहीं कोई हिला
फिर लाहौर निवासी खत्री दयाराम आगे बढ़ा
“कृपाकर सौभाग्य मुझे दीजिए
धर्म-रक्षा के लिए भेंट है शीश गुरुवर!
प्राण मेरे लीजिए।”
खिल उठे दशमेश उसकी बांह थाम
ले गये भीतर, बन गया काम
उभरा स्वर शीश कटने का और फिर गहरा विराम!
भयाकुल चकित चेहरे सभा के
रह गये दिल थाम!
रक्तरंजित फिर लिये तलवार
आ गये गुरुवर पुकारे बारबार
एक मरजीवा अपेक्षित और है
बढ़े आगे कौन है तैयार!
प्राण के लाले पड़े हैं
सभी के मन स्तब्ध से मानो जड़े हैं
किन्तु फिर धर्मराय बलिदान- व्रत धारी
जाट हस्तिनापुर का खड़ा करबद्ध
गुरुचरण बलिहारी!
हर्षित गुरु ले गये भीतर उसे भी-
लीला विस्मयकारी।
टप टप टपक रहे रक्त बिन्दु
गहरी लाल हुई चम चम तलवार-
माँग रही बलि बारम्बार
गुरुवर की लीला अपरम्पार।
बलिदानों के क्रम में एक एक कर शीश कटाने
बढ़ा आ रहा द्वारिका का मोहकम चंद धोबी
बिदर का साहब चंद नाई, पुरी का हिम्मतराय कहार
पाँच ये बलिदान अद्भुत चमत्कार!
लीला से पर्दा हटा गुरु प्रकट हुए
चकित देखते सब पाँचों बलिदानी संग खड़े
गुरुवर बोले “मेरे पाँच प्यारे सिंघ
साहस, रूप, वेश, नाम में न्यारे सिंघ
दया सिंघ, धर्म सिंघ और मोहकम सिंघ
खालिस जाति खालसा के साहब सिंघ व हिम्मत सिंघ
शुभाचरण पथ पर निर्भय देंगे बलिदान
अब से पंथ “खालसा” मेरा ऐसे वीरों की पहचान।”
पंक्तियाँ – 01
एक सुबह आनंदपुर साहिब में जागी,
कायरता जब सप्तसिन्धु की धरती से भागी।
धर्म-अधर्म के संघर्ष की रात।
एक खालस महामानव।
युग दृष्टा युग स्रष्टा
साहस का ज्वलन्त सूर्य ले हाथ
आह्वान कर रहा-
जागो वीरो जागो
जूझना ही जीवन है- जीवन से मत भागो!
सन् सोलह सौ निन्यानवे की
वैशाखी की पावन बेला है
दशम नानक के द्वारे आनंदपुर में
दूर दूर से उमड़े भक्तों-शिष्यों का
विशाल मेला है।
शब्दार्थ
सुबह – प्रातः
आनंदपुर साहिब – आनंदपुर साहिब पंजाब प्रदेश के रूपनगर जिले में स्थित है।
कायरता – भीरुता, Coward
सप्तसिन्धु – सिंधु, रावी, सतलुज, झेलम, गंगा, यमुना और सरस्वती – इन सात नदियों के यहाँ बहने के कारण भारत को सप्तसिन्धु वाला देश कहा जाता है।
धरती – ज़मीन
संघर्ष – युद्ध
रात – रात्री, निशा
खालस – खरा, शुद्ध, सच्चा
महामानव – महान व्यक्ति
युग दृष्टा – समय काल को देख सकने वाला
युग स्रष्टा – समय काल का निर्माता
साहस – हिम्मत
ज्वलन्त – Burning
सूर्य – सूरज
आह्वान – पुकार
जागो – उठो
जूझना – संघर्ष, Cope
जीवन – ज़िंदगी
मत – नहीं
भागो – डरकर भागना
सन् – ईस्वी
सोलह सौ निन्यानवे – 1699
वैशाखी – पंजाब में मनाया जाने वाला एक पर्व
पावन – पवित्र
बेला – अवसर
दशम – दसवाँ
नानक के द्वारे – गुरु नानक के द्वार पर
उमड़े – आए
भक्तों-शिष्यों – भक्त और अनुयायी
विशाल – बहुत बड़ा
मेला – Fair
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के छठे अध्याय ‘पाँच मरजीवे’ कविता से ली गई है। इस पुनीत कविता के कवि श्री योगेंद्र बख्शी जी हैं। कविता के इन अंशों में कवि सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के 1699 में वैशाखी के पावन बेला पर आए भक्तों और शिष्यों से आत्म बलिदान की माँग का ज़िक्र कर रहे हैं। कवि योगेंद्र बख्शी जी ने इन पंक्तियों में खालसा पंथ की नींव की ऐतिहासिक घटना का बहुत प्रभावशाली ढंग से चित्रण किया है। औरंगज़ेब के जुल्मों से त्रस्त हिंदुओं में नई चेतना लाने के लिए गुरु गोबिन्द सिंह ने आनंदपुर साहिब में लोगों से आत्म-बलिदान की माँग करके उस खालसा पंथ की नींव डाली, जिसने न केवल तत्कालीन शासक औरंगज़ेब के जुल्मों का विरोध किया अपितु बाद में चलकर सिक्ख संप्रदाय के रूप में अपनी पहचान भी स्थापित की।
व्याख्या –
कवि कहते हैं कि एक दिन आनंदपुर साहिब में गुरु गोबिन्द सिंह ने लोगों से आत्म-बलिदान की माँग करके सप्तसिंधु वाली पवित्र भारत भूमि से डर को भगा दिया। शुद्ध और खरे महमानव गुरु गोबिन्द सिंह जिन्हें युगद्रष्टा और युगस्रष्टा कहा जाता है, सूर्य के समान तेजोमय साहस लेकर वैशाखी के मेले में आए लोगों में देशप्रेम की भावना का संचार कर रहे थे। उन्होंने वहाँ उमड़ी भीड़ को वीरो कहकर संबोधित किया और कहा कि जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम है। हमें कभी भी संघर्ष अर्थात् जीवन से दूर नहीं भागना चाहिए। यह घटना 1699 के वैशाखी के मेले के उस स्थान की है जो आनंदपुर साहिब के नाम से जाना जाता है जहाँ सिक्खों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह ने वहाँ आए भक्तों और शिष्यों के विशाल मेले से आत्म-बलिदान की माँग की थी।
पंक्तियाँ – 02
तेज पुंज गुरु गोबिन्द के हाथों में
है नंगी तलवार
लहराती हवा में बारम्बार
“अकाल पुरुष का है फरमान
अभी तुरन्त चाहिये एक बलिदान
अन्याय से मुक्ति दिलाने को
धर्म बचाने, शीश कटाने को
मरजीवा क्या कोई है तैयार?
मुझे चाहिए शीश एक उपहार!
जिसका अद्भुत त्याग देश की
मरणासन्न चेतना में कर दे नवरक्त संचार।”
शब्दार्थ
तेज पुंज – प्रकाश का ढेर, अत्यंत तेजस्वी
नंगी – naked
तलवार – खड्ग
हवा – पावन
बारम्बार – बार-बार
अकाल पुरुष – परमेश्वर
फरमान – आदेश, Order
तुरन्त – शीघ्र
बलिदान – कुर्बानी
अन्याय – नाइंसाफ़ी
मुक्ति – आज़ादी
धर्म – प्रतिष्ठा
शीश कटाने – मौत को गले लगाना
मरजीवा – मर कर जीने वाले
शीश – सिर
उपहार – भेंट
अद्भुत – विचित्र
त्याग – बलिदान
देश – मुल्क
मरणासन्न – मृत्यु के निकट
चेतना – बुद्धि
नवरक्त – नया रक्त
संचार – बहाव
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के छठे अध्याय ‘पाँच मरजीवे’ कविता से ली गई है। इस पुनीत कविता के कवि श्री योगेंद्र बख्शी जी हैं। कविता के इन अंशों में कवि सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के 1699 में वैशाखी के पावन बेला पर आए भक्तों और शिष्यों से आत्म बलिदान की माँग का ज़िक्र कर रहे हैं।
व्याख्या –
अतुलित तेज के स्वामी गुरु गोबिन्द सिंह के हाथों में चमचमाती व धारदार एक नंगी तलवार हवा में लहरा रही है। गुरु गोबिन्द सिंह उसे अपने बलिष्ठ हाथों में थामें हुए भीड़ को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि अकालपुरुष यानी कि परमेश्वर का आदेश है कि तुरंत एक बलिदान चाहिए। क्या इस भीड़ में कोई भी ऐसा मरजीवा उपस्थित है जो अन्य से मुक्ति दिलाने के लिए, धर्म की रक्षा करने के लिए अपना शीश काटने को तैयार हो। मुझे एक शीश अभी तत्काल उपहार में चाहिए। उस मरजीवा का अद्भुत त्याग देश की लुप्त हो रही राष्ट्रप्रेम की चेतना को फिर से जागृत करने का पुनीत कार्य करेगा।
पंक्तियाँ – 03
सन्नाटा छा गया मौन हो रही सभा
सब भयभीत नहीं कोई हिला
फिर लाहौर निवासी खत्री दयाराम आगे बढ़ा
“कृपाकर सौभाग्य मुझे दीजिए
धर्म-रक्षा के लिए भेंट है शीश गुरुवर!
प्राण मेरे लीजिए।”
खिल उठे दशमेश उसकी बाँह थाम
ले गये भीतर, बन गया काम
उभरा स्वर शीश कटने का और फिर गहरा विराम!
भयाकुल चकित चेहरे सभा के
रह गये दिल थाम!
शब्दार्थ
सन्नाटा छा – शांति छा जाना
मौन – चुप्पी
सभा – भीड़
भयभीत – डरे हुए
लाहौर – पाकिस्तान का एक शहर
निवासी – बाशिंदा
दयाराम खत्री – पाँच मरजीवों में से पहला
सौभाग्य – Fortune
धर्म-रक्षा – धर्म की रक्षा
भेंट – उपहार
शीश – सिर
गुरुवर – श्रेष्ठ गुरु
प्राण – जीवन
खिल उठे – खुश होना
दशमेश – सिक्खों के दसवें गुरु अर्थात् श्री गुरु गोबिन्द सिंह
बाँह – arm
थाम – पकड़ना
उभरा – निकला
स्वर – आवाज़
शीश – सिर
गहरा – deep
विराम – ठहराव
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के छठे अध्याय ‘पाँच मरजीवे’ कविता से ली गई है। इस पुनीत कविता के कवि श्री योगेंद्र बख्शी जी हैं। कविता के इस अंशों में कवि सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के 1699 में वैशाखी के पावन बेला पर आए भक्तों और शिष्यों से आत्म बलिदान की माँग का ज़िक्र कर रहे हैं जिसमें लाहौर निवासी दयाराम खत्री सहर्ष आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं।
व्याख्या –
गुरु गोबिन्द सिंह के आह्वान पर कि अकाल पुरुष को तत्काल एक सिर चाहिए सभा में सन्नाटा छा गया। मृत्यु के भय से भीड़ ने मानो हिलना-डुलना ही बंद कर दिया तभी लाहौर निवासी दयाराम खत्री ने राष्ट्र-प्रेम और धर्म-रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने के लिए अग्रसर हुए। वे अपने आपको सौभाग्यशाली मानते हुए अपना जीवन गुरु गोबिन्द सिंह के आह्वान पर कुर्बान करने को प्रस्तुत हो गए। दयाराम खत्री के आत्म-बलिदान के प्रस्ताव से सिक्खों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह का चेहरा खिल उठा। उन्होंने वीर दयाराम खत्री की बाँह थामकर उसे भीतर ले गए और सिर काटने की एक हृदय विदारक ध्वनि सुनाई दी जिससे भीड़ में एक ठहराव आ गया। भीड़ की चेहरे पर भय और आश्चर्य की छवि साफ-साफ दिखाई देने लगी और सबने अपने हृदय थाम लिए।
पंक्तियाँ – 04
रक्तरंजित फिर लिये तलवार
आ गये गुरुवर पुकारे बारबार
एक मरजीवा अपेक्षित और है
बढ़े आगे कौन है तैयार!
प्राण के लाले पड़े हैं
सभी के मन स्तब्ध से मानो जड़े हैं
किन्तु फिर धर्मराय बलिदान- व्रत धारी
जाट हस्तिनापुर का खड़ा करबद्ध
गुरुचरण बलिहारी!
हर्षित गुरु ले गये भीतर उसे भी-
लीला विस्मयकारी।
शब्दार्थ
रक्तरंजित – रक्त से सना हुआ
तलवार – शमशीर
गुरुवर – श्रेष्ठ गुरु
पुकारे – बुलाए
मरजीवा – मर कर जीने वाले
अपेक्षित – Expected
प्राण के लाले – जीवन की कमी
मन – हृदय
स्तब्ध से जड़े हैं – मूर्तिवत् शांत खड़े होना
धर्मराय – दूसरा मरजीवा
बलिदान – कुर्बान
व्रत – प्रतिज्ञा
जाट – पंजाबी
हस्तिनापुर – दिल्ली
करबद्ध – हाथ जोड़े
गुरुचरण – गुरु के पैर
बलिहारी – जीवन का बलिदान करना
हर्षित – खुशी से
लीला – रहस्य से भरा कार्य
विस्मयकारी – आश्चर्य से भरी
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के छठे अध्याय ‘पाँच मरजीवे’ कविता से ली गई है। इस पुनीत कविता के कवि श्री योगेंद्र बख्शी जी हैं। कविता के इस अंशों में कवि सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के 1699 में वैशाखी के पावन बेला पर आए भक्तों और शिष्यों से आत्म बलिदान की माँग का ज़िक्र कर रहे हैं जिसमें दूसरा मरजीवा धर्मराय सहर्ष आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं।
व्याख्या –
गुरु गोबिन्द सिंह के आह्वान पर दयाराम खत्री के बलिदान के बाद रक्तरंजित तलवार लिए गुरु गोबिन्द सिंह पुनः भीड़ को संबोधित करते हुए एक और मरजीवे की माँग करते हैं। वे कहते हैं अकाल पुरुष अर्थात् परमेश्वर को एक और शीश चाहिए इसके लिए कौन तैयार है? उनके ये वचन सुनकर पूरी भीड़ मानो स्तब्धता से जड़ित हो गई। पर इसी भीड़ में से एक दूसरा मरजीवा हस्तिनापुर (दिल्ली) निवासी धर्मराय सहर्ष आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं। वे गुरु गोबिन्द सिंह के समक्ष करबद्ध खड़े होकर निवेदन करते हैं कि धर्मार्थ मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग करने को आतुर हूँ। कृपया मेरा शीश स्वीकार करें। इस प्रकार गुरु गोबिन्द सिंह उसे भी भीतर ले जाते हैं और विस्मयकारी लीला की सृष्टि करते हैं।
पंक्तियाँ – 05
टप टप टपक रहे रक्त बिन्दु
गहरी लाल हुई चम चम तलवार-
माँग रही बलि बारम्बार
गुरुवर की लीला अपरम्पार।
बलिदानों के क्रम में एक एक कर शीश कटाने
बढ़ा आ रहा द्वारिका का मोहकम चंद धोबी
बिदर का साहब चंद नाई, पुरी का हिम्मतराय कहार
पाँच ये बलिदान अद्भुत चमत्कार!
शब्दार्थ
रक्त – लहू
बिन्दु – बूँद
तलवार – शमशीर
बलि – बलिदान
बारम्बार – बार-बार
गुरुवर – श्रेष्ठ गुरु
अपरम्पार – जिसका पार न पाया जा सके
बलिदानों – आहुतियों
क्रम – सिलसिला
शीश – सिर
द्वारिका – गुजरात के एक शहर का नाम
मोहकम चंद – तीसरा मरजीवा
धोबी – कपड़े धोने वाला
बिदर – कर्नाटक का एक शहर
साहब चंद – चौथा मरजीवा
नाई – केश काटने वाला
पुरी – ओड़िशा का एक पवित्र स्थल
हिम्मतराय – पाँचवाँ मरजीवा
कहार – डोली उठाने वाला
अद्भुत – विलक्षण
चमत्कार – Miracle
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के छठे अध्याय ‘पाँच मरजीवे’ कविता से ली गई है। इस पुनीत कविता के कवि श्री योगेंद्र बख्शी जी हैं। कविता के इस अंशों में कवि सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के 1699 में वैशाखी के पावन बेला पर आए भक्तों और शिष्यों से आत्म बलिदान की माँग का ज़िक्र कर रहे हैं जिसमें कुल पाँच मरजीवे सहर्ष आत्म-बलिदान के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं।
व्याख्या –
सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के आह्वान पर दयाराम खत्री और धर्मराय आत्मबलिदान कर देते हैं। पर इनके बलिदान के बाद रक्तरंजित तलवार से खून की बूँदें टपकती ही जा रही थीं। यह दृश्य सचमुच भय और रोमांच पैदा करने वाला था। गुरु गोबिन्द सिंह पुनः भीड़ से शीशों की माँग करते हैं और उनकी ओजपूर्ण वाणी से ओत-प्रोत होकर तीन और मरजीवे आत्मबलिदान को प्रस्तुत हो जाते हैं जिसमें धोबी जाति का मोहकम चंद, नाई संप्रदाय का साहब चंद और कहारी का काम करने वाले हिम्मतराय शामिल थे। उनका बलिदान सचमुच अद्भुत था।
पंक्तियाँ – 06
लीला से पर्दा हटा गुरु प्रकट हुए
चकित देखते सब पाँचों बलिदानी संग खड़े
गुरुवर बोले “मेरे पाँच प्यारे सिंघ
साहस, रूप, वेश, नाम में न्यारे सिंघ
दया सिंघ, धर्म सिंघ और मोहकम सिंघ
खालिस जाति खालसा के साहब सिंघ व हिम्मत सिंघ
शुभाचरण पथ पर निर्भय देंगे बलिदान
अब से पंथ “खालसा” मेरा ऐसे वीरों की पहचान।”
शब्दार्थ
लीला – रहस्य से भरा कार्य
पर्दा हटा – रहस्य खुलना
प्रकट – उपस्थित
चकित – आश्चर्य
बलिदानी – बलिदान देने वाले
संग – साथ
गुरुवर – गुरु श्रेष्ठ
सिंघ – सिंह
साहस – हिम्मत
रूप – चेहरा
वेश – आकृति
दया – करुणा
खालिस – शुद्ध
जाति – caste
खालसा – सिक्ख संप्रदाय
शुभाचरण – पवित्र आचरण
पथ – मार्ग
निर्भय – न डरने वाला
पंथ – संप्रदाय
पहचान – Identity
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के छठे अध्याय ‘पाँच मरजीवे’ कविता से ली गई है। इस पुनीत कविता के कवि श्री योगेंद्र बख्शी जी हैं। कविता के इस अंशों में कवि सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के 1699 में वैशाखी के पावन बेला पर आए भक्तों और शिष्यों से आत्म बलिदान की माँग का ज़िक्र कर रहे हैं जिसमें पाँच मरजीवे आत्म-बलिदान के लिए तैयार हो जाते हैं और गुरुवर की विस्मयकारी लीला का उद्घाटन होता है।
व्याख्या –
सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के विस्मयकारी लीला से पर्दा हटता है तो सारे मरजीवे एक साथ जीवित खड़े दिखते हैं। उन मरजीवों को अपने संग लेकर गुरु गोबिन्द सिंह ने भीड़ से कहा ये मेरे पाँच प्यारे मरजीवे हैं। साहस, रूप, वेश नाम में ये सबसे न्यारे सिंघ हैं। ये हैं दया सिंघ, धर्म सिंघ, मोहकम सिंघ, साहब सिंघ व हिम्मत सिंघ जो खालिस (शुद्ध) सिक्ख संप्रदाय अर्थात् खालसा पंथ के पवित्र आचरण वाले पथ पर निर्भय बलिदान देने वाले महाविभूति हैं। और अब से खालसा पंथ ऐसे ही वीरों के पहचान से जाना जाएगा।
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-
(i) कवि ने गुरु गोबिन्द सिंह के लिए किन-किन विशेषणों का प्रयोग इस कविता में किया है?
उत्तर – कवि ने गुरुवर गोबिन्द सिंह के लिए युगद्रष्टा, युगस्रष्टा, तेजपुंज, महमानव आदि विशेषणों का प्रयोग इस कविता में किया है।
(ii) कविता में ‘दशम नानक’ किसे कहा गया है?
उत्तर – कविता में ‘दशम नानक’ सिक्खों के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह को कहा गया है।
(iii) 1699 ई. में विशाल मेला कहाँ लगा था?
उत्तर – 1699 ई. में विशाल मेला पंजाब प्रदेश के रूपनगर जिले में स्थित आनंदपुर साहिब में लगा था।
(iv) ‘मरजीवा’ शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर – मर कर जीने वाले के लिए ‘मरजीवा’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इस कविता में भी पाँच सिंघ भले ही जनता की नज़र में मर गए थे पर वास्तव में वे जीवित थे। ऐसे ही महानुभाव सदैव अमर रहते हैं।
(v) अकाल पुरुष का फरमान क्या था?
उत्तर – अकाल पुरुष का फरमान अर्थात् यह आदेश था कि अत्याचार से मुक्ति और धर्म की रक्षा हेतु तत्काल एक बलिदान की आवश्यकता है।
(vi) पाँचों मरजीवों के नाम लिखिए।
उत्तर – पाँचों मरजीवों के नाम थे – लाहौर का दयाराम खत्री अर्थात् दया सिंघ, हस्तिनापुर का जाट धर्म राय अर्थात धर्म सिंघ, गुजरात के द्वारिका का धोबी मोहकम चंद अर्थात् मोहकम सिंघ, कर्नाटक के बिदर का नाई साहब चंद अर्थात् साहब सिंघ और ओड़िशा के जगन्नाथपुरी के कहार समुदाय का हिम्मत सिंह अर्थात् हिम्मत सिंघ थे।
(vii) जो व्यक्ति न्याय के लिए बलिदान देता है, धर्म की रक्षा के लिए शीश कटा लेता है, उसे हम क्या कहकर पुकारते हैं?
उत्तर – जो व्यक्ति न्याय के लिए बलिदान देता है, धर्म की रक्षा के लिए शीश कटा लेता है, उसे हम मरजीवा कहकर पुकारते हैं।
(viii) गुरु जी ने वीरों की क्या पहचान बताई?
उत्तर – गुरु गोबिन्द सिंह के अनुसार जो सद्व्यवहार के रास्ते पर अग्रसर होता है और इसकी रक्षा करने के लिए आत्म-बलिदान करने के लिए तत्पर रहता है, उसे ही सच्चा वीर माना जाता है।
(ix) ‘धर्म-अधर्म के संघर्ष की रात’ का क्या अर्थ है?
उत्तर – ‘धर्म-अधर्म के संघर्ष की रात’ का अर्थ है कि धर्म की रक्षा के लिए तैयार होना और अधर्म यानी अत्याचार के विरोध सस्वर क्रांति करना।
II. निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(i) तेज पुंज गुरु गोबिन्द के हाथों में
है नंगी तलवार
लहराती हवा में बारंबार
“अकाल पुरुष का है फरमान
अभी तुरन्त चाहिये एक बलिदान
अन्याय से मुक्ति दिलाने को
धर्म बचाने, शीश कटाने को
मरजीवा क्या कोई है तैयार?
मुझे चाहिये शीश एक उपहार!
जिसका अद्भुत त्याग देश की
मरणासन्न चेतना में कर दे नवरक्त संचार।”
उत्तर – प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के छठे अध्याय ‘पाँच मरजीवे’ कविता से ली गई है। इस पुनीत कविता के कवि श्री योगेंद्र बख्शी जी हैं। कविता के इन अंशों में कवि सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के 1699 में वैशाखी के पावन बेला पर आए भक्तों और शिष्यों से आत्म बलिदान की माँग का ज़िक्र कर रहे हैं।
व्याख्या –
अतुलित तेज के स्वामी गुरु गोबिन्द सिंह के हाथों में चमचमाती व धारदार एक नंगी तलवार हवा में लहरा रही है। गुरु गोबिन्द सिंह उसे अपने बलिष्ठ हाथों में थामें हुए भीड़ को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि अकालपुरुष यानी कि परमेश्वर का आदेश है कि तुरंत एक बलिदान चाहिए। क्या इस भीड़ में कोई भी ऐसा मरजीवा उपस्थित है जो अन्य से मुक्ति दिलाने के लिए, धर्म की रक्षा करने के लिए अपना शीश काटने को तैयार हो। मुझे एक शीश अभी तत्काल उपहार में चाहिए। उस मरजीवा का अद्भुत त्याग देश की लुप्त हो रही राष्ट्रप्रेम की चेतना को फिर से जागृत करने का पुनीत कार्य करेगा।
(ii) लीला से पर्दा हटा गुरु प्रकट हुए
चकित देखते सब पांचों बलिदानी संग खड़े
गुरुवर बोले “मेरे पांच प्यारे सिंघ
साहस, रूप, वेश, नाम में न्यारे सिंघ
दया सिंघ, धर्म सिंघ और मोहकम सिंघ
खालिस जाति खालसा के साहब सिंघ व हिम्मत सिंघ
शुभाचरण पथ पर निर्भय देंगे बलिदान
अब से पंथ “खालसा मेरा ऐसे वीरों की पहचान।
उत्तर – प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी नौवीं कक्षा की हिंदी पुस्तक के छठे अध्याय ‘पाँच मरजीवे’ कविता से ली गई है। इस पुनीत कविता के कवि श्री योगेंद्र बख्शी जी हैं। कविता के इस अंशों में कवि सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के 1699 में वैशाखी के पावन बेला पर आए भक्तों और शिष्यों से आत्म बलिदान की माँग का ज़िक्र कर रहे हैं जिसमें पाँच मरजीवे आत्म-बलिदान के लिए तैयार हो जाते हैं और गुरुवर की विस्मयकारी लीला का उद्घाटन होता है।
व्याख्या –
सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के विस्मयकारी लीला से पर्दा हटता है तो सारे मरजीवे एक साथ जीवित खड़े दिखते हैं। उन मरजीवों को अपने संग लेकर गुरु गोबिन्द सिंह ने भीड़ से कहा ये मेरे पाँच प्यारे मरजीवे हैं। साहस, रूप, वेश नाम में ये सबसे न्यारे सिंघ हैं। ये हैं दया सिंघ, धर्म सिंघ, मोहकम सिंघ, साहब सिंघ व हिम्मत सिंघ जो खालिस (शुद्ध) सिक्ख संप्रदाय अर्थात् खालसा पंथ के पवित्र आचरण वाले पथ पर निर्भय बलिदान देने वाले महाविभूति हैं। और अब से खालसा पंथ ऐसे ही वीरों के पहचान से जाना जाएगा।
- स्कूल की प्रार्थना सभा में खालसा पंथ की साजना, वैसाखी पर्व तथा श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के जन्म दिवस के अवसर पर प्रेरणादायक विचार प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
- श्री आनंदपुर साहिब के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में अपने पुस्तकालय से पुस्तक लेकर पढ़िए अथवा इंटरनेट से जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
- अपने माता-पिता के साथ श्री आनंदपुर साहिब के ऐतिहासिक गुरुद्वारे के दर्शन कीजिए व अन्य स्थलों का भ्रमण कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
- श्री आनंदपुर साहिब के ऐतिहासिक स्थलों के चित्र एकत्रित कीजिए।
उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।
1. आनंदपुर साहिब : आनंदपुर साहिब पंजाब प्रदेश के रूपनगर जिले में स्थित है। यह स्थान पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ से 85 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसकी स्थापना सन् 1664 ई. में सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर ने की थी। आनंदपुर साहिब में स्थित प्रसिद्ध गुरुद्वारे तख्त श्री केसगढ़ साहिब की बहुत महानता है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ पर श्रद्धालुओं की हर मुराद पूरी होती है।
2. अन्य प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल : सेंट्रल किला श्री आनंदगढ़ साहिब, लोहगढ़ क़िला, होलगढ़ क़िला, फतेहगढ़ किला एवं तारागढ़ क़िला।
इसके अतिरिक्त आनंदपुर साहिब में बना ‘विरासत-ए-खालसा संग्रहालय’ भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थल है। इसमें श्री गुरु नानक देव से लेकर श्री गुरु ग्रंथ साहिब की स्थापना तक सिक्ख धर्म के विकास को बखूबी दर्शाया गया है।