मन्नू भंडारी
(सन् 1931-2021)
मन्नू भंडारी नई कहानी की एक प्रसिद्ध लेखिका हैं।
आपके उपन्यास और कहानियाँ मानवीय भावनाओं को स्पर्श करते हैं। आपका जन्म 3 अप्रैल 1931 में भानपुर मध्यप्रदेश में हुआ। आपकी विद्यालय स्तर की शिक्षा अजमेर में हुई जबकि स्नातक स्तर की परीक्षा आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1949 में उत्तीर्ण की। आपका विवाह हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार श्री राजेन्द्र यादव से हुआ आपने अपने पति श्री राजेन्द्र यादव के साथ मिलकर एक इंच मुस्कान’ की रचना की! आपकी प्रसिद्ध रचनाओं में ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ ने बहुत ख्याति प्राप्त की। इन उपन्यासों के नाट्य रूपांतर ‘भारत रंग महोत्सव नई दिल्ली में प्रस्तुत किए गए। आपकी रचनाएँ इतनी लोकप्रिय थीं कि इनका कई भाषाओं में अनुवाद किया गया।
मन्नू भंडारी की कहानियों ने हिंदी फिल्मों में अत्यंत प्रसिद्धि प्राप्त की। ‘यही सच है’ उपन्यास के आधार पर ‘रजनीगंधा’ फ़िल्म बनी जिसे फिल्म फेयर अवार्ड में सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित किया गया। बासु चैटर्जी द्वारा निर्देशित ‘स्वामी’ फ़िल्म के संवाद भी आपने लिखे। सन् 1986 में आपकी कहानी ‘समय की धारा प्रकाशित हुई। आपकी रचनाओं पर कई पुरस्कार मिले। विशेषत: ‘एक कहानी यह भी’ पर सन् 2008 में आपको व्यास सम्मान मिला। 15 नवंबर, 2021 को इनका देहावसान हो गया।
पाठ-परिचय
“दो कलाकार “मानवीय भावनाओं को स्पर्श करती है। चित्रा और अरुणा अंतरंग सहेलियाँ हैं। चित्रा चित्रकार हैं। उसकी तूलिका में जादू है। उसके बने चित्र राष्ट्रीय ‘व’ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत
होते हैं। लेकिन अरुणा एक समाज सेविका है। वह बेसहारा लोगों को सहारा देती है। वह ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में गरीब और बेसहारा लोगों की बेरंग ज़िंदगी में अपनी सेवा से खूबसूरत रंग भर देती है। चित्रा का दो अनाथ बच्चों और उनकी मरी हुई माँ का चित्र कई पुरस्कार पाता है लेकिन अरुणा उन अनाथ बच्चों को अपनाकर उन्हें माँ का प्यार देकर उनके जीवन में कई रंग बिखेर देती है। इस तरह अरुणा और चित्रा दोनों ही कलाकार हैं। लेखिका बाकी बात पाठकों पर छोड़ देती हैं।
‘दो कलाकार’ कहानी में मन्नू भंडारी ने जन सेवा या मानवता की भावना को बहुत बड़ी कला माना है। कहानी की प्रमुख पात्रा अरुणा के मुँह से कहलवाया भी है वह चित्रा को कहती है-
‘कागज पर इन बेजान चित्रों को बनाने की बजाय दो चार की ज़िंदगी क्यों नहीं बना देती।’ ‘दो कलाकार’ शीर्षक कहानी की मूल संवेदना को लेकर चलता है। शीर्षक संक्षिप्त व सार्थक है। कहानी की भाषा में हिंदी के साथ-साथ उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग हैं। कहानी में जिज्ञासा अंत तक बनी रहती है।
दो कलाकार
“ए रूनी, उठ,” और चादर खींचकर, चित्रा ने सोती हुई अरुणा को झकझोरकर उठा दिया।
अरे, क्या है?” आँख मलते हुए थोड़े खिझलाहट भरी आवाज़ में अरुणा ने पूछा। चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले गयी और अपने नये बनाये हुए चित्र के सामने ले जाकर खड़ा करके बोली, “देख, मेरा चित्र पूरा हो गया।”
ओह! तो इसे दिखाने के लिए तूने मेरी नींद खराब कर दी। बदतमीज़ कहीं की!”
“अरे, जरा इस चित्र को तो देख न पा गयी पहला इनाम तो नाम बदल देना।” चित्र को चारों और से घुमाते हुए अरुणा बोली, “किधर से देखूँ, यह तो बता दे? हज़ार बार तुझसे कहा कि जिसका चित्र बनाये उसका नाम लिख दिया कर, जिससे गलतफहमी न हुआ करें, वरना तू बनाये हाथी और हम समझें उल्लू।” फिर तस्वीर पर आँख गड़ाते हुए बोली, “किसी तरह नहीं समझ पा रही हूँ कि चौरासी लाख योनियों में से आखिर यह किस जीव की तस्वीर है?”
“तो आपको यह कोई जीव नज़र आ रहा है? अरे, जरा अच्छी तरह देख और समझने की कोशिश कर।”
“अरे, यह क्या? इसमें तो सड़क, आदमी, ट्रॉम, बस, मोटर, मकान सब एक-दूसरे पर चढ़ रहे हैं, मानो सबकी खिचड़ी पकाकर रख दी हो। क्या घनचक्कर बनाया है?” और उसने वह चित्र रख दिया।
ज़रा सोचकर बता कि यह किसका प्रतीक है?”
“तेरी बेवकूफी का आयी है बड़ी प्रतीक वाली।”
“अरे, जनाब, यह चित्र आज के जीवन में चल रही उलझन की तरफ ध्यान खींचता है।”
“समझी, मुझे तो यह चित्र तेरे दिमाग में चल रही उलझन ही लग रही है। बिना मतलब ज़िंदगी खराब कर रही है।” और अरुणा मुँह धोने के लिए बाहर चली गयी। लौटी तो देखा, तीन- चार बच्चे उसके कमरे के दरवाजे पर खड़े उसकी राह देख रहे हैं। आते ही बोले, “दीदी! सब बच्चे आकर बैठ गए, चलिए।”
“आ गए सब बच्चे? अच्छा चलो, मैं अभी आयी।” बच्चे दौड़ पड़े।
‘क्या ये बंदर पाल रखे हैं तूने भी?” फिर जरा हँसकर चित्रा बोली, “एक दिन तेरी पाठशाला का चित्र बनाना होगा। जरा लोगों को दिखाया ही करेंगे कि हमारी एक ऐसी मित्र साहब थीं जो सारे दाइयों, चपरासियों और दुनिया भर के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर ही अपने को भारी पण्डिता और समाज सेविका समझती थी।”
“जा जा समझते हैं तो समझते हैं। तू जाकर सारी दुनिया में ढिंढोरा पिटाना, हमें कोई शरम है क्या? तेरी तरह लकीरें खींचकर तो समय बर्बाद नहीं करते।” और पैर में चप्पल डालकर वह बाहर मैदान में चली गयी, जहाँ एक छोटी-सी पाठशाला बनी हुई थी।
रात के दस बजे थे। सारे छात्रावास की बत्तियाँ हमेशा की तरह बुझ चुकी थीं। ऊपर के एक तल्ले पर अँधेरे में ही खुसर- फुसर चल रही थी। रविवार के दिन तो यों ही छुट्टी होती है। दूसरे, दिन के समय में काफी नींद निकाल ली जाती थी, सो दस बजे लड़कियों को किसी तरह भी नींद नहीं आती थी। तभी छात्रावास के फाटक में जलती हुई टॉर्च लिए कोई घुसा। अपने कमरे की खिड़की में से झाँकते हुए सविता ने कहा, “ठाठ तो छात्रावास में बस अरुणा ही के हैं, रात नौ बजे लौटो, दस बजे लौटो, कोई बंधन नहीं। हम लोग तो दस के बाद बत्ती भी नहीं जला सकते।”
“लौट आई अरुणा दी? आज सवेरे से ही वे बड़ी परेशान थी। फुलिया दाई का बच्चा बड़ा बीमार था, दोपहर से वे उसी के यहां बैठी थी। पता नहीं, क्या हुआ बेचारे का?” शीला ने ठंडी साँस भरते हुए कहा।
“तू बड़ी भक्त है अरुणा दी की!”
“उनके जैसे गुण अपना ले तो तेरी भी भक्त हो जाऊँगी।”
“मैं कहती हूँ, उन्हें यही सब करना है तो कहीं और रहें, छात्रावास में रहकर यह जो नवाबी चलाती हैं, सो तो हमसे बर्दाश्त नहीं होती। सारी लड़कियाँ डरती हैं तो कुछ कहती नहीं, पर प्रिंसिपल और वार्डन तक रोब खाती है इनका, तभी तो सब प्रकार की छूट दे रखी हैं।
“तू भी जिस दिन हाड़ तोड़कर दूसरों के लिए यों मेहनत करने लग जाएगी न, उस दिन तेरा भी सब रोब खाने लगेंगे। पर तुम्हें तो सजने-सँवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती, दूसरों के लिए क्या खाक काम करोगी।
“अच्छा-अच्छा चल, अपना भाषण अपने पास रख।”
अरुणा अपने कमरे में घुसी तो बहुत ही धीरे से जिससे चित्रा की नींद न खराब हो पर चित्रा जग ही रही थी। दोपहर से अरुणा बिना खाये-पिये बाहर थी, उसे नींद कैसे आती भला? मेस से उसका खाना लेकर उसे मेज पर ढककर रख दिया था। अरुणा के आते ही वह उठ बैठी और पूछा, “बड़ी देर लग गयी, क्या हुआ रूनी!”
“वह बच्चा नहीं बचा, चित्रा। किसी तरह उसे नहीं बचा सके।” और उसका स्वर किसी गहरे दुख में डूब गया।
चित्रा ने माचिस लेकर लालटेन जलाया और स्टोव जलाने लगी, खाना गरम करने के लिए। तभी अरुणा ने कहा, “रहने दे चित्रा, मैं खाऊँगी नहीं, मुझे जरा भी भूख नहीं है। “और उसकी आँखें फिर छलछला आईं।
बहुत ही स्नेह से अरुणा की पीठ थपथपाते हुए चित्रा ने कहा, “जो होना था सो हो गया, अब भूखे रहने से क्या होगा, थोड़ा-बहुत खा ले।”
“नहीं चित्रा, अब रहने दे, बस तू लालटेन बुझा दे।”
उसके बाद दो-तीन दिन तक अरुणा बहुत ही उदास रहीं, लेकिन समय के साथ-साथ वह दुख भी जाता रहा, और सब काम ज्यों-का-त्यों चलने लगा।
चार बजते ही कॉलेज से सारी लड़कियाँ लौट आई पर अरुणा नहीं लौटी। चित्रा चाय के लिए उसका इंतजार कर रही थी। “पता नहीं कहाँ-कहाँ अटक जाती है, बस इसके पीछे बैठे रहा करो।’
“अरे, क्यों बड़-बड़ कर रही है। ले मैं आ गई। चल बना चाय।”
“तेरे मनोज की चिट्ठी आई है। “
“कहाँ, तूने तो पढ़ ही ली होगी फाड़कर।”
“चल हट, तुम्हारी चिट्ठियों में रहता ही क्या है जो कोई पढ़े। बड़े-बड़े आदर्श की बातें, मानो खत न हुआ भाषण हुआ।”
‘अच्छा-अच्छा, तू लिखा करना रसभरी चिट्ठियाँ, हमें तो वह सब आता नहीं।” वह लिफाफा फाड़कर पत्र पढ़ने लगी। जब उसका पत्र समाप्त हो गया तो चित्रा बोली, “आज पिता जी का पत्र आया है, लिखा है जैसे ही यहाँ की पढ़ाई खत्म हो जाएगी, मैं विदेश जा सकती हूँ। मैं तो जानती थी, पिता जी कभी मना नहीं करेंगे।”
‘हाँ भाई, धनी पिता की इकलौती बिटिया ठहरी। तेरी इच्छा कभी टाली जा सकती है। पर सच कहती हूँ, मुझे तो यह सारी कला इतनी बेमतलब लगती है कि बता नहीं सकतीं। किस काम की ऐसी कला, जो आदमी को आदमी न रहने दे।”
“तो तू मुझे आदमी नहीं समझती क्यों? अरे, इस लगन को देखकर ही तो गुरुजी कहते हैं कि वह समय दूर नहीं, जब हिन्दुस्तान के कोने-कोने में मेरी शोहरत गूँज उठेगी। अमृता शेरगिल की तरह मेरा भी नाम गूँज उठे, बस यही तमन्ना है।”
‘कागज़ पर इन बेजान चित्रों को बनाने की बजाय दो चार की ज़िंदगी क्यों नहीं बना देती!”
‘वह काम तो तेरे और मनोज के लिए छोड़ दिया है। तुम दोनों ब्याह कर लो और फिर जल्दी से सारी दुनिया का कल्याण करने के लिए झंडा लेकर निकल पड़ना।” और चित्रा हँस पड़ी। फिर बोली-
“अच्छा, यह बता कि तेरे यह सब करने से ही क्या हो जाएगा? तूने अपनी अनोखी पाठशाला में दस-बीस बच्चे पढ़ा दिये, तो क्या निरक्षरता मिट जायगी, या झोंपड़ी में कुछ औरतों को हुनर सिखाकर कुछ कमाने लायक बना दिया तो उससे गरीबी मिट जायगी? अरे, यह सब काम एक के किये होते नहीं। जब तक समाज का सारा ढाँचा नहीं बदलता तब तक कुछ होने का नहीं, और ढाँचा ही बदल गया तो तेरे मेरे कुछ करने की जरूरत नहीं, सब अपने आप ही हो जाएगा।”
तीन दिन से तेज वर्षा हो रही थी। रोज़ अखबारों में बाढ़ की खबरें आती थीं। बाढ़ पीड़ितों की दशा बिगड़ती जा रही थी।
आज शाम को एक स्वयंसेवकों का दल जा रहा है। प्रिंसिपल से अनुमति ले ली, मैं भी उनके साथ जा रही हूँ।” शाम को अरुणा चली गयी। पंद्रह दिन बाद वह लौटी तो उसकी हालत काफी खस्ता हो गयी थी। सूरत ऐसी निकल आयी थी मानो छः महीने से बीमार हो।
शाम को चित्रा गुरुदेव के पास से लौटी तो अरुणा को देखकर बड़ी खुश हुई। “अच्छा हुआ, तू लौट आयी। मैं तो सोच रही थी कहीं तू बाढ़ पीड़ितों की सेवा करती ही रह जाय और मैं जाने से पहले तुझसे मिल भी न पाऊँ।”
“क्यों तेरा जाने का तय हो गया?”
“हाँ, अगले बुध को मैं घर जाऊँगी और बस एक सप्ताह बाद हिन्दुस्तान की सीमा के बाहर पहुँच जाऊँगी।” उल्लास उसके स्वर में छलका पड़ रहा था।
“सच कह रही है, तू चली जायगी चित्रा! छह साल से तेरे साथ रहते-रहते यह बात ही मैं तो भूल गयी कि कभी हमको अलग भी होना पड़ेगा। तू चली जाएगी तो मैं कैसे रहूँगी?”
“अरे, दो महीने बाद शादी कर लेगी, फिर याद भी न रहेगा कि कौन कमबख्त थी चित्रा! बड़ी लालसा थी तेरी शादी में आने की, पर अब तो आ नहीं सकूँगी। अच्छी तरह शादी करना, दोनों मिलकर सारे समाज का और सारे संसार का कल्याण करना।”
आज चित्रा को जाना था। हॉस्टल से उसे बड़ी शानदार विदाई मिली थी। अरुणा सवेरे से ही उसका सारा सामान ठीक कर रही थी। एक-एक करके चित्रा सबसे मिल आयी। बस गुरुजी के घर की तरफ चल पड़ी। तीन बज गए, पर वह लौटी नहीं अरुणा उसका सारा काम खत्म करके उसकी राह देख रही थी। और भी कई लड़कियाँ वहाँ जमा थीं, कुछ बार- बार आकर पूछ जाती थीं, चित्रा लौटी या नहीं। पाँच बजे की गाड़ी से वह जाने वाली है। अरुणा ने सोचा, वह खुद जाकर देख आये कि आखिर बात क्या हो गयी। तभी हड़बड़ाती सी चित्रा कमरे में आई, “बड़ी देर हो गयी ना! अरे क्या करुँ, बस, कुछ ऐसा हो गया कि रुकना ही पड़ा।”
“आखिर क्या हो गया ऐसा, जो रुकना ही पड़ा, सुनें तो।” दो-तीन लड़कियाँ एक साथ बोली।”
“गर्ग की दुकान के सामने पेड़ के नीचे अक्सर एक भिखारिन बैठी रहा करती थी ना, लौटी तो देखा कि वह वहीं मरी पड़ी है और उसके दोनों बच्चे उसके सूखे शरीर से चिपककर बुरी तरह रो रहे हैं। जाने क्या था उस सारे दृश्य में कि मैं अपने को रोक नहीं सकी-जल्दी ही उसे एक कागज पर उतार लिया। बस इसी में इतनी देर हो गयी।” चर्चा इसी पर चल पड़ी, “कैसे मर गयी, कल तो उसे देखा था। “किसी ने कहा, “अरे, ज़िंदगीका क्या भरोसा, मौत कहकर थोड़े आती है।” आदि-आदि। पर इस सारी चर्चा से अरुणा कब खिसक गयी, कोई जान ही नहीं पाया।
साढ़े चार बजे और चित्रा हॉस्टल के फाटक पर आ गयी, पर तब तक अरुणा का कहीं पता नहीं था। बहुत सारी लड़कियाँ उसे छोड़ने को स्टेशन आयीं, पर चित्रा की आँखें बराबर अरुणा को ढूँढ़ रही थीं। उसे पूरा विश्वास था कि वह इस विदाई की वेला में उससे मिलने जरूर जाएगी। पाँच भी बज गए, रेल चल पड़ी, अनेक रूमालों ने हिल – हिलकर चित्रा को विदाई दी, पर उसकी आँसू भरी आँखें किसी और को ही ढूँढ़ रही थीं पर अरुणा न आयी सो न आयी।
“विदेश जाकर चित्रा तन-मन से अपने काम में जुट गयी। विदेशों में उसके चित्रों की धूम मच गयी। भिखमंगी और दो अनाथ बच्चों के उस चित्र के बखान कई अखबारों में हुए नाम और शोहरत पाकर चित्रा जैसे अपना पिछला सब कुछ भूल गयी। पहले साल तो अरुणा और उसके बीच चिट्ठियों का लगातार आना जाना लगा रहा। फिर कम होते-होते एकदम बंद हो गया। पिछले एक साल से तो उसे यह भी नहीं मालूम कि वह कहाँ है। नयीं कल्पनाएँ और नये-नये विचार उसे चित्र बनाने की प्रेरणा देते और वह उन्हीं में खोयी रहती। उसके चित्रों की प्रदर्शनियाँ होतीं। अनेक प्रतियोगिताओं में उसका ‘अनाथ’ शीर्षक वाला चित्र पहला इनाम पा चुका था। जाने क्या था उस चित्र में, जो देखता, वही हैरान रह जाता। दुख और गरीबी जैसे सामने आकर खड़ी थी। तीन साल बाद जब वह भारत लौटी तो बड़ा स्वागत हुआ उसका अखबारों में उसकी कला पर, उसके जीवन पर अनेक लेख छपे पिता अपनी इकलौती बिटिया की इस कामयाबी पर बहुत खुश थे- समझ नहीं पा रहे थे कि उसे कहाँ-कहाँ उठायें, बिठायें। दिल्ली में उसके चित्रों की शानदार प्रदर्शनी हुई। उस प्रदर्शनी को देखने के लिए जनता उमड़ पड़ी थी, भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी और चित्रा को लग रहा था, जैसे उसके सपने सच हो गए।
भीड़-भाड़ में अचानक उसकी भेंट अरुणा से हो गयी। “रुनी!” कहकर वह भीड़ को भूलकर अरुणा के गले से लिपट गयी। “तुझे कब से चित्र देखने का शौक हो गया, रुनी।”
“अरे, ये बच्चे किसके हैं?” दो प्यारे से बच्चे अरुणा से सटे खड़े थे। लड़के की उम्र दस की होगी तो लड़की की कोई आठ।
‘मेरे बच्चे हैं, और किसके! ये तुम्हारी चित्रा मासी हैं, नमस्ते करो अपनी मासी को।’ अरुणा ने आदेश दिया।
बच्चों ने बड़ी अदा से नमस्ते किया पर चित्रा हैरान होकर कभी उनका और कभी अरुणा का मुँह देख रही थी। वह सारी बात का कुछ तुक नहीं मिला पा रही थी। तभी अरुणा ने टोका, “कैसी मासी है, प्यार तो कर।” और चित्रा ने दोनों के सिर पर हाथ फेरा। प्यार का जरा-सा सहारा पाकर लड़की चित्रा की गोदी में जा चढ़ी। अरुणा ने कहा, “तुम्हारी ये मासी बहुत अच्छी तस्वीरें बनाती हैं, ये सारी तस्वीरें इन्हीं की बनायी हुई हैं।”
“सच?” आश्चर्य से बच्ची बोल पड़ी। “तब तो मासी, तुम जरूर चित्रकला में पहला नंबर लाती होगी। मैं भी पहला नंबर लाती हूँ-तुम हमारे घर आओगी तो अपनी कॉपी दिखाऊँगी।” बच्ची के स्वर में मुकाबले की भावना थी। चित्रा और अरुणा इस बात पर हँस पड़ीं।
आप हमें सब तस्वीरें दिखाइये मासी, समझा-समझाकर।” बच्चे ने फरमाइश की। चित्रा समझाती तो क्या, यों हीं तस्वीरें दिखाने लगी। घूमते-घूमते वे उसी भिखारिनी वाली तस्वीर के सामने आ पहुँचे। चित्रा ने कहा, “यही वह तस्वीर है रुनी, जिसने मुझे इतनी प्रसिद्धि दी।”
“ये बच्चे रो क्यों रहे हैं मासी? तस्वीर को ध्यान से देखकर बालिका ने कहा।
“इनकी माँ मर गयी, देखती नहीं मरी पड़ी है। इतना भी नहीं समझती!” बालक ने मौका पाते ही अपने बड़प्पन की छाप लगायी।
“ये सचमुच के बच्चे थे मासी?” बालिका ने पूछा।
“अरे, सचमुच के बच्चों को देख कर ही तो बनावी थी यह तस्वीर।”
‘हाय राम! इनकी माँ मर गयी तो फिर इन बच्चों का क्या हुआ?” बालक ने पूछा।
“मासी, हमें ऐसी तस्वीर नहीं, अच्छी-अच्छी तस्वीरें दिखाओ, राजा-रानी की, परियों की- ‘उस तस्वीर को और देर देखना बच्ची के लिए भारी पड़ रहा था। तभी अरुणा के पति आ पहुँचे।
परिचय हुआ। साधारण बातचीत के बाद अरुणा ने दोनों बच्चों को उसके हवाले करते हुए कहा, “आप जरा बच्चों को प्रदर्शनी दिखाइये, मैं चित्रा को लेकर घर चलती हूँ।”
बच्चे इच्छा न रहते हुए भी पिता के साथ विदा हुए। चित्रा को दोनों बच्चे बड़े ही प्यारे लगे। वह उन्हें एकटक देखती रही, फिर पूछा, “सच सच बता रुनी! ये प्यारे-प्यारे बच्चे किसके हैं।
“कहा तो, मेरे।” अरुणा ने हँसते हुए कहा।
“अरे, बताओ ना! मुझे ही बेवकूफ बनाने चली है।”
एक पल रुककर अरुणा ने कहा, “बता दूँ?” और फिर उस भिखारिनी वाले चित्र के दोनों बच्चों पर अँगुली रखकर बोली, “ये ही वे दोनों बच्चे हैं।”
‘क्या sss!” हैरानी से चित्रा की आँखें फैली की फैली रह गयी।
क्या सोच रही हैं, चित्रा ?”
“कुछ नहीं मैं… मैं सोच रही थी कि…” पर शब्द शायद उसके विचारों में ही खो गए।
शब्दार्थ-
खिझलाहट – खीझ से भरी हुई
उल्लास – हर्ष या खुशी
घनचक्कर – जंजाल
कमबख्त – बदकिस्मत, हतभाग्य
प्रतीक – प्रतिरूप, चित्र
शोहरत – प्रसिद्धि
पण्डिता – विदुषी
प्रतियोगिता – मुकाबला
छात्रावास = हॉस्टल
आश्चर्य – हैरानी
मेस – हॉस्टल का भोजन कक्ष
फरमाइश – इच्छा
वार्डन – छात्रावास या हॉस्टल की प्रधान
अमृता शेरगिल – मशहूर चित्रकार
निरक्षरता – अनपढ़ता
अनुमति – आज्ञा
अभ्यास
(क) विषय-बोध
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए-
(1) छात्रावास में रहने वाली दो सहेलियों के नाम क्या थे?
(2) चित्रा कहानी के आरंभ में अरुणा को क्यों जगाती है?
(3) अरुणा चित्रा के चित्रों के बारे में क्या कहती है?
(4) अरुणा छात्रावास में रात को देर से लौटती है तो शीला उसके बारे में क्या कहती है?
(5) चित्रा के पिता जी ने पत्र में क्या लिखा था?
(6) अरुणा बाढ़ पीड़ितों की सहायता करके स्वयंसेवकों के दल के साथ कितने दिनों बाद लौटीं?
(7) विदेश में चित्रा के किस चित्र ने धूम मचायी थी?
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर तीन चार पंक्तियों में दीजिए-
(1) अरुणा के समाज सेवा के कार्यों के बारे में लिखिए।
(2) मरी हुई भिखारिन और उसके दोनों बच्चों को उसके सूखे शरीर से चिपक कर रोते देख चित्रा ने क्या किया?
(3) चित्रा की हॉस्टल से विदाई के समय अरुणा क्यों नहीं पहुँच सकी?
(4) प्रदर्शनी में अरुणा के साथ कौन से बच्चे थे?
III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर छह या सात पंक्तियों में दीजिए-
(1) दो कलाकार कहानी का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
(2) दो कलाकार के आधार पर अरुणा का चरित्र चित्रण करें।
(3) चित्रा एक मंझी हुई चित्रकार है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?
(4) ‘दो कलाकार’ कहानी के शीर्षक की सार्थकता को स्पष्ट कीजिए।
(ख) भाषा-बोध
I. निम्नलिखित मुहावरों के अर्थ समझ कर इनका अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए-
मुहावरा अर्थ वाक्य
राह देखना बेसब्री से इंतज़ार करना
रोब खाना प्रभाव या हस्ती मानना
आँखें छलछला आना आँसू निकल आना
पीठ थपथपाना हौसला शाबाशी देना
धूम मचना प्रसिद्धि होना
II. निम्नलिखित शब्दों के विपरीत शब्द लिखे :
बेवकूफी
धनी
बंधन
बीमार
गुण
आदर्श
विदेश
शोहरत
निरक्षरता
ज़िंदगी
निम्नलिखित का हिंदी में अनुवाद कीजिए-
(1) “भवे घंचे उठ, व मिरे। टिव वाडी चिडता भाभी है, लभमडे व भाटी भाभी
हूँ” भवला हे उरभ हिँड।
(2) ਸੱਚ? ਹੈਰਾਨੀ ਨਾਲ ਬੱਚੀ ਬੋਲ ਪਈ। ਫਿਰ ਤਾਂ ਮਾਸੀ, ਤੁਸੀਂ ਜ਼ਰੂਰ ਚਿੱਤਰਕਲਾ ਵਿੱਚ
ਪਹਿਲਾ ਨੰਬਰ ਲਿਆਉਂਦੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਮੈਂ ਵੀ ਪਹਿਲਾ ਨੰਬਰ ਲਿਆਉਂਦੀ ਹਾਂ।
(3) चिंडता हे रुची, चिडग है देवर भाष्टी मी डुंडा टिवटभ बॅल ची गष्टी।
(ग) रचनात्मक अभिव्यक्ति
(1) क्या आप ने भी अरुणा की तरह किसी जरूरतमंद या बेसहारा की मदद की है अगर की है तो उस प्रसंग को लिख कर अपने अध्यापक को दिखायें या कक्षा में सुनायें।
(2) स्कूल में हुई किसी चित्र प्रदर्शनी या प्रतियोगिता का अपने शब्दों में वर्णन करें।
(घ) पाठ्येतर सक्रियता
(1) सभी विद्यार्थी मिलकर अपनी चित्रकला की प्रदर्शनी का आयोजन करें। यह आयोजन दीवाली आदि त्योहार पर किया जा सकता है।
(2) अपने विद्यालय या शहर में आयोजित होने वाली चित्रकला प्रदर्शनी को देखने जायें और चित्रकला से संबंधित ज्ञान प्राप्त करें।
(3) समाज भलाई का काम करने वाले प्रसिद्ध चरित्र मदर टेरेसा, फलोरेंस नाइटगेल, स्वामी दयानंद आदि के जीवन के बारे में पढ़ें तथा इंटरनेट पर सहायतार्थ कार्य करने वालों के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
(ङ) ज्ञान-विस्तार
अमृता शेरगिल
(30 जनवरी 1913 5 दिसम्बर 1941)
पूरा – नाम अमृता शेरगिल
माता का नाम – मेरी एँटोनी गोट्समन (हंगरी मूल की यहूदी ओपेरा गायिका)
पिता का नाम – उमराव सिंह (सिक्ख, संस्कृत-फारसी के विद्वान)
जन्म स्थान – बुडापेस्ट (हंगरी)
मृत्यु स्थान – लाहौर
पति – डॉ विक्टर इगान
नागरिकता – भारतीय
कर्मक्षेत्र – चित्रकला
कर्मभूमि – भारत
उपलब्धियाँ-
(1) भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने 1976 और 1979 में भारत के नौ सर्वश्रेष्ठ कलाकारों में शामिल किया।
(2) इनकी चित्रकारी को दिल्ली की ‘नेशनल गैलरी’ में धरोहर के रूप में रखा गया है।
(3) उनकी चित्रकारी ‘यंग गर्ल्स’ को पेरिस में एसोसिएशन आफ़ द ग्रैंड सैलून’ तक पहुँचने का अवसर मिला। यहाँ तक पहुँचने वाली अमृता शेरगिल पहली सबसे कम आयु की एशियाई चित्रकार थीं।