मैथिलीशरण गुप्त
(सन् 1886 से 1964)
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म सन् 1886 में चिरगाँव, जिला झाँसी उत्तर प्रदेश में हुआ। इनके पिता सेठ रामचरण गुप्त अच्छे कवि थे। इस प्रकार गुप्त जी को कविता विरासत के रूप में मिली। इनकी आरंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालय में हुई। इसके बाद वे झाँसी के मेकडॉनल स्कूल में दाखिल हुए। गुप्त जी की आरंभिक रचनाएँ कोलकाता से प्रकाशित हुआ करती थीं। बाद में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आने पर ‘सरस्वती’ पत्रिका में भी प्रकाशित होने लगीं।
द्विवेदी जी के प्रोत्साहन से गुप्त जी की काव्यकला निखरने लगी। गुप्त जी की कविताओं में स्वदेश प्रेम, मानव प्रेम, साम्प्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता की भावना है। उन्होंने अपनी काव्य रचनाओं का आधार पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथानकों को बनाया। गुप्त जी ने नारी को अबला रूप से मुक्त करके उसे लोक सेविका तथा स्वाभिमानिनी के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-रंग में भंग, भारत भारती, जयद्रथ वध, साकेत, शकुन्तला, चंद्रहास, किसान, पंचवटी, स्वदेश संगीत, गुरुकुल, झंकार, यशोधरा, द्वापर, मंगलधर, नहुष, विश्ववेदना आदि। गुप्त जी की ‘अर्जन और विसर्जन’ में ईसाई संस्कृति, काबा और कर्बला’ में इस्लाम, ‘कुणाल’ में बौद्ध संस्कृति तथा ‘अनध’ में जैन संस्कृति की छाप है। आपकी ‘प्लासी का युद्ध’ ‘मेघनादवध’ ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘रुबाइयात उमर खैयाम’ आदि अनूदित रचनाएँ हैं। गुप्त जी को साकेत महाकाव्य पर मंगलाप्रसाद पुरस्कार मिला। इसके अतिरिक्त इन्हें आगरा विश्वविद्यालय से ‘डीलिट’ की मानद उपाधि तथा भारत सरकार की ओर से ‘पदम भूषण से अलंकृत किया गया। बारह वर्ष तक वे भारतीय संसद के मनोनीत सदस्य भी रहे। सन् 1964 में गुप्त जी का निधन हुआ।
प्रस्तुत भावपूर्ण गीत गुप्त जी के प्रसिद्ध महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम् सर्ग से लिया गया। ‘साकेत’ की नायिका उर्मिला यहाँ राज्य के कारण हुए गृह कलह से दुखी हैं। वह किसानों के शांतिपूर्ण जीवन की प्रशंसा करती हुई कहती है कि वास्तविक राज्य हमारे किसान ही करते हैं। जिनके खेतों में अन्न उपजता है, उनसे अधिक धनी अन्य कौन हो सकता है? सांसारिक ऐश्वर्य को भरते हुए वे अपनी पत्नी को लेकर स्वतंत्रता से बाहर घूमते हैं जबकि हम राज्य के अभिमान में ही मरते रहते हैं। किसानों के पास गोधन है- उनका हृदय उदार है-मधुर और गुणकारी दूध उन्हें सरलता से प्राप्त है वे सहनशील है संसार रूपी समुद्र को अपनी मेहनत से पार करते हैं। जबकि हम लोग राज्य के लिए झगड़ा करने पर तुले हैं। यदि वे किसी बात पर गर्व करे तो ठीक है हर रोज़ उनके त्योहार और मेले हैं जिनके हम जैसे रक्षक हों-उनको किस बात का डर अर्थात वे निडर हैं। ज्ञानी लोग हर बात में मीन मेख करते हैं चाहे उससे कुछ हासिल हो या नहीं पर किसान इन ऊपरी बातों को छोड़ कर धर्म की मूल बात को समझते हैं। उर्मिला कहती है कि मान लो हम लोग किसान होते तो राज्य की उलझनों से उत्पन्न कष्टों को फिर कौन भोगता। कुछ भी हो किसान हमारे अन्नदाता हैं और इन्हें देखकर ही हमारा दुख दूर हो सकता है। लेकिन खेद की बात यह है कि सब समझते हुए भी हम इस अभिमान के कारण मरे जा रहे हैं कि हम एक राज्य के अधिकारी हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं।
सच्चा राज्य परंतु हमारे कर्षक ही करते हैं।
जिनके खेतों में है अन्न,
कौन अधिक उनसे संपन्न?
पत्नी सहित विचरते हैं वे, भव वैभव भरते हैं,
हम राज्य लिए मरते हैं।
वे गोधन के धनी उदार,
उनको सुलभ सुधा की धार,
सहनशीलता के आगर वे श्रम सागर तरते हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं।
यदि वे करें, उचित है गर्व,
बात बात में उत्सव पर्व,
हम से प्रहरी रक्षक जिनके, वे किससे डरते हैं?
हम राज्य लिए मरते हैं।
करके मीन मेख सब ओर,
किया करें बुध वाद कठोर,
शाखामयी बुद्धि तजकर वे मूल धर्म धरते हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं।
होते कहीं वही हम लोग,
कौन भोगता फिर ये भोग?
उन्हीं अन्नदाताओं के सुख आज दुख हरते हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं।
(साकेत नवम् सर्ग से)
हम राज्य लिए मरते हैं।
सच्चा राज्य परंतु हमारे कर्षक ही करते हैं।
जिनके खेतों में है अन्न,
कौन अधिक उनसे संपन्न?
पत्नी सहित विचरते हैं वे, भव वैभव भरते हैं,
हम राज्य लिए मरते हैं।
शब्दार्थ –
मरते हैं – दुखी होते हैं
कर्षक – किसान
संपन्न – समृद्ध
सहित – सतह
विचरते – घूमते हैं
भव वैभव – दुनिया ऐश्वर्य
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पठित पाठ्यपुस्तक के चौथे अध्याय ‘हम राज्य लिए मरते हैं’ से उद्धृत हैं। यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में लक्ष्मण की विरहिणी पत्नी उर्मिला कृषक बाला की बातों को सुनकर सच्चा राज्य किसानों का ही समझती हैं। उनके कर्मों के समक्ष वह अपना राज्य भी तुच्छ समझती है। वह सखी से कहती है कि
व्याख्या
हे सखी ! हम क्षत्रिय गण राज्य प्राप्त करके परस्पर मिथ्याभिमान करते हैं एवं लड़ते रहते हैं। राज्य का अधिकारी बनाने के लिए कितने ही नीति-अनीति के कार्यों को बिना किसी चिंतन के पूरा करते हैं। किन्तु वास्तविकता तो यह है कि सच्चा राज्यसुख तो कृषक वर्ग भोगते हैं। उन किसानों के खेतों में अन्न उत्पन्न होता है एवं वे उनसे सम्पन्न प्रतीत होते हैं। वे पत्नी सहित विचरण करते रहते हैं उसके साथ सुख-सुख बाँटते रहते हैं। उनका जीवन सुखमय होता है और वे संसार में वैभव भरते हैं। दूसरी तरफ मैं राजमहल में रहकर भी अपने पति से अलग हूँ। मुझे किसी प्रकार का पारिवारिक सुख प्राप्त नहीं है।
वे गोधन के धनी उदार,
उनको सुलभ सुधा की धार,
सहनशीलता के आगर वे श्रम सागर तरते हैं।
शब्दार्थ
गोधन – गायों का स्वामी
उदार – बड़े हृदय वाला
सुलभ – आसानी से उपलब्ध
सुधा की धार – दूध की धार
सहनशीलता – बर्दाश्त करनाने की ताकत
आगर – भंडार
श्रम सागर – मेहनत का सागर
तरते हैं – पार होते हैं।
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पठित पाठ्यपुस्तक के चौथे अध्याय ‘हम राज्य लिए मरते हैं’ से उद्धृत हैं। यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में लक्ष्मण की विरहिणी पत्नी उर्मिला कृषक बाला की बातों को सुनकर सच्चा राज्य किसानों का ही समझती हैं। उनके कर्मशील जीवन की प्रशंसा करते हुए वह सखी से कहती है कि
व्याख्या
हम व्यर्थ ही राज्य के लिए अभिमान करते रहते हैं। वे किसान गोधन के धनी एवं उदार गोपति हैं। वे इतने उड़ाआर हैं कि गोरस अर्थात् दूध भी मुफ्त में दान करने वाले हैं। अमृत सम दुग्ध उनको सुलभ प्राप्त है। वे सहनशीलता के भंडार हैं, वे सभी की बातें एवं सुख-दुःख सहते रहते हैं। अपना जीवन इतनी सादगीपूर्ण तरीके से जीते हैं कि उन्हें सचमुच महान माना जाना चाहिए। अपनी अद्वितीय सहनशीलता और निरंतर मानव समुदाय के उदर पोषण के लिए के लिए के वे मेहनत करते हैं और श्रम रूपी सागर को पार करते हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं।
यदि वे करें, उचित है गर्व,
बात बात में उत्सव पर्व,
हम से प्रहरी रक्षक जिनके, वे किससे डरते हैं?
शब्दार्थ
गर्व – अभिमान
प्रहरी – पहरेदार
रक्षक – रक्षा करने वाला
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पठित पाठ्यपुस्तक के चौथे अध्याय ‘हम राज्य लिए मरते हैं’ से उद्धृत हैं। यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में लक्ष्मण की विरहिणी पत्नी उर्मिला कृषक बाला की बातों को सुनकर सच्चा राज्य किसानों का ही समझती हैं। उनके उत्सवपूर्ण जीवन का वर्णन करते हुए कहती है कि
व्याख्या
हम व्यर्थ ही राज्य के प्रति मिथ्याभिमान करते हैं। हे सखी ! यदि ये किसान इस राज्य पर गर्व करें तो उचित है। उनके ही कर्मों से हम सबका पेट पलता है। उनके यहाँ आये दिन उत्सव एवं पर्व मनाए जाते हैं। अरी सखी! हम क्षत्रिय जैसे उनके प्रहरी एवं रक्षक विद्यमान हैं तब उनको किसका डर है। वे तो सुख से रहेंगे ही।
हम राज्य लिए मरते हैं।
करके मीन मेख सब ओर,
किया करें बुध वाद कठोर,
शाखामयी बुद्धि तजकर वे मूल धर्म धरते हैं।
शब्दार्थ
मीन मेख – कमियाँ/दोष निकलाना
बुध – बुद्धिमान
वाद – वाद-विवाद
कठोर – कड़ा
शाखामयी – शाखा के समान अलग-अलग भावना
तजकर – त्याग कर
मूल धर्म – वास्तविक उद्देश्य
धरते हैं– धारण करते हैं।
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पठित पाठ्यपुस्तक के चौथे अध्याय ‘हम राज्य लिए मरते हैं’ से उद्धृत हैं। यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में लक्ष्मण की विरहिणी पत्नी उर्मिला कृषक बाला की बातों को सुनकर सच्चा राज्य किसानों का ही समझती हैं। उनके सीधे-सादे जीवन का वर्णन करते हुए कहती है कि
व्याख्या
कृषक वर्ग अपने कृषि कार्य को इतने तल्लीनता से पूरा करते हैं कि उन्हें इतना समय ही नहीं है कि वे किसी के कामों में मीन-मेख निकालने के व्यर्थ के कामों में पड़ें। वे तो बिना किसी वाद-विवाद के समाज में मिलजुलकर रहते हैं और मानवता के मूल धर्म मानव-सेवा को अपना परम धर्म मानकर उसी में लीन रहते हैं। दूसरी तरफ हम राज परिवार के लोग राज्य कलह के कारण प्राय: दुखी ही रहते हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं।
होते कहीं वही हम लोग,
कौन भोगता फिर ये भोग?
उन्हीं अन्नदाताओं के सुख आज दुख हरते हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं।
शब्दार्थ-
मरते हैं – दुखी होते हैं
भोग – सुख
अन्नदाताओं – अन्न देने वाले किसानों
हरते हैं – दूर करते हैं।
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पठित पाठ्यपुस्तक के चौथे अध्याय ‘हम राज्य लिए मरते हैं’ से उद्धृत हैं। यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में लक्ष्मण की विरहिणी पत्नी उर्मिला कृषक बाला की बातों को सुनकर सच्चा राज्य किसानों का ही समझती हैं। उनके जैसा ही जीवन जीने का वर्णन करते हुए कहती है कि
व्याख्या
अगर हम राजवंशी न होकर साधारण से किसान होते तो हमें राज्य कलह के कारण दुख न सहना पड़ता अर्थात् हम पति-पत्नी में वियोग की स्थिति ही नहीं आती। हम कितने सुख से रह रहे होते। अगर देखा जाए तो इन किसानों व राज्य के लोगों पर अपना अधिकार बनाए रखने की स्पृहा के कारण ही हम यह सह रहे हैं। हे सखी! आज उनके सुखों को देखकर मेरे दुख थोड़े कम हो गए हैं।
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-
(1) प्रस्तुत गीत में उर्मिला किस की प्रशंसा कर रही है?
उत्तर – प्रस्तुत गीत में उर्मिला कृषक वर्ग के सादगीपूर्ण एवं सुखमय जीवन प्रशंसा कर रही है।
(2) किसान संसार को समृद्ध कैसे बनाते हैं?
उत्तर – किसान मानव सेवा के धर्म का पालन करते हुए निरंतर अन्न उपजा कर संसार को समृद्ध बनाते हैं।
(3) किसान किस प्रकार परिश्रम रूपी समुद्र को धीरज से तैर कर पार करते हैं?
उत्तर – किसान परिश्रम रूपी समुद्र को अपने निरंतर परिश्रम और धैर्य से तैरकर पार करते हैं।
(4) किसानों का अपने पर गर्व करना कैसे उचित है?
उत्तर – किसानों का अपने पर गर्व करना उचित है क्योंकि वह पूरी तन्मयता से अन्न उपजाता है और मानव समुदाय का पेट पालता है। वह कभी भी किसी का अहित नहीं सोचता।
(5) किसान व्यर्थ के वाद-विवाद को छोड़कर किस धर्म का पालन करते हैं?
उत्तर – किसान व्यर्थ के वाद-विवाद को छोड़कर धर्म माँ मूल तत्त्व ‘मानव सेवा ही माधव सेवा है’ का पालन करते हैं।
(6) “हम राज्य लिए मरते हैं” में उर्मिला राज्य के कारण होने वाले किस कलह की बात कहना चाहती है?
उत्तर – “हम राज्य लिए मरते हैं” में उर्मिला राज्य के कारण होने वाले उस कलह की बात करना चाहती हैं जिसमें श्रीराम को 14 वर्षों का वनवास दिया गया तथा भरत को अयोध्या राज्य का अधिपति बनाया गया।
II. निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(1) यदि वे करें, उचित है गर्व,
बात बात में उत्सव पर्व,
हम से प्रहरी रक्षक जिनके वे किससे डरते हैं?
हम राज्य लिए मरते हैं।
उत्तर – प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पठित पाठ्यपुस्तक के चौथे अध्याय ‘हम राज्य लिए मरते हैं’ से उद्धृत हैं। यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में लक्ष्मण की विरहिणी पत्नी उर्मिला कृषक बाला की बातों को सुनकर सच्चा राज्य किसानों का ही समझती हैं। उनके उत्सवपूर्ण जीवन का वर्णन करते हुए कहती है कि
व्याख्या
हम व्यर्थ ही राज्य के प्रति मिथ्याभिमान करते हैं। हे सखी ! यदि ये किसान इस राज्य पर गर्व करें तो उचित है। उनके ही कर्मों से हम सबका पेट पलता है। उनके यहाँ आये दिन उत्सव एवं पर्व मनाए जाते हैं। अरी सखी! हम क्षत्रिय जैसे उनके प्रहरी एवं रक्षक विद्यमान हैं तब उनको किसका डर है। वे तो सुख से रहेंगे ही।
(2) करके मीन मेख सब ओर,
किया करें बुध बाद कठोर,
शाखामयी बुद्धि तजकर वे मूल धर्म धरते है
हम राज्य लिए मरते हैं।
उत्तर – प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पठित पाठ्यपुस्तक के चौथे अध्याय ‘हम राज्य लिए मरते हैं’ से उद्धृत हैं। यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में लक्ष्मण की विरहिणी पत्नी उर्मिला कृषक बाला की बातों को सुनकर सच्चा राज्य किसानों का ही समझती हैं। उनके सीधे-सादे जीवन का वर्णन करते हुए कहती है कि
व्याख्या
कृषक वर्ग अपने कृषि कार्य को इतने तल्लीनता से पूरा करते हैं कि उन्हें इतना समय ही नहीं है कि वे किसी के कामों में मीन-मेख निकालने के व्यर्थ के कामों में पड़ें। वे तो बिना किसी वाद-विवाद के समाज में मिलजुलकर रहते हैं और मानवता के मूल धर्म मानव-सेवा को अपना परम धर्म मानकर उसी में लीन रहते हैं। दूसरी तरफ हम राज परिवार के लोग राज्य कलह के कारण प्राय: दुखी ही रहते हैं।
(3) होते कहीं वहीं हम लोग,
कौन भोगता फिर ये भोग?
उन्हीं अन्नदाताओं के सुख आज दुख हरते हैं
हम राज्य लिए मरते हैं।
उत्तर – प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पठित पाठ्यपुस्तक के चौथे अध्याय ‘हम राज्य लिए मरते हैं’ से उद्धृत हैं। यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग से लिया गया है। प्रस्तुत कविता में लक्ष्मण की विरहिणी पत्नी उर्मिला कृषक बाला की बातों को सुनकर सच्चा राज्य किसानों का ही समझती हैं। उनके जैसा ही जीवन जीने का वर्णन करते हुए कहती है कि
व्याख्या
अगर हम राजवंशी न होकर साधारण से किसान होते तो हमें राज्य कलह के कारण दुख न सहना पड़ता अर्थात् हम पति-पत्नी में वियोग की स्थिति ही नहीं आती। हम कितने सुख से रह रहे होते। अगर देखा जाए तो इन किसानों व राज्य के लोगों पर अपना अधिकार बनाए रखने की स्पृहा के कारण ही हम यह सह रहे हैं। हे सखी! आज उनके सुखों को देखकर मेरे दुख थोड़े कम हो गए हैं।
(1) निम्नलिखित शब्दों के विपरीत शब्द लिखें :
संपन्न – विपन्न
धनी – निर्धन
उदार – अनुदार
रक्षक – भक्षक
सुलभ – दुर्लभ
उचित – अनुचित
कठोर – कोमल
धर्म – अधर्म
(2) निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखें –
पत्नी – भार्या, अर्धांगिनी
कर्षक – किसान। कृषक
सागर – उदधि, समुद्र
उत्सव – पर्व, त्योहार
(3) भिन्नार्थक शब्दों के अर्थ लिखकर वाक्य बनाएँ –
शब्द अर्थ वाक्य
अन्न – अनाज – किसान अन्न उगाने का काम करते हैं।
अन्य – दूसरा – सुधीर के अतिरिक्त अन्य कोई भी इस ताले को नहीं खोल सकता।
उदार – महामना – उदार हृदय वाले अब बहुत कम हैं।
उधार – कर्ज़ – मैंने सुमित से एक लाख रुपए उधार लिए हैं।
(1) किसान की दिनचर्या की जो बातें अपको अच्छी लगती हैं, उनकी सूची बनाएँ।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(2) पंजाब के किसान के जीवन से संबंधित ‘वैशाखी’ त्योहार के कुछ चित्र संकलित करके अपने स्कूल की भित्ति पत्रिका पर लगाएँ।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(3) किसान को अन्नदाता कहा जाता है। हरित क्रांति में किसानों के योगदान के विषय में जानकारी हासिल करें।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(4) कविता को कंठस्थ करके उसका सस्वर वाचन करें।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(1) साकेत ‘साकेत’ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी का खड़ी बोली का प्रथम राम महाकाव्य है। ‘साकेत’ अयोध्या का ही पौराणिक नाम है एवं काव्य के कथानक का परिचायक है। बौद्ध साहित्य में भी साकेत का उल्लेख मिलता है। गुप्तकाल में साकेत तथा अयोध्या दोनों नामों का प्रयोग मिलता है। संस्कृत साहित्य में कालिदास ने ‘रघुवंश’ में रघु की राजधानी को ‘साकेत’ कहा है |
यद्यपि गुप्त जी द्वारा रचित ‘साकेत’ रामकथा पर आधारित रचना है तथापि इसके केंद्र में उर्मिला ही है। सीता जी तो रामचंद्र जी के साथ वन को चली गयीं किंतु उर्मिला अपने पति लक्ष्मण के साथ न जा सकीं। इसी विरह की पीड़ा को जिस प्रकार साकेत के नवम् सर्ग में गुप्त जी ने दिखाया है, वैसा चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है। इसी कारण यह एक अमर कृति है। यह रचना भावपक्ष एवं कला पक्ष दोनों रूपों से आधुनिक हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
(2) ‘साकेत’ का रेडियो रूपांतर : डॉ० प्रेम जनमेजय जी ने मैथिलीशरण गुप्त जी की रचना ‘साकेत’ का रेडियो नाट्य रूपांतर भी किया है जो इंटरनेट पर उपलब्ध है।
(3) भाव साम्यता : किसान के जीवन पर हिंदी के कुछ अन्य कवियों ने भी कविताएँ लिखी हैं।
‘राम कुमार वर्मा’ की ‘ ग्राम देवता’ तथा माखन लाल चतुर्वेदी की ‘ये अनाज की पूलें तेरे काँधे झूलें’ का एक एक पद्यांश विद्यार्थियों की जानकारी के लिए दिया जा रहा है। विद्यार्थी चाहें तो बाकी की कविता इंटरनेट से प्राप्त कर इसका आनंद लें-
(1) ग्राम देवता
हे ग्राम देवता। नमस्कार।
सोने चाँदी से नहीं किंतु
तुमने मिट्टी से किया प्यार
हे ग्राम देवता नमस्कार॥
राम कुमार वर्मा
(2) ये अनाज की पूलें तेरे काँधे झूलें
ये उगी बिन उगी फसलें
तेरी प्राण कहानी
हर रोटी ने, रक्त बूँद ने
तेरी छवि पहचानी।
वायु तुम्हारी उज्ज्वल गाथा
सूर्य तुम्हारा रथ है
बीहड़ काँटो भरा कीचमय
एक तुम्हारा पथ है॥
माखन लाल चतुर्वेदी