कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’
(सन् 1906-1995)
कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर का जन्म 29 मई, 1906 ई में सहारनपुर जिला के देवबंद गाँव में हुआ था। प्रारंभ से ही राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यों में गहरी दिलचस्पी लेने के कारण आपको अनेक बार जेल यात्रा करनी पड़ी। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आपने बराबर कार्य किया है। ‘ज्ञानोदय’ का आप संपादन कर चुके हैं। आपने अपने लेखन के अतिरिक्त अपने वैयक्तिक स्नेह और संपर्क से भी हिंदी के अनेक नए लेखकों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया है। 9 मई, 1995 को उनका देहावसान हो गया।
रचनाएँ – प्रभाकर की अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें ‘नयी पीढ़ी नए विचार’, ‘ज़िंदगी मुस्करायी’, माटी हो गयी सोना’, आपके रेखाचित्रों के संग्रह हैं। ‘आकाश के तारे”, “धरती के फूल’ प्रभाकर जी की लघु कहानियों के संग्रह का शीर्षक है। ‘दीप जले शंख बजे’ में जीवन में छोटे पर अपने आप में बड़े व्यक्तियों के संस्मरणात्मक रेखाचित्रों का संग्रह है। ‘ज़िंदगी मुस्करायी’ तथा ‘बाजे पायलिया के घुंघरू’ नामक संग्रहों में आपके कतिपय छोटे प्रेरणादायक ललित निबंध संगृहीत हैं। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने इन्हें ‘शैलियों का शैलीकार कहा था।
पाठ-परिचय :
प्रस्तुत निबंध ‘मैं और मेरा देश’ में लेखक ने बहुत ही रोचक ढंग से देश के प्रति हमारे कर्त्तव्य-बोध को चित्रित करते हुए उसके सम्मान और उत्थान के लिए कार्य करने को प्रेरित किया है। हमें मात्र अपनी सुविधाओं से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, अपितु यह देखना और जानना अधिक आवश्यक है कि हमारे देश को किस चीज़ की आवश्यकता है अथवा उसे कैसे सम्मानीय अवस्था में पहुँचाया जा सकता है। लेखक ने कुछ रोचक घटनाओं द्वारा इन्हीं तथ्यों को साक्षात् स्वरूप दिया है।
मैं और मेरा देश
मैं अपने घर में जन्मा था, पला था।
अपने पड़ोस में खेलकर, पड़ोसियों की ममता- दुलार पा बड़ा हुआ था।
अपने नगर में घूम-फिरकर वहाँ के विशाल समाज का संपर्क पा, वहाँ के संचित ज्ञान-भंडार का उपयोग कर, उसे अपनी सेवाओं का दान दे, उसकी सेवाओं का सहारा पा और इस तरह एक मनुष्य से एक भरा-पूरा नगर बन कर मैं खड़ा हुआ था।
मैं अपने नगर के लोगों का सम्मान करता था, वे भी मेरा सम्मान करते थे।
मुझे बहुतों की अपने लिए जरूरत पड़ती थी। मैं भी बहुतों की ज़रूरत का उनके लिए जवाब था।
इस तरह मैं समझ रहा था कि मैं अपने में अब पूरा हो गया हूँ, पूरा फैल गया हूँ, पूरा मनुष्य हो गया हूँ।
मैं सोचा करता था कि मेरी मनुष्यता में अब कोई अपूर्णता नहीं रही, मुझे अब कुछ न चाहिए, जो चाहिए, वह सब मेरे पास है मेरा घर, मेरा पड़ोस, मेरा नगर और मैं वाह, कैसी सुंदर कैसी संगठित और कैसी पूर्ण है मेरी स्थिति।
एक दिन आनंद की इस दीवार में एक दरार पड़ गई और तब मुझे सोचना पड़ा कि अपने घर, अपने पड़ोस, अपने नगर की सीमाओं में ममता, सहारा, ज्ञान और आनंद के उपहार पाकर भी मेरी स्थिति एकदम हीन है और हीन भी इतनी कि मेरा कहीं भी कोई अपमान कर सकता है-एक मामूली अपराधी की तरह और मुझे यह भी अधिकार नहीं कि मैं उस अपमान का बदला लेना तो दूर रहा, उसके लिए कहीं अपील या दया-प्रार्थना ही कर सकूँ।
“क्या कोई भूकंप आया था, जिससे दीवार में यह दरार पड़ गई?”
बड़े महत्त्व का प्रश्न है। इस अर्थ में भी कि यह बात को खिलने का, आगे बढ़ने का अवसर देता है और इस अर्थ में भी कि ठीक समय पर पूछा गया है। ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने में एक अपूर्व आनंद आता है, तो उत्तर यह है आपके प्रश्न का जी हाँ, एक भूकंप आया था, जिससे दीवार में यह दरार पड़ गई और लीजिए आपको कोई नया प्रश्न न पूछना पड़े, इसलिए मैं अपनी ओर से ही कह दे रहा हूँ कि यह दीवार थी मानसिक विचारों की, मानसिक विश्वासों की। इसलिए यह भूकंप भी किसी प्रांत या प्रदेश में नहीं उठा, मेरे मानस में ही उठा था।
“मानस में भूकंप उठा था।”
हाँ, जी, मानस में भूंकप उठा था और भूकंप में कहीं कोई धरती थोड़े ही हिली थी, आकाश थोड़े ही काँपा था, एक तेजस्वी पुरुष का अनुभव ही वह भूकंप था, जिसने मुझे हिला दिया।
वे तेजस्वी पुरुष थे- स्वर्गीय पंजाब केसरी लाला लाजपतराय अपने महान राष्ट्र की पराधीनता के दीन दिनों में जिन लोगों ने अपने रक्त से गौरव के दीपक जलाए और जो घोर अंधकार और भयंकर बवंडरों के झकझोरों में जीवन भर खेल, उन दीपको को बुझने से बचाते रहे, उन्हीं में एक थे हमारे लाला जी उनकी कलम और वाणी दोनों में तेजस्विता की ऐसी किरणें थीं कि वे फूटतीं, तो अपने मुग्ध हो जाते और पराए भौचक!
वे उन्हीं दिनों सारे संसार में घूमे थे। उनके व्यक्तित्व के गठन में उनके परिवार, उनके पास- पड़ोस और उनके नगर ने अपने सर्वोत्तम रत्नों की जोत उन्हें भेंट दी थी। अजी क्या बात थी उनके व्यक्तित्व की। क्या देखने में, क्या सुनने में, वे एक अपूर्व मनुष्य थे। कौन था भला ऐसा, जिस पर वे मिलते ही छान जाते। संसार के देशों में घूम कर वे अपने देश में लौटे, तो उन्होंने अपना सारा अनुभव एक ही वाक्य में भरकर बखेर दिया। वह अनुभव ही तो वह भूकंप था, जिसने मेरी पूर्णता की उसक की अपूर्णता की कसक में बदल दिया।
उनका अनुभव यह था “मैं अमेरिका गया, इंग्लैंड गया, फ्रांस गया और संसार के दूसरे देशों में भी घूमा, पर जहाँ भी मैं गया, भारतवर्ष की गुलामी की लज्जा का कलंक मेरे माथे पर लगा रहा।” क्या सचमुच यह अनुभव एक मानसिक भूकंप नहीं हैं, जो मनुष्य को झकझोरकर कहे कि मनुष्य के पास संसार एक ही नहीं, यदि स्वर्ग के भी सब उपहार और साधन हों, पर उसका देश गुलाम हो या किसी भी दूसरे रूप में हीन हो, तो वे सारे उपहार और साधन उसे गौरव नहीं दे सकते।
इस अनुभव की छाया में मैं सोचता हूँ कि मेरा यह कर्तव्य है कि मुझे निजी रूप में सारे संसार का राज्य भी क्यों न मिलता हो, मैं कोई ऐसा काम न करूँ, जिससे मेरे देश की स्वतंत्रता को, दूसरे शब्दों में उसके सम्मान को धक्का पहुँचे, उसकी किसी भी प्रकार की शक्ति की कमी आए। साथ ही उसके एक नागरिक के रूप में मेरा यह अधिकार भी है कि अपने देश के सम्मान का पूरा-पूरा भाग मुझे मिले और उसकी शक्तियों से अपने सम्मान की रक्षा का मुझे, जहाँ भी मैं हूँ, भरोसा रहे।
अजी भला एक आदमी अपने इतने बड़े देश के लिए कर ही क्या सकता है? फिर कोई बड़ा वैज्ञानिक हो, तो वह अपने आविष्कारों से ही देश को कुछ बल दे दे या फिर कोई बहुत बड़ा धनपति हो, तो वह अपने धन का भामाशाह की तरह समय पर त्याग कर ही देश के काम आ सकता है, पर हरेक आदमी न तो ऐसा वैज्ञानिक ही हो सकता है, न धनिक ही। फिर जो बेचारा अपनी ही दाल- रोटी की फ्रिक में लगा हुआ हो, वह अपने देश के लिए चाहते हुए भी क्या कर सकता है?
आपका प्रश्न विचारों की उत्तेजना देता है, इसमें संदेह नहीं, पर इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इसमें जीवन – शास्त्र का घोर अज्ञान भी भरा हुआ है। अरे भाई, जीवन कोई आपके मुन्ने की गुड़िया थोड़े ही है कि आप कह सकें कि बस यह है, इतना ही है। वह तो एक विशाल समुद्र का तट है, जिस पर हरेक अपने लिए स्थान पा सकता है।
लो, एक और बात बताता हूँ आपको जीवन को दर्शन शास्त्रियों ने बहुमुखी बताया है, उसकी अनेक धाराएँ हैं। सुना नहीं आपने कि जीवन एक युद्ध है और युद्ध में लड़ना ही तो कोई एक काम नहीं होता। लड़ने वालों को रसद न पहुँचे, तो वे कैसे लड़ें? किसान ठीक खेती न उपजाएँ तो रसद पहुँचाने वाले क्या करें और लो, जाने दो बड़ी-बड़ी बातें, युद्ध में जय बोलने वालों का भी महत्त्व है।
“जय बोलने वालों का?”
हाँ जी, युद्ध में जय बोलने वालों का भी बहुत महत्त्व है। कभी मैच देखने का तो अवसर मिला ही होगा आपको? देखा नहीं आपने कि दर्शकों की तालियों से खिलाड़ियों के पैरों में बिजली लग जाती है और गिरते खिलाड़ी उभर जाते हैं। कवि सम्मेलनों और मुशायरों की सारी सफलता दाद देने वालों पर ही निर्भर करती है। इसलिए मैं अपने देश का कितना भी साधारण नागरिक क्यों न हूँ, अपने देश के सम्मान की रक्षा के लिए बहुत कुछ कर सकता हूँ। “अकेला चना क्या भाड़ फोड़े।” यह कहावत मैं अपने अनुभव के आधार पर ही आपसे कह रहा हूँ कि सौ फीसदी झूठ है। इतिहास साक्षी है, बहुत बार अकेले चने ने ही भाड़ फोड़ा है और ऐसा फोड़ा है कि भाड़ खील- खील ही नहीं हो गया, उसका निशान तक ऐसा छूमंतर हुआ कि कोई यह भी न जान पाया कि वह बेचारा आखिर था कहाँ?
मैं जानता हूँ इतिहास की गहराइयों में उतरने का यह समय नहीं है, पर दो छोटी कहानियाँ तो सुन ही सकते हैं आप। और कहानियाँ भी न प्रेमचंद की, न एँटन चेखोव की, दो युवकों के जीवन की दो घटनाएँ हैं, पर उन दो घटनाओं में वह गाँठ इतनी साफ है, जो नागरिक और देश को एक साथ बाँधती है कि आप बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़कर भी उसे इतनी साफ नहीं देख सकते।
हमारे देश के महान संत स्वामी रामतीर्थं एक बार जापान गए। वे रेल में यात्रा कर रहे थे कि एक दिन ऐसा हुआ कि उन्हें खाने को फल न मिले और उन दिनों फल ही उनका भोजन था। गाड़ी एक स्टेशन पर ठहरी, तो वहाँ भी उन्होंने फलों की खोज की पर वे पा न सके। उनके मुँह से निकला, “जापान में शायद अच्छे फल नहीं मिलते।”
एक जापानी युवक प्लेटफार्म पर खड़ा था। वह अपनी पत्नी को रेल में बैठाने आया था, उसने ये शब्द सुन लिए। सुनते ही वह अपनी बात बीच में ही छोड़कर भागा और कहीं दूर से एक टोकरी ताजे फल लाया। वे फल उसने स्वामी रामतीर्थ को भेंट करते हुए कहा, “लीजिए, आपको ताज़े फलों की ज़रूरत थी।
स्वामी जी ने समझा यह कोई फल बेचने वाला है और उनके दाम पूछे पर उसने दाम लेने से इन्कार कर दिया। बहुत आग्रह करने पर उसने कहा, “आप इनका मूल्य देना ही चाहते हैं तो वह यह हैं कि आप अपने देश में जाकर किसी से यह न कहिएगा कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।”
इस गौरव की ऊँचाई का अनुमान आप दूसरी घटना सुनकर ही पूरी तरह लगा सकेंगे। एक दूसरे देश का निवासी एक युवक जापान में शिक्षा लेने आया। एक दिन वह सरकारी पुस्तकालय से कोई पुस्तक पढ़ने को लाया। इस पुस्तक में कुछ दुर्लभ चित्र थे। ये चित्र इस युवक ने पुस्तक में से निकाल लिए और पुस्तक वापस कर आया। किसी जापानी विद्यार्थी ने यह देख लिया और पुस्तकालय को उसकी सूचना दे दी। पुलिस ने तलाशी लेकर वे चित्र उस विद्यार्थी के कमरे से बरामद किए और उस विद्यार्थी को जापान से निकाल दिया गया।
मामला यहीं तक रहता, तो कोई बात न थी। अपराधी को दंड मिलना ही चाहिए पर मामला यहीं तक नहीं रुका और उस पुस्तकालय के बाहर बोर्ड पर लिख दिया गया कि उस देश का (जिसका वह विद्यार्थी था) कोई निवासी इस पुस्तकालय में प्रवेश नहीं कर सकता।
मतलब साफ है, एक दम साफ कि जहाँ एक युवक ने अपने काम से अपने देश का सिर ऊँचा किया था, वहीं एक युवक ने अपने काम से अपने देश के मस्तक पर कलंक का ऐसा टीका लगाया, जो जाने कितने वर्षों तक संसार की आँखों में उसे लांछित करता रहा।
इन घटनाओं से क्या यह स्पष्ट नहीं है कि हरेक नागरिक अपने देश के साथ बँधा हुआ है और देश की हीनता और गौरव का फल उसे ही नहीं मिलता, उसकी हीनता और गौरव का फल उसके देश को भी मिलता है।
मैं अपने देश का एक नागरिक हूँ और मानता हूँ कि मैं ही अपना देश हूँ। जैसे मैं अपने लाभ और सम्मान के लिए हरेक छोटी-छोटी बात पर ध्यान देता हूँ, वैसे ही मैं अपने देश के लाभ और सम्मान के लिए भी छोटी-छोटी बात पर ध्यान दूँ, यह मेरा कर्त्तव्य है और जैसे मैं अपने सम्मान और साधनों से अपने जीवन में सहारा पाता हूँ, वैसे ही देश के सम्मान और साधनों से ही सहारा पाऊँ, यह मेरा अधिकार है। बात यह है कि मैं और मेरा देश दो अलग चीज़ तो हैं ही नहीं।
मैंने जो कुछ जीवन में अध्ययन और अनुभव से सीखा है, वह यही है कि महत्त्व किसी कार्य की विशालता में नहीं है, उस कार्य के करने की भावना में है। बड़े से बड़ा कार्य हीन है, यदि उसके पीछे अच्छी भावना नहीं है और छोटे से छोटा कार्य भी महान है, यदि उसके पीछे अच्छी भावना है।
महान कमालपाशा उन दिनों अपने देश तुर्की के राष्ट्रपति थे। राजधानी में उनकी वर्षगाँठ बहुत धूमधाम से मनाई गई। देश के लोगों ने उस दिन लाखों रुपए के उपहार उन्हें भेंट किए। वर्षगाँठ का उत्सव समाप्त कर जब वे अपने भवन के ऊपर चले गए तो एक देहाती बूढ़ा उन्हें वर्षगाँठ का उपहार भेंट करने आया। सेक्रेटरी ने कहा, “अब तो समय बीत गया है।” बूढ़े ने कहा, “मैं तीस मील से पैदल चलकर आ रहा हूँ, इसलिए मुझे देर हो गई।”
राष्ट्रपति तक उसकी सूचना भेजी गई। कमालपाशा विश्राम के वस्त्र बदल चुके थे। वे उन्हीं कपड़ों के नीचे चले आए और उन्होंने आदर के साथ बढ़े किसान का उपहार स्वीकार किया। यह उपहार मिट्टी की छोटी-सी हँडिया में पाव भर शहद था, जिसे बूढ़ा स्वयं तोड़कर लाया था। कमालपाशा ने हँडिया को स्वयं खोला और उसमें दो उँगलियाँ भरकर चाटने के बाद तीसरी ऊँगली शहद से भरकर बूढ़े के मुँह में दे दी। बूढ़ा निहाल हो गया।
राष्ट्रपति ने कहा, “दादा, आज सर्वोत्तम उपहार तुमने ही मुझे भेंट किया, क्योंकि इसमें तुम्हारे हृदय का शुद्ध प्यार है।” उन्होंने आदेश दिया कि राष्ट्रपति की शाही कार में शाही सम्मान के साथ उनके दादा को गाँव तक पहुँचाया जाए। क्या वह शहद बहुत कीमती था? क्या उसमें मोती- हीरे मिले हुए थे? न, उस शहद के पीछे उसके लाने वाले की भावना थी, जिसने उसे सौ लालों का एक लाल बना दिया।
हमारे देश में भी एक ऐसी ही घटना घटी थी। एक किसान ने रंगीन सुतलियों से एक खाट बुनी और उसे रेल में रखकर वह दिल्ली लाया। दिल्ली स्टेशन से उस खाट को अपने कंधे पर रख, वह भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की कोठी पर पहुँचा। पंडित जी कोठी से बाहर आए तो वह खाट उसने उन्हें दी। पंडित जी को देखकर, वह इतना भाव-मुग्ध हो गया कि कुछ कह ही न सका। पंडित जी ने पूछा, “क्या चाहते हो तुम?”
उसने कहा, “यही कि आप इसे स्वीकार करें।” प्रधानमंत्री ने उसका यह उपहार प्यार से स्वीकार किया और अपना एक फोटो दस्तखत करके उसे स्वयं भी उपहार में दिया। जिस दस्तख़ती फोटो के लिए देश के बड़े-बड़े लोग, विद्वान और धनी तरसते हैं, वह क्या उस मामूली खाट के बदले में दिया गया था? न, वह तो उस खाट वाले की भावना का ही सम्मान था।
क्यों जी, हम यह कैसे जान सकते हैं कि हमारा काम देश के अनुकूल है या नहीं?”
वाह, क्या सवाल पूछा है, आपने। सवाल क्या, बातचीत में आपने तो एक कीमती मोती ही जड़ दिया यह, पर इसके उत्तर में सिर्फ़ “हाँ” या “न” से काम न चलेगा। मुझे थोड़ा विवरण देना पड़ेगा।
हम अपने कार्यों को देश के अनुकूल होने की कसौटी पर कस कर चलने की आदत डालें, यह बहुत उचित है, बहुत सुंदर है, पर हम इसमें तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक कि हम अपने देश की भीतरी दशा को ठीक-ठीक न समझ लें और उसे हमेशा अपने सामने न रखें।
हमारे देश को दो बातों की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत है। एक शक्ति-बोध और दूसरा सौंदर्य-बोध! बस, हम यह समझ लें कि हमारा कोई भी काम ऐसा न हो जो देश में कमज़ोरी की भावना को बल दे या कुरुचि की भावना को।
‘ज़रा अपनी बात को और स्पष्ट कर दीजिए।” यह आपकी राय है और मैं इससे बहुत ही खुश हूँ कि आप मुझसे यह स्पष्टता माँग रहे हैं क्या आप चलती रेलों में, मुसाफिरखानों में, क्लबों में, चौपालों पर और मोटर बसों में कभी ऐसी चर्चा करते हैं कि हमारे देश में यह नहीं हो रहा है, वह नहीं हो रहा है और यह गड़बड़ है, वह परेशानी है। साथ ही क्या इन स्थानों में या इसी तरह के दूसरे स्थानों में आप कभी अपने देश के साथ दूसरे देशों की तुलना करते हैं और इस तुलना में अपने देश को हीन और दूसरे देशों को श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं।
यदि इन प्रश्नों का उत्तर हाँ हैं, तो आप देश के शक्ति-बोध को भयंकर चोट पहुँचा रहे हैं और आपके हाथों देश के सामूहिक मानसिक बल का ह्रास हो रहा है। सुनी है आपने शल्य की बात। वह महाबली कर्ण का सारथी था। जब भी कर्ण अपने पक्ष की विजय की घोषणा करता, हुँकार भरता, वह अर्जुन की अजेयता का एक हलका-सा उल्लेख कर देता। बार-बार इस उल्लेख ने कर्ण के सघन आत्मविश्वास में संदेह की तरेड़ डाल दी, जो उसके भावी पराजय की नींव रखने में सफल हो गई।
अच्छा, आप इस तरह की चर्चा कभी नहीं करते, तो मैं आपसे दूसरा प्रश्न पूछता हूँ। क्या आप कभी केला खाकर छिलका रास्ते में फेंकते हैं? अपने घर का कूड़ा बाहर फेंकते हैं? मुँह में गंदे शब्दों से गंदे भाव प्रकट करते हैं? इधर की उधर, उधर की इधर लगाते हैं? अपना घर, दफ्तर, गली, गंदा रखते हैं? होटलों, धर्मशालाओं में या दूसरे ऐसे ही स्थानों में, जीनों में, कोनों में पीक थूकते हैं। उत्सवों, मेलों, रेलों और खेलों में ठेलमठेल करते हैं, निमंत्रित होने पर समय से लेट पहुँचते हैं यह वचन देकर भी घर आने वालों को समय पर नहीं मिलते और इसी तरह किसी भी रूप में क्या सुरुचि और सौंदर्य को आपके किसी काम से ठेस लगती है?
यदि आपका उत्तर हाँ है, तो आपके द्वारा देश के सौंदर्य-बोध को भयंकर आघात लग रहा है और आपके द्वारा देश की संस्कृति को गहरी चोट पहुँच रही है।
“क्या कोई ऐसी कसौटी भी बनाई जा सकती है, जिससे देश के नागरिकों को आधार बनाकर देश की उच्चता और हीनता को हम तोल सकें।”
लीजिए चलते-चलते आपको इस प्रश्न का भी उत्तर दे ही दूँ। इस उच्चता और हीनता की कसौटी है, चुनाव।
जिस देश के नागरिक यह समझते है कि चुनाव में किसे अपना मत देना चाहिए और किसे नहीं, वह देश उच्च है और जहाँ के नागरिक गलत लोगों के उत्तेजक नारों या व्यक्तियों के गलत प्रभाव में आकर मत देते हैं, वह हीन हैं।
इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि मेरा, यानि हरेक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह जब भी कोई चुनाव हो, ठीक मनुष्य को अपना मत दें और मेरा अधिकार है कि मेरा मत लिए बिना कोई भी आदमी, वह संसार का सर्वश्रेष्ठ महापुरुष ही क्यों न हो, किसी अधिकार की कुर्सी पर न बैठ सके।
शब्दार्थ-
संचित – एकत्रित किया हुआ
दुर्लभ – कठिनता से प्राप्त होने वाला
संगठित – एकत्रित, जोड़ा हुआ
हीन – तुच्छ, नगण्य
लांछित – कलंकित
भूकंप – भूचाल
विश्राम – आराम
बवंडर – आँधी -तूफान
हँडिया – एक तरह की मिट्टी का बर्तन
भौचक – हक्का बक्का, हैरान
निहाल – प्रसन्न एवं संतुष्ट
ठसक – अभिमान, गर्व
खाट – चारपाई,
कसक – रुक-रुक कर होने वाली पीड़ा, टीस
दस्तखत – हस्ताक्षर
विवरण – व्याख्या
लज्जा – शर्म, लाज,
कसौटी – परख, जाँच
गौरव – आदर, सम्मान:
ह्रास – कमी, अभाव,
धनिक – धनवान व्यक्ति
संदेह – शंका
मुशायरों – उर्दू फारसी का कवि सम्मेलन
तरेड़ – दरार
जीनों में – सीढ़ियों में
साक्षी – गवाही देने वाला
ठेलमठेल – धक्कम धक्का
आग्रह – हठ, हठपूर्वक प्रार्थना
उत्तेजक – भड़काने वाला
अभ्यास
(क) विषय-बोध
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए:
1. लेखक को अपनी पूर्णता का बोध कब हुआ?
2. मानसिक भूकंप से क्या अभिप्राय है?
3. किस तेजस्वी पुरुष के अनुभव ने लेखक को हिला दिया?
4. मनुष्य के लिए संसार के सारे उपहारों और साधनों को व्यर्थ क्यों कहा?
5. युद्ध में ‘जय’ बोलने वालों का क्या महत्त्व है?
6. दर्शकों की तालियाँ खिलाड़ियों पर क्या प्रभाव डालती हैं?
7. जापान के स्टेशन पर स्वामी रामतीर्थ क्या ढूंढ़ रहे थे?
8. कमालपाशा कौन थे?
9. बूढ़े किसान ने कमालपाशा को क्या उपहार दिया?
10. किसान ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को क्या उपहार दिया?
11. लेखक के अनुसार हमारे देश को किन दो बातों की आवश्यकता है?
12. शल्य कौन था?
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर तीन या चार पंक्तियों में दीजिए
1. लाला लाजपतराय के किस अनुभव ने लेखक की पूर्णता को अपूर्णता में बदल
दिया?
2. स्वामी रामतीर्थ द्वारा फलों की टोकरी का मूल्य पूछने पर जापानी युवक ने क्या कहा?
3. किसी देश के विद्यार्थी ने जापान में ऐसा कौन सा काम किया जिससे उसके देश के माथे पर कलंक का टीका लग गया?
4. लेखक के अनुसार कोई भी कार्य महान कैसे बन जाता है?
5. शल्य ने कौन-सा महत्त्वपूर्ण कार्य किया? पाठ के आधार पर लिखिए।
6. शक्ति-बोध और सौंदर्य-बोध से क्या तात्पर्य है? पाठ के आधार पर बताइए।
7. हम अपने देश के शक्ति-बोध को किस प्रकार चोट पहुँचाते हैं?
8. हम अपने देश के सौंदर्य-बोध को किस प्रकार चोट पहुँचाते हैं?
9. देश की उच्चता और हीनता की कसौटी क्या है?
III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर छह या सात पंक्तियों में दीजिए :-
1. लाला लाजपतराय जी ने देश के लिए कौन-सा महत्त्वपूर्ण कार्य किया? निबंध के आधार पर उत्तर दीजिए।
2. तुर्की के राष्ट्रपति कमालपाशा और भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से संबंधित घटनाओं द्वारा लेखक क्या संदेश देना चाहता है?
3. लेखक ने देश के नागरिकों को चुनावों में किन बातों की ओर ध्यान देने के लिए कहा है?
(ख) भाषा-बोध
I. निम्नलिखित शब्दों की भाववाचक संज्ञा बनाइए :-
शब्द भाववाचक संज्ञा
मनुष्य
पूर्ण
स्वतंत्र
उच्च
हीन
ऊँचा
लड़ना
गुलाम
व्यक्ति
पुरुष
II. निम्नलिखित शब्दों के विशेषण शब्द बनाइए :-
शब्द विशेषण
नगर
संसार
संस्कृति
परिवार
राष्ट्र
भारत
दया
घर
III. निम्नलिखित शब्दों के विपरीत शब्द लिखिए:
शब्द विपरीत शब्द
ज्ञान
अंधकार
जीवन
साधारण
स्वतंत्र
लाभ
सफल
पराजय
पक्ष
सम्मान
(ग) रचनात्मक अभिव्यक्ति
1. आप अपने देश के सम्मान और गरिमा को बनाए रखने में क्या योगदान दे सकते हैं? स्पष्ट कीजिए।
2. हम सभी अपने देश से जुड़े हुए है। हमारे अच्छे और बुरे कार्यों का प्रभाव देश पर पड़ता है। इस संदर्भ में अपने अध्ययन और अनुभव के आधार पर किसी घटना का वर्णन करें।
3. आप अपने विद्यालय में शक्तिबोध और सौंदर्य बोध कैसे ला सकते हैं? इस विषय पर कक्षा में चर्चा कीजिए।
4. सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा हम सब कैसे करें। इस विषय पर कक्षा में चर्चा कीजिए।
घ) पाठ्येतर सक्रियता
I.
1. लाला लाजपत राय के जन्मदिन और पुण्यतिथि पर इनके बारे में अपने विचार विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रस्तुत करें।
2. ‘अकेला चना क्या भाड़ फोड़ेगा’ कहावत को शत प्रतिशत झूठ सिद्ध करने वाले देश भक्तों / महान पुरुषों के चित्र एकत्रित कर कक्षा पत्रिका तैयार कीजिए।
II. निम्नलिखित प्रेरक-प्रसंगों का कक्षा में मंचन कीजिए:
1. स्वामी रामतीर्थ और जापानी युवक का प्रसंग।
2. पंडित जवाहर लाल नेहरू और किसान का प्रसंग।
3. तुर्की के राष्ट्रपति और बूढ़े किसान का प्रसंग।
4. कर्ण और शल्य का प्रसंग।
(ङ) ज्ञान – विस्तार
भामाशाह :- (1542- लगभग 1598) भामाशाह बाल्यकाल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। आपको मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम था और दानवीरता के लिए आप का नाम इतिहास में अमर है। आपके पास बहुत बड़ी मात्रा में धन-सम्पत्ति थी जो आपने मेवाड़ के उद्धार के लिए महाराणा प्रताप को समर्पित कर दी थी। भामाशाह के प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ। उन्होंने पुनः सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित कर फिर मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया।
कर्ण- कर्ण महाभारत के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक हैं। उनकी वास्तविक माँ कुंती थी। वे दुर्योधन के सबसे अच्छे मित्र थे और महाभारत के युद्ध में वे अपने भाइयों के विरुद्ध लड़े। उन्हें सूर्य पुत्र के रूप में जाना जाता था। वे एक महान दानी थे।
शल्य- शल्य माद्रा (मद्रयदेश) के राजा जो पांडु के सगे साले व नकुल सहदेव के मामा थे, परंतु महाभारत में इन्होंने पांडवों का साथ नहीं दिया और कर्ण के सारथी बन गए थे। कर्ण की मृत्यु पर युद्ध के अंतिम दिन इन्होंने कौरव सेना का नेतृत्व किया और उसी दिन युधिष्ठिर के हाथों मारे गए। इनकी बहन माद्री, कुंती की सौत थी और पांडु के शव के साथ चिता पर जीवित भस्म हो गई थी।
चेखोव – एंटोन पाब्लोविच चेखोव एक रूसी चिकित्सक, कथाकार और नाटककार थे। चेखोव अपने साहित्यिक जीवन के दिनों में ज्यादातर चिकित्सा के व्यवसाय में लगे रहे। वे कहते थे चिकित्सा मेरी धर्मपत्नी है और साहित्य प्रेमिका।
कमालपाशा- अतातुर्क उर्फ मुस्तफा कमालपाशा (1881-1938) को आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है। तुर्की के साम्राज्यवादी शासक सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय का पासा पलट कर वहाँ कमाल की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था कायम करने का जो क्रांतिकारी कार्य उन्होंने किया, उस ऐतिहासिक कार्य ने उनके नाम को सार्थक सिद्ध कर दिया।