Punjab Board, Class X, Hindi Pustak, The Best Solution Mamta, Jayshankar Prasad, ममता, जयशंकर प्रसाद

(सन् 1889-1937)

जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में सन् 1889 में हुआ स्कूल में आपने केवल आठवीं श्रेणी तक शिक्षा पाई। तत्पश्चात् घर पर ही संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी आदि भाषाओं तथा उनके साहित्य का ज्ञान अपनी लग्न से प्राप्त किया। आप उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, आलोचक, निबंधकार तथा कवि होने के साथ-साथ उच्चकोटि के दार्शनिक विद्वान थे। सन् 1937 में अल्पायु में ही आपकी मृत्यु हो गई।

प्रसाद जी की प्रतिभा का ज्वलंत उदाहरण इनके काव्य, उपन्यास, नाटक, कहानी और निबंध आदि में मिलता है। इनकी सबसे पहली कविता ‘भारतेन्दु’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद ‘इन्दु’ नामक पत्रिका का प्रकाशन इन्होने स्वयं शुरू किया। प्रसाद जी के प्रमुख नाटक अजातशत्रु, स्कन्दगुप्त, चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी हैं। कंकाल, तितली और इरावती (अधूरा) आदि उपन्यास हैं। आँधी, इंद्रजाल, प्रतिध्वनि, छाया और आकाशदीप इनके कहानी संग्रह हैं। प्रसाद जी की अमर कृति ‘कामायनी’ महाकाव्य है, जो उनकी कीर्ति का आलोक स्तंभ है। अन्य काव्य संग्रह हैं- आँसू, झरना और लहर।

कोमल भाव, परिमार्जित भाषा और कलापूर्ण शैली की दृष्टि से आपकी कहानियाँ साहित्य में एक विशेष स्थान रखती हैं। कवि होने के कारण आपकी कहानियों में कल्पना और भावुकता की अधिकता है। आपकी अधिकतर कहानियाँ ऐतिहासिक हैं। दार्शनिक होने के कारण आपने कहानी के क्षेत्र में प्रेमचंद से भिन्न शैली का अनुसरण किया। कहानी साहित्य में आपका एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।

‘ममता’ जयप्रसाद प्रसाद की एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक कहानी है। इस कहानी की गिनती हिंदी साहित्य की कालजयी कहानियों में होती है। इस कहानी में प्रसाद जी ने एक विधवा ब्राह्मणी के चरित्र के माध्यम से एक ओर रिश्वत लेने का विरोध किया है तो दूसरी और भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्श ‘अतिथि देवो भव’ को बड़ी ही खूबसूरती के साथ दिखाया है।

ममता रोहतास दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की पुत्री थी। एक दिन उसके पिता अपने अनुचरों के साथ सोने से भरे थाल लेकर ममता के कमरे में आए। ममता इतना सारा सोना देखकर चौंक पड़ी और उसने अपने पिता से कहा कि इतना सोना कहां से आया तो उन्होंने कहा कि तुम चुप करो। ममता को समझने में देर नहीं लगी कि उसके पिता जी ने म्लेच्छों से रिश्वत ली है। उसे अच्छा नहीं लगा तो उसके पिता ने कहा कि पतनोन्मुख प्राचीन सामंत वंश का अंत समीप है, इसीलिए जब मंत्रीत्व न रहेगा, यह सब तब के लिए हैं। ममता ने इस रिश्वत को ईश्वर के प्रति दुसाहस बताया। दूसरे ही दिन उसका पिता चूड़ामणि पठानों के हाथों मारा गया तथा राजा, रानी और खजाना शेरशाह के हाथ लगे, किंतु ममता भागने में सफल हो गयी और दूर कही खंडहर में रहने लगी।

एक दिन उसकी कुटिया में एक अपरिचित, प्यासे, थके-हारे सैनिक ने उससे आकर कहा, ‘माता! मुझे आश्रय चाहिए”। ममता पहले तो घबरायी किंतु फिर उसने सोचा कि अतिथि को आश्रय देना उसका कर्त्तव्य है। यह सोचकर उसने कहा कि तुम चाहे कोई हो मैं तुम्हें आश्रय देती हूँ। यह कहकर वह स्वयं पास की टूटी दीवारों में चली गयी। वास्तव में यह शरणार्थी और कोई नहीं अपितु हुमायूँ था। सुबह जब हुमायूँ को ढूँढ़ते उसके सैनिक वहाँ आए तो उसने सैनिकों से कहा कि उस स्त्री को खोजो जिसने मुझे आश्रय दिया था किंतु ममता भयभीत होकर छिपी रही। हुमायूँ ने अपने सैनिक से कहा कि मैं उसे कुछ नहीं दे सका, इसलिए तुम इसका घर बनवा देना। यह कहकर वे चल दिए। वर्षों बाद हुमायूँ के बेटे अकबर के सैनिक जब उस स्थान को ढूँढ़ते हुए आए तो ममता ने उन्हें कहा कि वह यह नहीं जानती कि वह शाहंशाह था कि साधारण मुगल पर वह इसी झोंपड़ी में रहा था और वह मेरा घर बनवाना चाहता था किंतु मैं झोंपड़ी खुदवाने के डर से भयभीत थी। उसने आगे कहा कि अब तुम यहाँ मकान बनवाओ या महल। यह कहकर उसके प्राण निकल गए। वहाँ फिर एक अष्टकोण मंदिर बना जिसमें लिखा था “सातों देशों के नरेश हुमायूँ ने एक दिन यहां विश्राम किया था। उनके पुत्र अकबर ने उसकी स्मृति में यह गगनचुंबी मंदिर बनवाया।” पर उसमें ममता का कहीं नाम न था।

इस प्रकार भ्रष्टाचार का विरोध, पथिक को आश्रय देना, परोपकार का बदला न चाहना आदि बातें इस कहानी की विशेषताएँ हैं। कहानी की भाषा संस्कृतनिष्ठ है, किंतु ग्राह्य है।

रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही थी। ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिए वह सुख के कंटक – शयन में विकल थी। वह रोहतास दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी। फिर उसके लिए कुछ अभाव का होना असंभव था, परंतु वह विधवा थी। हिंदू विधवा संसार में सबसे तुच्छ, निराश्रय प्राणी है तब विडम्बना का कहाँ अंत था?

चूड़ामणि ने चुपचाप उस प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में वह अपना जीवन मिलाने में बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेहपालिता पुत्री के लिए क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गए। ऐसा प्रायः होता, पर आज मंत्री के मन में बड़ी दुश्चिन्ता थी। पैर सीधे न पड़ते थे।

एक पहर रात बीत जाने पर फिर वे ममता के पास आये। उस समय उनके पीछे दस सेवक चाँदी के बड़े थालों में कुछ लिए खड़े थे, कितने ही मनुष्यों के पद-शब्द सुन ममता ने घूम कर देखा। मंत्री ने सब थालों के रखने का संकेत किया। अनुचर थाल रखकर चले गए।

ममता ने पूछा- “यह क्या हैं पिता जी?”

“तेरे लिए बेटी, उपहार है।” यह कहकर चूड़ामणि ने आवरण उलट दिया। सुवर्ण का पीलापन उस सुनहली संध्या में विकीर्ण होने लगा। ममता चौंक उठी…

“इतना स्वर्ण! यह कहाँ से आया?”

‘चुप रहो ममता! यह तुम्हारे लिए है।”

“तो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर लिया? पिताजी यह अर्थ नहीं अनर्थ है। लौटा दीजिए। पिता जी हम लोग ब्राह्मण हैं, इतना सोना लेकर क्या करेंगे?”

“इस पतनोन्मुख प्राचीन सामंत वंश का अंत समीप है, बेटी, किसी भी दिन शेरशाह रोहतास पर अधिकार कर सकता है। उस दिन मंत्रीत्व न रहेगा, तब के लिए बेटी!”

“हे भगवान्! तब के लिए! विपद् के लिए इतना आयोजन! परम पिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस? पिता जी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिंदू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके? असंभव है। फेर दीजिए पिता जी! मैं काँप रही हूँ इसकी चमक आँखों को अंधा बना रही हैं।”

‘मूर्ख है” कहकर चूड़ामणि चले गए।

दूसरे दिन जब डोलियों का तांता भीतर आ रहा था, ब्राह्मण मंत्री चूड़ामणि का हृदय धक् धक् करने लगा। वह अपने को न रोक सका। उसने जाकर रोहतास दुर्ग के तोरण पर डोलियों का आवरण खुलवाना चाहा। पठानों ने कहा- “यह महिलाओं का अपमान करना है।”

बात बढ़ गयी। तलवारें खिंचीं, ब्राह्मण मंत्री वहीं मारा गया और राजा, रानी तथा कोष सब छली शेरशाह के हाथ पड़े निकल गयी ममता। डोली में भरे हुए पठान सैनिक दुर्ग भर में फैल गए, पर ममता न मिली।

काशी के उत्तर धर्मचक्र बिहार मौर्य और गुप्त सम्राटों की कीर्ति का खंडहर था भग्नचूड़ा, तृणागुल्मों से ढके हुए प्राचीर ईटों के ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्प की विभूति, ग्रीष्म रजनी की चंद्रिका में अपने को शीतल कर रही थी।

जहाँ पंचवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिए पहले मिले थे, उसी स्तूप के भग्नावशेष की मलिन छाया में एक झोंपड़ी के दीपालोक में एक स्त्री पाठ कर रही थी-

“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

पाठ रुक गया। एक भीषण और हताश आकृति दीप के मंद प्रकाश में सामने खड़ी थी। स्त्री उठी, उसने कपाट बंद करना चाहा, परंतु व्यक्ति ने कहा-

‘माता! मुझे आश्रय चाहिए।”

“तुम कौन हो?” स्त्री ने पूछा।

मैं मुगल हूँ। चौसा- युद्ध में शेरशाह से विपन्न होकर रक्षा चाहता हूँ। इस रात अब आगे चलने में असमर्थ हूँ।”

क्या शेरशाह से?” स्त्री ने अपने होंठ काट लिए।

“हाँ, माता!

“परंतु तुम भी वैसे ही क्रूर हो। वहीं भीषण रक्त की प्यास, वही निष्ठुर प्रतिबिंब तुम्हारे मुख पर भी है। सैनिक मेरी कुटी में स्थान नहीं। जाओ, कहीं दूसरा आश्रय खोज लो।”

‘गला, सूख रहा है, साथी छूट गए हैं, अश्व गिर पड़ा है इतना थका हुआ हूँ, इतना!” कहते वह व्यक्ति धम से बैठ गया और उसके सामने ब्रह्मांड घूमने लगा। स्त्री ने सोचा, यह विपत्ति कहाँ से आयी उसने जल दिया। मुगल के प्राणों की रक्षा हुई। वह सोचने लगी-

‘सब विधर्मी दया के पात्र नहीं मेरे पिता का वध करने वाले आततायी।” घृणा से उसका मन विरक्त हो गया।

स्वस्थ होकर मुगल ने कहा-’माता! तो फिर मैं चला जाऊँ?’

स्त्री विचार कर रही थी- “मैं ब्राह्मण हूँ, मुझे तो अपने धर्म-अतिथि देव की उपासना का पालन करना चाहिए परंतु यहाँ …….. नहीं नहीं, यह सब विधर्मी दया के पात्र नहीं परंतु यह दया तो नहीं कर्त्तव्य करना है। तब?”

मुगल अपनी तलवार टेक कर उठ खड़ा हुआ। ममता ने कहा- “क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो।”

“छल। नहीं, तब नहीं स्त्री! जाता हूँ, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा। जाता हूँ, भाग्य का खेल है।”

ममता ने मन में कहा- “यहाँ कौन दुर्ग है। यही झोंपड़ी हैं, जो चाहे ले ले। मुझे तो अपना कर्त्तव्य करना पड़ेगा।” वह बाहर चली आयी और मुगल से बोली, “जाओ भीतर, थके हुए भयभीत पथिक! तुम चाहे कोई हो, मैं तुम्हें आश्रय देती हूँ। मैं ब्राह्मण कुमारी हूँ, सब अपना धर्म छोड़ दें तो मैं भी क्यों छोड़ दूँ?”

मुगल ने चंद्रमा के मंद प्रकाश में वह महिमामय मुखमंडल देखा। उसने मन ही मन नमस्कार किया। ममता पास की टूटी हुई दीवारों में चली गयी। भीतर थके पथिक ने झोंपड़ी में विश्राम किया। प्रभात में खंडहर की संधि से ममता ने देखा, सैकड़ों अश्वारोही उस प्रांत में घूम रहे हैं। वह अपनी मूर्खता पर अपने को कोसने लगी।

अब उस झोंपड़ी से निकल कर उस पथिक ने कहा- “मिरजा! मैं यहाँ हूँ।”

शब्द सुनते ही प्रसन्नता की चीत्कार ध्वनि से वह प्रांत गूंज उठा। ममता अधिक भयभीत हुई। पथिक ने कहा- “वह स्त्री कहाँ है? उसे खोज निकालो।” ममता छिपने के लिए अधिक सचेष्ट ‘हुई। वह मृगदाव में चली गयी। दिन भर उसमें से न निकली। संध्या को जब उनके जाने का उपक्रम हुआ, तो ममता ने सुना, पथिक घोड़े पर सवार होते हुए कह रहा था- “मिरजा! उस स्त्री को मैं कुछ भी न दे सका। उसका घर बनवा देना, क्योंकि विपत्ति में मैंने यहाँ आश्रय पाया था। यह स्थान भूलना मत।” इसके बाद वे चले गए।

चौसा के मुगल-पठान युद्ध को बहुत दिन बीत गए। ममता अब सत्तर वर्ष की वृद्धा हैं। वह अपनी झोंपड़ी में एक दिन पड़ी थी। शीतकाल का प्रभाव था। उसका जीर्ण कंकाल खाँसी से गूँज रहा था। ममता की सेवा के लिए गाँव की दो-तीन स्त्रियाँ उसे घेर कर बैठी थीं, क्योंकि वह आजीवन सब के सुख-दुख की सहभागिनी रही।

ममता ने जल पीना चाहा। एक स्त्री ने सीपी से जल पिलाया। सहसा एक अश्वारोही उसी झोंपड़ी के द्वार पर दिखायी पड़ा। वह अपनी धुन में कहने लगा- “मिरजा ने जो चित्र बनाकर दिया है, वह तो इसी जगह का होना चाहिए। वह बुढ़िया मर गई होगी। अब किससे पूछें कि एक दिन शाहंशाह हुमायूँ किस छप्पर के नीचे बैठे थे? यह घटना भी तो सैंतालीस वर्ष से ऊपर की हुई।”

ममता ने अपने विकल कानों से सुना। उसने पास की स्त्री से कहा- “उसे बुलाओ।”

अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक रुक कर कहा “मैं नहीं जानती कि वह शाहंशाह था या साधारण मुगल पर एक दिन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा था। मैंने सुना था, वह मेरा घर बनाने की आज्ञा दे गया था। मैं आजीवन अपनी झोंपड़ी खुदवाने के डर से भयभीत रही थी।”

भगवान ने सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जाती हूँ। अब तुम इसका मकान बनाओ या महल मैं अपने चिर विश्राम गृह में जाती हूँ।

वह अश्वारोही अवाक् खड़ा था। बुढ़िया के प्राण पक्षी अनंत में उड़ गए।

वहां एक अष्टकोण मन्दिर बना और उस पर शिलालेख लगाया गया-

“सातों देशों के नरेश हुमायूँ ने एक दिन यहाँ विश्राम किया था। उनके पुत्र अकबर ने उसकी स्मृति में यह गगनचुम्बी मंदिर बनवाया।”

पर उसमें ममता का कहीं नाम न था।

प्रकोष्ठ – महल के सदर फाटक के पास का कमरा, इमारत के भीतर का आँगन

शोण – सोन नदी

वेदना – पीड़ा

कंटकशयन – काँटों की सेज

विकल – बेचैन

दुहिता – पुत्री (दूध दुहने वाली)

निराश्रय – आश्रयहीन

विडंबना हालात की मार, इच्छा के विरुद्ध हालात होना

कलनाद = नदी जल की आवाज़

भू-पृष्ठ – धरती, भूमि भाग

मुश्किल – विपद

भग्नावशेष – खंडित टुकड़े

मलिन – धुंधला

स्तूप – बौद्ध-शिक्षा के स्तंभ (खंभे)

दुश्चिंता – परेशानी

आवरण – पर्दा  

उत्कोच – रिश्वत, घूसखोरी:

पतनोन्मुख – पतन की ओर जाती हुई

दीपालोक – दीपक प्रकाश

हताश – निराश

विपन्न – विफल, हारकर

क्रूर – आततायी,

निर्दयी – निष्ठुर दयाहीन

विपत्ति – कठिनाई, मुश्किल, मुसीबत

विधर्मी – दूसरे धर्म वाले, धर्म से विपरीत

ब्रह्मांड – तीनों लोक (अंतरिक्ष, पृथ्वी और पाताल)

विरक्त – (दुखी होकर) उदासीन हो जाना

पथिक – राही

सचेष्ट – सजग, प्रयत्नपूर्वक

जीर्ण कंकाल – कमजोर ढाँचा

सहभागिनी – साथी, साथ देने वाली

अवाक् – आश्चर्य से भरकर चुप हो जाना

विकीर्ण – फैलना

I.निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-

(1) ममता कौन थी?

(2) मंत्री चूड़ामणि को किसकी चिंता थी?

(3) मंत्री चूड़ामणि ने अपनी विधवा पुत्री ममता को उपहार में क्या देना चाहा?

(4) डोलियों में छिपकर दुर्ग के अंदर कौन आये?

(5) ममता रोहतास दुर्ग छोड़ कर कहाँ रहने लगी?

(6) ममता से झोपड़ी में किसने आश्रय मांगा?

(7) ममता पथिक को झोपड़ी में स्थान देकर स्वयं कहाँ चली गई?

(8) चौसा- युद्ध किन-किन के मध्य हुआ?

(9) विश्राम के बाद जाते हुए पथिक ने मिरजा को क्या आदेश दिया?

(10) ममता की जीर्ण-कंकाल अवस्था में उसकी सेवा कौन कर रहीं थीं?

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर तीन या चार पंक्तियों में दीजिए :-

(1) ब्राह्मण चूड़ामणि कैसे मारा गया?

(2) ममता ने झोंपड़ी में आए व्यक्ति की सहायता किस प्रकार की?

(3) ममता ने अपनी झोंपड़ी के द्वार पर आए अश्वारोही को बुलाकर क्या कहा?

(4) हुमायूँ द्वारा दिए गए आदेश का पालन कितने वर्षों बाद तथा किस रूप में हुआ?

(5) मंदिर में लगाए शिलालेख पर क्या लिखा गया?

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर छह या सात पंक्तियों में दीजिए।

(1) ममता का चरित्र चित्रण कीजिए।

(2) ‘ममता’ कहानी से आपको क्या शिक्षा मिलती है?

I. निम्नलिखित शब्दों के विपरीत शब्द लिखिए :-

विधवा

स्वस्थ

सुख

स्वीकार

प्राचीन

अपमान

II. निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए :-

बरसात

चंद्रमा

माता

पक्षी

रात

1. ‘अतिथि देवो भव’ पर कोई कहानी लिखने का प्रयास कीजिए।

2.असाधारण मनुष्य महलों में रहें या कुटिया में रहें, वे सदा ही असाधारण रहते हैं। ‘ममता’ महल में रहकर लालच से कोसों दूर थी और छोटी सी कुटिया में भी सुरक्षा की परवाह न करते हुए अतिथि सेवा कर्म से विमुख नहीं हुई। – इस विषय पर अपने विचार प्रकट करें।

1. जयशंकर प्रसाद की अन्य ऐतिहासिक कहानियाँ / नाटक भी पढ़िए।

2. ईमानदारी, सत्य, निष्ठा, उदारता, अतिथि सेवा आदि जीवन मूल्यों पर समय-समय पर विद्यालय की प्रार्थना सभा में विचार प्रस्तुत कीजिए।

3. ‘ममता’ कहानी को एकांकी के रूप में मंचित करने का प्रयास कीजिए।

4. भावना और कर्तव्य में से किस का पालन करना चाहिए कक्षा में चर्चा कीजिए।

रोहतास दुर्ग या रोहतास का किला:-बिहार के रोहतास जिले में स्थित यह किला बिहार के अफगान शासक शेरगाह सूरी द्वारा बनवाया गया किला है। यह किला शाहजहाँ, मानसिंह तथा मीरकासिम और उसके परिवार को सुरक्षा प्रदान करता था। इस किले में 84 गलियारे व 24 मुख्य द्वार है।

सोन नदी (शोण) :- सोन नदी भारत के मध्य प्रदेश राज्य से निकल कर उत्तर प्रदेश, झारखंड की पहाड़ियों से गुजरते हुए बिहार के वैशाली जिले के सोनपुर में जाकर गंगा नदी में मिल जाती है। यह बिहार की एक प्रमुख नदी है। इस नदी का नाम सोन पड़ा क्योंकि इस नदी का बालू (रेत) पीले रंग का है जो सोने की तरह चमकती हैं। इस नदी की रेत भवन निर्माण आदि के लिए बहुत उपयोगी है। यह रेत पूरे बिहार में भवन निर्माण के लिए उपयोग में लाई जाती है। यह रेत उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में भी निर्यात की जाती है। गंगा और सोन नदी के संगम स्थल सोनपुर में एशिया का सबसे बड़ा सोनपुर पशु मेला लगाता है।

चौसा का युद्ध – चौसा का युद्ध 25 जून 1539 को हुमायूँ एवं शेर खां की सेनाओं के मध्य गंगा नदी के उत्तरी तट पर स्थित ‘चौसा’ नामक स्थान पर हुआ। यह युद्ध हुमायूँ अपनी कुछ गलतियों के कारण हार गया। युद्ध में मुगल सेना की काफी तबाही हुई। हुमायूँ ने युद्ध क्षेत्र से भाग कर जान बचाई। इस प्रकार चौसा के युद्ध में अफगानों को विजय श्री मिली। इस युद्ध में सफल होने के बाद शेर खाँ ने स्वयं को ‘शेरशाह’ नाम की उपाधि से सुसज्जित किया, साथ ही अपने नाम के खुतबे खुदवाए तथा सिक्के ढलवाने का आदेश दिया।

शेरशाह सूरी – शेरशाह भारत में जन्मे पठान थे, जिन्होंने हुमायूँ को हराकर उत्तर भारत में सूरी साम्राज्य स्थापित किया था। शेरशाह सूरी ने पहले बाबर के लिए एक सैनिक के रूप में काम किया था जिन्होंने उन्हें पदोन्नत कर सेनापति बनाया और फिर बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया। 1537 में जब हुमायूँ कहीं सुदूर अभियान पर था तब शेरशाह ने बंगाल पर कब्जा कर सूरी वंश स्थापित किया था। सन् 1539 में शेरशाह को चौसा की लड़ाई में हुमायूँ का सामना करना पड़ा, जिसे शेरशाह ने जीत लिया। 1540 में शेरशाह ने हुमायूँ को पुनः हराकर भारत छोड़ने पर मज़बूर कर दिया और शेरखान की उपाधि लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित कर दिया।

शेरशाह सूरी की कुछ मुख्य उपलब्धियाँ-

पहला रुपया शेरशाह के शासन में जारी हुआ जो आज के रुपया का अग्रदूत है। रुपया आज भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्री लंका, इंडोनेशिया, मॉरीशस, मालदीव आदि में राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाता है।

ग्रैंड ट्रंक रोड का निर्माण किया।

भारत की डाक व्यवस्था को पुनः संगठित किया।

हुमायूँ- नसीरूद्दीन हुमायूँ प्रथम मुगल सम्राट बाबर के पुत्र थे। यद्यपि उनके पास बहुत साल तक साम्राज्य नहीं रहा, पर मुगल साम्राज्य की नींव में हुमायूँ का योगदान है। बाबर की मृत्यु के पश्चात हुमायूँ ने 1530 में भारत की राजगद्दी संभाली। भारत में उन्होंने शेरशाह सूरी से हार प्राप्त की। 10 साल बाद ईरान साम्राज्य के मदद से अपना शासन दोबारा प्राप्त किया। हुमायूँ के बेटे का नाम जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर था। हुमायूँ की जीवनी का नाम हुमायूँनामा है।

अकबर – जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरूद्दीन मोहम्मद हुमायूँ की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिंदू राजा हेमू को पराजित किया था। अकबर का प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के बड़े भू-भाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था जिसे हिंदू-मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिंदू-मुस्लिम संप्रदाओं के बीच की दूरियाँ कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था।

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