(सन् 1907-1987)
1907 की होली के दिन उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद में जन्मी महादेवी वर्मा की प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में हुई। इन्होंने विवाह के बाद पढ़ाई कुछ अंतराल से फिर शुरू की। वे मिडल स्तर की परीक्षा में पूरे प्रांत में प्रथम आयीं और छात्रवृत्ति भी पायी। यह सिलसिला कई कक्षाओं तक चला। बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहा, लेकिन महात्मा गांधी के आह्वान पर सामाजिक कार्यों में जुट गई। उच्च शिक्षा के लिए विदेश न जाकर नारी शिक्षा प्रसार में जुट गयीं। इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया।
रचनाएँ – महादेवी की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं – नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, प्रथम आयाम, अग्नि रेखा यात्रा। महादेवी का समस्त काव्य वेदनामय है। काव्य के साथ-साथ महादेवी ने उच्चकोटि के गद्य साहित्य की भी रचना की। उन्होंने मुख्य रूप से संस्मरण और रेखाचित्र प्रस्तुत किए हैं। इनकी गद्य रचनाएँ हैं- अतीत के चलचित्र, शृंखला की कड़ियाँ, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार और चिंतन के क्षण महादेवी की रुचि चित्रकला में भी रही। उनके बनाए चित्र उनको कई कृतियों में प्रयुक्त किए गए हैं।
11 सितंबर 1987 को उनका देहावसान हुआ। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित प्रायः सभी प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने 1956 में उन्हें पद्मभूषण अलंकरण से अलंकृत किया था।
‘राजेंद्र बाबू’ श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा लिखित एक जीवंत संस्मरण है। जो महादेवी द्वारा लिखे संस्मरणों के संग्रह ‘पथ के साथी’ में से लिया गया है। इस संस्मरण में लेखिका ने भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू के व्यक्तित्व की विशेषताओं को रेखांकित किया है। उनके शरीर की बनावट, वेशभूषा की सादगी, उनका देहातीपन और अस्त-व्यस्तता से लेकर उनकी प्रतिभा और बुद्धि की विशिष्टता, उनके स्वभाव की कोमलता कठोरता तथा उनकी गंभीर संवेदना का चित्रण लेखिका ने बड़ी भावुकता के साथ किया है एक तरह से महादेवी वर्मा ने राजेंद्र बाबू के समग्र जीवन दर्शन को परखने का प्रयत्न किया है। राजेंद्र बाबू की पत्नी के स्वभाव की विशेषताओं के उल्लेख से यह संस्मरण और भी आत्मीयपूर्ण हो गया है। इस संस्मरण में राजेंद्र बाबू के निजी सचिव श्री चक्रधर की सादगी और निष्ठा का भी उत्कृष्ट वर्णन है। यह संस्मरण महादेवी वर्मा के चिंतन, अनुभूति और दृष्टिकोण की विशद विशेषताओं को रेखांकित करता है।
राजेंद्र बाबू को मैंने पहले पहले एक सर्वथा गद्यात्मक वातावरण में ही देखा था, परंतु उस गद्य ने कितने भावात्मक क्षणों की अटूट माला गूँथी है, यहाँ बताना कठिन है।
मैं प्रयाग में बी. ए. की विद्यार्थी थी और शीतावकाश में अपने घर भागलपुर जा रही थी। पटना में भाई से मिलने की बात थी, अतः स्टेशन पर ही प्रतीक्षा के कुछ घंटे व्यतीत करने पड़े।
स्टेशन के एक ओर तीन पैर वाली बेंच पर देहातियों की वेशभूषा में परंतु कुछ नागरिक जनों से घिरे सज्जन जो विराजमान थे, उनकी ओर मेरी विहंगम दृष्टि जाकर लौट आई। वास्तव में भाई से यह जानने के उपरांत कि उक्त सज्जन ही राजेंद्र बाबू हैं, मुझे अभिवादन का ध्यान आया।
पहली दृष्टि में ही जो आकृति स्मृति में अंकित हो गई थी, उसमें इतने वर्षों ने न कोई नई रेखा जोड़ी हैं और न कोई नया रंग भरा है।
सत्य में से जैसे कुछ घटाना या जोड़ना संभव नहीं रहता, वैसे ही सच्चे व्यक्तित्व में भी कुछ जोड़ना घटाना संभव नहीं है।
काले घने पर छोटे कटे हुए बाल, चौड़ा मुख, चौड़ा माथा, घनी भृकुटियों के नीचे बड़ी आँखें, मुख के अनुपात में कुछ भारी नाक, कुछ गोलाई लिए चौड़ी ठुड्डी, कुछ मोटे पर सुडौल होंठ, श्यामल झाँई देता हुआ गेहुआँ वर्ण, ग्रामीणों जैसी बड़ी-बड़ी मूँछें जो ऊपर के होंठ पर ही नहीं नीचे के होंठ पर भी रोमिल बालों का आवरण डाले हुए थीं। हाथ, पैर, शरीर सबमें लंबाई की ऐसी विशेषता थी, जो दृष्टि को अनायास आकर्षित कर लेती थी।
उनकी वेशभूषा की ग्रामीणता तो दृष्टि को और भी उलझा लेती थी। खादी की मोटी धोती ऐसा फेंटा देकर बाँधी गई थी कि एक ओर दाहिने पैर पर घुटना छूती थी और दूसरी ओर बाएँ पैर की पिंडली। मोटे, खुरदरे, काले बंद गले के कोट के ऊपर का भाग बटन टूट जाने के कारण खुला था और घुटने के नीचे का बटनों से बंद था, सरदी के कारण पैरों में मोज़े जूते तो थे, परंतु कोट और धोती के समान उनमें भी विचित्र स्वच्छंदतावाद था। एक मोजा जूते पर उतर आया था और दूसरा टखने पर घेरा बना रहा था। मिट्टी की पर्त से न जूतों के रंग का पता चलता था, न रूप का। गांधी टोपी की स्थिति तो और भी विचित्र थी। उसकी आगे की नोक बाय भौंह पर खिसक आई थी और टोपी की कोर माथे पर पट्टी की तरह लिपटी हुई थी। देखकर लगता था मानो वे किसी हड़बड़ी में चलते-चलते कपड़े पहनते आए हैं, अतः जो जहाँ स्थिति में अटक गया, वह वहीं उसी स्थिति में अटका रह गया।
उनकी मुखाकृति देखकर अनुभव होता था मानो इन्हें पहले कहीं देखा है। अनेक व्यक्तियों ने उन्हें प्रथम बार देखकर भी ऐसा ही अनुभव किया होगा। बहुत सोचने के उपरांत उस प्रकार की अनुभूति का कारण समझ में आ सका।
राजेंद्र बाबू की मुखाकृति ही नहीं, उनके शरीर के संपूर्ण गठन में एक सामान्य भारतीय जन की आकृति और गठन की छाया थी, अतः उन्हें देखने वाले को कोई-न-कोई आकृति या व्यक्ति स्मरण हो आता था और वह अनुभव करने लगता था कि इस प्रकार के व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है। आकृति तथा वेशभूषा के समान ही वे अपने स्वभाव और रहन-सहन में सामान्य भारतीय या भारतीय कृषक का ही प्रतिनिधित्व करते थे। प्रतिभा और बुद्धि की विशिष्टता के साथ-साथ उन्हें जो गंभीर संवेदना प्राप्त हुई थी, वही उनकी सामान्यता को गरिमा प्रदान करती थी।
भाई जवाहरलाल जी की अस्त-व्यस्तता भी व्यवस्था से निर्मित होती थी, किंतु राजेंद्र बाबू की सारी व्यवस्था ही अस्त-व्यस्तता का पर्याय थी। दूसरे यदि जवाहरलाल जी की अस्त-व्यस्तता को देख लें तो उन्हें बुरा नहीं लगता था, परंतु अपनी अस्त-व्यस्तता के प्रकट होने पर राजेंद्र बाबू भूल करने वाले बालक के समान संकुचित हो जाते थे। एक दिन यदि दोनों पैरों में दो भिन्न रंग के मोजे पहने किसी ने उन्हें देख लिया तो उनका संकुचित हो उठना अनिवार्य था। परंतु दूसरे दिन जब वे स्वयं सावधानी से रंग का मिलान करके पहनते तो पहले से भी अधिक अनमिल रंगों के पहन लेते।
उनकी वेशभूषा की अस्त-व्यस्तता के साथ उनके निजी सचिव और सहचर भाई चक्रधर जी का स्मरण अनायास हो आता है। अब मोजों में से पाँचों उँगलियाँ बाहर निकलने लगतीं, जब जूते के तले पैर के तलवों के गवाक्ष बनने लगते, जब धोती, कुरते कोट आदि का खद्दर अपने मूल ताने-बाने में बदलने लगता, तब चक्रधर इस पुरातन सज्जा को अपने लिए सहेज लेते। उन्होंने वर्षों तक इसी प्रकार राजेंद्र बाबू के पुराने परिधान से अपने आपको प्रसाधित कर कृतार्थता का अनुभव किया था। मैंने ऐसे गुरु-शिष्य या स्वामी सेवक फिर अब तक नहीं देखे।
राजेंद्र बाबू के निकट संपर्क में आने का अवसर मुझे सन् 1937 में मिला जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में महिला विद्यापीठ महाविद्यालय के भवन का शिलान्यास करने प्रयाग आए। उनसे ज्ञात हुआ कि उनकी 15-16 पौत्रियाँ हैं, जिनकी पढ़ाई की व्यवस्था नहीं हो पाई है। मैं यदि अपने छात्रावास में रखकर उन्हें विद्यापीठ की परीक्षाओं में बैठा सकूँ तो उन्हें शीघ्र कुछ विद्या प्राप्त हो सकेगी।
पहले बड़ी, फिर छोटी, फिर उनसे छोटी के क्रम से बालिकाएँ मेरे संरक्षण में आ गई और उन्हें देखने प्रायः उनकी दादी और कभी-कभी दादा भी प्रयाग आते रहे। तभी राजेंद्र बाबू की सहधर्मिणी के निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। वे सच्चे अर्थ में धरती की पुत्री थीं-साध्वी, सरल, क्षमामयी, सबके प्रति ममतालु और असंख्य संबंधों की सूत्रधारिणी। ससुराल में उन्होंने बालिका वधू रूप में पदार्पण किया था। संभ्रांत जमींदार परिवार की परंपरा के अनुसार उन्हें घंटों सिर नीचा करके एकासन बैठना पड़ता था, परिणामतः उनकी रीढ़ की हड्डी इस प्रकार झुक गई कि युवती होकर वे सीधी खड़ी नहीं हो पाई।
बिहार के ज़मींदार परिवार को वधू और स्वातंत्र्य युद्ध के अपराजेय सेनानी की पत्नी होने का न उन्हें कभी अहंकार हुआ और न उनमें कोई मानसिक ग्रंथि ही बनी। छात्रावास की सभी बालिकाओं तथा नौकर-चाकरों का उन्हें समान रूप से ध्यान रहता था। एक दिन या कुछ घंटों ठहरने पर भी वे सबको बुला-बुलाकर उनका तथा उनके परिवार का कुशल-मंगल पूछना न भूलती थीं। घर से अपनी पौत्रियों के लिए लाए मिष्ठान्न में से प्रायः सभी बँट जाता था। देखने वाला यह जान ही नहीं सकता था कि वह सबकी इया, अइया अर्थात् दादी नहीं हैं।
गंगा स्नान के लिए तो मुझे उनके साथ प्रायः जाना पड़ता था। उस दिन संगम पर जितना दूध मिलता, जितने फूल दिखाई देते सब उनकी ओर से ही गंगा-यमुना की भेंट हो जाते। कोलाहल करते हुए पंडों की पूरी पलटन उन्हें घेर लेती थी, पर वे बिना विचलित हुए शांत भाव से प्रत्येक को उसका प्राप्य देती चलती थीं।
बालिकाओं के संबंध में राजेंद्र बाबू का स्पष्ट निर्देश था कि वे सामान्य बालिकाओं के साथ बहुत सादगी और संयम से रहें। वे खादी के कपड़े पहनती थीं, जिन्हें वे स्वयं ही धो लेती थीं। उनके साबुन, तेल आदि का व्यय भी सीमित था। कमरे की सफ़ाई, झाड़-पोंछ, गुरुजनों की सेवा आदि भी उनके अध्ययन के आवश्यक अंग थे।
उस समय संघर्ष के सैनिकों का गंतव्य जेल ही रहता था, अतः प्रायः किसी की पत्नी, किसी की बहन, किसी की बेटी विद्यापीठ के छात्रावास से अनुपस्थित होती थी। स्वतंत्रता के उपरांत उनमें से कुछ दिल्ली चली गयीं और कुछ विशेष योग्यता प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी के विद्यालयों में भर्ती हो गईं। केवल राजेंद्र बाबू की पौत्रियाँ अपवाद रहीं। राजेंद्र बाबू के भारत के प्रथम राष्ट्रपति हो जाने के उपरांत मुझे स्वयं उनकी पौत्रियों के संबंध में चिंता हुई। उनका स्पष्ट उत्तर मिला, “महादेवी बहन, दिल्ली मेरा नहीं है, राष्ट्रपति भवन मेरा नहीं है। अहंकार से मेरी पोतियों का दिमाग खराब न हो जाए, तुम केवल इसकी चिंता करो। वे जैसे रहती आई हैं, उसी प्रकार रहेंगी। कर्त्तव्य विलास नहीं, कर्मनिष्ठा है।”
उनकी सहधर्मिणी में भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। जब राष्ट्रपति भवन में उनके कमरे से संलग्न रसोईघर बन गया तब वे दिल्ली गयीं और अंत तक स्वयं भोजन बनाकर सामान्य भारतीय गृहिणी के समान पति, परिवार तथा परिजनों को खिलाने के उपरांत स्वयं अन्न ग्रहण करती थीं।
उस विशाल भवन में यदि अपने अद्भुत आतिथ्य की बात न कहूँ, तो कथा अधूरी रह जाएगी। बालिकाओं की दादी ने मुझे दिल्ली आने का विशेष निमंत्रण तो दिया ही, साथ ही, प्रयाग से सिरकी के बने एक दर्जन सूप लाने का भी आदेश दिया। उन्होंने बार-बार आग्रह किया कि मैं उनके लिए इतना कष्ट अवश्य उठाऊँ, क्योंकि फटकने-पछोरने के लिए सिरकी के सूप बहुत अच्छे होते हैं, पर कोई उन्हें लाने वाला ही नहीं मिलता।
प्रथम श्रेणी के डिब्बे में बारह सूपों के टाँगने पर जो दृश्य उपस्थित हुआ, उससे भी अधिक विचित्र दृश्य तब प्रत्यक्ष हुआ, जब राष्ट्रपति भवन से आई बड़ी कार पर यह उपहार लादा गया। राष्ट्रपति भवन के हर द्वार पर सलाम ठोंकने वाले सिपाहियों की आँखें विस्मय से खुली रह गई। ऐसी भेंट लेकर कोई अतिथि न कभी वहाँ पहुँचा था, न पहुँचेगा। पर भवन की तत्कालीन स्वामिनी ने मुझे अंक में भर लिया।
राजेंद्र बाबू तथा उनकी सहधर्मिणी सप्ताह में एक दिन अन्न नहीं ग्रहण करते थे। संयोग से मैं उनके उपवास के दिन ही पहुँची, अतः उनकी यह जिज्ञासा स्वाभाविक थी कि मैं कैसा भोजन पसंद करूँगी। उपवास में भी आतिथेय का साथ देना उचित समझकर मैंने निरन्न भोजन की ही इच्छा प्रकट की। फलाहार के साथ उत्तम खाद्य पदार्थों की कल्पना स्वाभाविक रहती है। सामान्यतः हमारा उपवास अन्य दिनों के भोजन की अपेक्षा अधिक व्ययसाध्य हो जाता है, क्योंकि उस दिन हम भाँति- भाँति के फल, मेवे, मिष्ठान्न आदि एकत्र कर लेते हैं।
मुझे आज भी वह संध्या नहीं भूलती, जब भारत के प्रथम राष्ट्रपति को मैंने सामान्य आसन पर बैठ कर दिन भर के उपवास के उपरांत केवल कुछ उबले आलू खाकर पारायण करते देखा। मुझे भी वही खाते देखकर उनकी दृष्टि में संतोष और होठों पर बालकों जैसी सरल हँसी छलक उठी।
जीवन मूल्यों की परख करने वाली दृष्टि के कारण उन्हें देशरत्न की उपाधि मिली और मन की सरल स्वच्छता ने उन्हें अजातशत्रु बना दिया। अनेक बार प्रश्न उठता है, क्या वह साँचा टूट गया जिसमें ऐसे कठिन कोमल चरित्र ढलते थे।
गद्यात्मक – सादा, सामान्य
गंतव्य – जाने का स्थान
शीतावकाश – सर्दियों की छुट्टियाँ
झाँई – छाया, झलक, आभा
विलास – सुखोपभोग, मौज-मस्ती,
विहंगम-दृष्टि – पूरा-पूरा देखना, एक सरसरी निगाह
कर्मनिष्ठा – कर्म के प्रति समर्पण, आतिथ्य मेहमान नवाजी
भृकुटि – भौंह,
संभ्रांत – कुलीन, अभिजात
संवेदना – सहानुभूति, दुख को महसूस करने की भावना
अपराजेय – अविजित, जिसे पराजित न किया जा सके
सिरकी – सींक
गरिमा – गौरव, महत्त्व
सूप – अनाज साफ़ करने का पात्र, छाज
अस्त-व्यस्तता – बिखराव
अंक भरना – आलिंगन में लेना, गले लगाना
गवाक्ष – सुराख, झरोखा
संयोग – इत्तिफ़ाक, आकस्मिकता
परिधान – वस्त्र
उपवास – व्रत
प्रसाधित करना – सजाना-सँवारना
आतिथेय – मेजबान, [अतिथि का स्वागत करने वाला]
शिलान्यास- नींव का पत्थर रखना
निरन्न – बिना अन्न का
सहधर्मिणी – गृहस्थ धर्म में साथ देने वाली, धर्मपत्नी
व्ययसाध्य – खर्चीला
पारायण – व्रत की समाप्ति
सूत्र धारिणी – संचालन करने वाली
उपाधि – पदवी
एकासन – बैठने की एक ही मुद्रा
अजातशत्रु – जिसका कोई शत्रु न हो
अपवाद – सामान्य नियम से भिन्न
प्राप्य – पाने योग्य, जो मिलना चाहिए।
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-
- राजेंद्र बाबू को लेखिका ने प्रथम बार कहाँ देखा था?
उत्तर – लेखिका ने राजेंद्र बाबू को पहली बार पटना के स्टेशन पर एक बेंच पर बैठे देखा था।
- राजेंद्र बाबू अपने स्वभाव और रहन सहन में किसका प्रतिनिधित्व करते थे?
उत्तर – राजेंद्र बाबू अपने स्वभाव और रहन सहन में एक सामान्य भारतीय या भारतीय कृषक का प्रतिनिधित्व करते थे।
- राजेंद्र बाबू के निजी सचिव और सहचर कौन थे?
उत्तर – श्री चक्रधर जी राजेंद्र बाबू के निजी सचिव और सहचर थे।
- राजेंद्र बाबू ने किनकी शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए लेखिका से अनुरोध किया?
उत्तर – राजेंद्र बाबू ने अपनी पंद्रह-सोलह पौत्रियों की शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए लेखिका से अनुरोध किया
- लेखिका प्रयाग से कौन सा उपहार लेकर राष्ट्रपति भवन पहुँची थी?
उत्तर – लेखिका प्रयाग से बारह सिरकी के सूप उपहार स्वरूप लेकर राष्ट्रपति भवन पहुँची थी।
- राष्ट्रपति को उपवास की समाप्ति पर क्या खाते देखकर लेखिका को हैरानी हुई?
उत्तर – राष्ट्रपति को उपवास की समाप्ति पर कुछ उबले आलू खाते देखकर लेखिका को हैरानी हुई।
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर तीन या चार पंक्तियों में दीजिए :-
- राजेंद्र बाबू को देखकर हर किसी को यह क्यों लगता था कि उन्हें पहले कहीं देखा है?
उत्तर – राजेंद्र बाबू अपने स्वभाव और रहन सहन में एक सामान्य भारतीय या भारतीय कृषक की तरह ही लगते थे। राजेंद्र बाबू का चेहरा और शारीरिक गठन एक सामान्य भारतीय आदमी की तरह ही था। इसलिए जो भी उनसे मिलता था उन सभी को यही लगता था कि उन्हें पहले कहीं देखा है।
- पं. जवाहरलाल नेहरू की अस्त-व्यस्तता तथा राजेंद्र बाबू की सारी व्यवस्था किस का पर्याय थी?
उत्तर – पंडित जवाहरलाल नेहरू जी की अस्त-व्यस्तता भी व्यवस्था से निर्मित होती थी, किंतु राजेंद्र बाबू की सारी व्यवस्था ही अस्त-व्यस्तता का पर्याय थी। इसलिए ऐसा कहा जाना ही ठीक होगा कि नेहरू जी की अस्त-व्यस्तता राजेंद्र बाबू की व्यवस्था थी और राजेंद्र बाबू की व्यवस्था नेहरू जी की अस्त-व्यस्तता थी।
- राजेंद्र बाबू की वेशभूषा के साथ उनके निजी सचिव और सहचर चक्रधर बाबू का स्मरण लेखिका को क्यों हो आया?
उत्तर – राजेंद्र बाबू की वेशभूषा के साथ उनके निजी सचिव और सहचर चक्रधर बाबू का स्मरण लेखिका को हो आया क्योंकि राजेंद्र बाबू की अस्त-व्यस्त वेशभूषा की तरह ही श्री चक्रधर बाबू की वेशभूषा भी अस्त-व्यस्त ही रहती थी। वे राजेंद्र बाबू के फटे मोजे, जूते, धोती, कुरते कोट आदि अपने मूल ताने-बाने में बदलने लगता, तब चक्रधर जी इन्हें अपनी सज्जा के लिए सहेज लेते।
- लेखिका ने राजेंद्र बाबू की पत्नी को सच्चे अर्थों में धरती की पुत्री क्यों कहा है?
उत्तर – लेखिका ने राजेंद्र बाबू की पत्नी राजवंशी देवी को सच्चे अर्थों में धरती की पुत्री कहा है क्योंकि राजवंशी देवी साध्वी, सरल, क्षमामयी, सबके प्रति ममतालु और असंख्य संबंधों की सूत्रधारिणी थीं। बिहार के ज़मींदार परिवार की वधू और स्वातंत्र्य युद्ध के अपराजेय सेनानी की पत्नी होने का उन्हें कभी अहंकार नहीं हुआ। वह तो आदर्श गृहिणी और आदर्श बहू के सारे नियमों का पूरी तल्लीनतता से निष्पादन करती रहीं।
- राजेंद्र बाबू की पोतियों का छात्रावास में रहन-सहन कैसा था?
उत्तर – राजेंद्र बाबू की पोतियाँ छात्रावास में बहुत सादगी और संयम से रहती थी। वे सभी खादी के कपड़े पहनती थीं। अपने कपड़े धोने व झाड़ू-पोंछा करने का काम भी वे स्वयं ही करती थीं। वे अपने गुरुजनों की सेवा भी करती थीं। अपने अध्ययन के जागरूक थीं। उनके साबुन, तेल आदि का व्यय भी सीमित ही था। इस तरह छात्रावास में उनका रहन-सहन अत्यंत साधारण था।
- राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी राजेंद्र बाबू और उनकी पत्नी में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ- उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर – राष्ट्रपति भवन में रहते हुए भी राजेंद्र बाबू और उनकी पत्नी में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। उनकी सहधर्मिणी राजवंशी देवी उस समय राष्ट्रपति भवन में रहने गईं जब उनके कमरे से संलग्न रसोईघर बन गया। वे एक सामान्य गृहिणी की तरह स्वयं भोजन बनाकर पति, परिवार तथा परिजनों को खिलाने के उपरांत स्वयं अन्न ग्रहण करती थीं। राजेंद्र बाबू भी उपवास तोड़ने के लिए मिठाई न खाकर उबले हुए आलू खाकर ही से काम चला लिया करते थे।
III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर छह या सात पंक्तियों में दीजिए-
- राजेंद्र बाबू की शारीरिक बनावट, वेशभूषा और स्वभाव का वर्णन करें।
उत्तर – राजेंद्र बाबू की शारीरिक बनावट में काले घने पर छोटे कटे हुए बाल, चौड़ा मुख, चौड़ा माथा, घनी भृकुटियों के नीचे बड़ी आँखें, मुख के अनुपात में कुछ भारी नाक, कुछ गोलाई लिए चौड़ी ठुड्डी, कुछ मोटे पर सुडौल होंठ, श्यामल झाँई देता हुआ गेहुआँ वर्ण, ग्रामीणों जैसी बड़ी-बड़ी मूँछें जो ऊपर के होंठ पर ही नहीं नीचे के होंठ पर भी रोमिल बालों का आवरण डाले हुए थीं। हाथ, पैर, शरीर सबमें लंबाई की ऐसी विशेषता थी, जो दृष्टि को अनायास आकर्षित कर लेती थी। उनकी वेशभूषा एक ग्रामीण किसान का प्रतिनिधित्व करती थी। उनका स्वभाव भी बहुत ही सरल और शांत था।
- पाठ के आधार पर राजेंद्र बाबू की पत्नी की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर – राजेंद्र बाबू की पत्नी राजवंशी देवी की चारित्रिक विशेषताएँ निम्नलिखित है –
आदर्श बहू – बालिका वधू रूप में उन्होंने ससुराल में पदार्पण किया था। संभ्रांत जमींदार परिवार की परंपरा के अनुसार उन्हें घंटों सिर नीचा करके एकासन बैठना पड़ता था, परिणामतः उनकी रीढ़ की हड्डी इस प्रकार झुक गई कि युवती होकर वे सीधी खड़ी नहीं हो पाई।
आदर्श गृहिणी – राष्ट्रपति भवन में रहने के दौरान भी वह स्वयं खाना पकाया करती थीं और सबको खिलाने के बाद ही खाया करती थीं।
सर्वगुण सम्पन्न – वे सच्चे अर्थ में धरती की पुत्री थीं – साध्वी, सरल, क्षमामयी, सबके प्रति ममतालु और असंख्य संबंधों की सूत्रधारिणी।
कुशल अभिभावक – अपनी पोतियों का वह बहुत अच्छे से खयाल रखा करती थीं। इसके साथ ही साथ वह नौकरों का हाल-चाल लेना तथा उनकी समस्याओं को दूर करने की कोशिश भी किया करती थीं।
धार्मिक प्रवृत्ति – राजवंशी देवी वास्तव में धार्मिक प्रवृत्ति वाली आदर्श भारतीय महिला थीं। गंगा स्नान करना, पूजा पाठ करना, पंडों को उनका प्राप्य देना उनका धार्मिक कर्म था।
- आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) सत्य में जैसे कुछ घटाना या जोड़ना संभव नहीं रहता वैसे ही सच्चे व्यक्तित्व में भी कुछ जोड़ना घटाना संभव नहीं है।
उत्तर – आशय – इन पंक्तियों का आशय यह है कि सत्य सदैव सत्य ही रहता है। सत्य न ही समय के साथ बदलता है और न ही पुराना और मलिन होता है। ठीक उसी प्रकार महादेवी वर्मा की नज़रों में राजेंद्र प्रसाद भी अपरिवर्तित ही थे। वह जब जब राजेंद्र प्रसाद जी से मिलीं उन्हें वे हमेशा प्रथम जैसे ही सीधे-सादे और सरल मानुष ही प्रतीत होते थे।
(ख) क्या वह साँचा टूट गया जिसमें ऐसे कठिन कोमल चरित्र ढलते थे।
उत्तर – आशय – इस पंक्ति का आशय यह है कि लोभ-लालच से भरी दुनिया में जब कोई किसी ऐसे व्यक्ति से मिलता है जिसमें लोभ-लालच का पुट लेश मात्र भी न हो। जिसका जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित रहता है ऐसे लोग अब नहीं हैं। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद अपवाद स्वरूप एक ऐसे ही विलक्षण व्यक्तित्व थे जिनकी प्रशंसा में महादेवी वर्मा ने यह कहा कि क्या वह साँचा टूट गया जिसमें ऐसे कठिन कोमल चरित्र ढलते थे।
I. निम्नलिखित में संधि कीजिए
शीत + अवकाश = शीतावकाश
विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
मुख + आकृति = मुखाकृति
छात्र + आवास = छात्रावास
प्रति + ईक्षा = प्रतीक्षा
प्रति + अक्ष = प्रत्यक्ष
II. निम्नलिखित शब्दों का संधि-विच्छेद कीजिए-
राजेन्द्र = राजा + इन्द्र
फलाहार = फल + आहार
मिष्ठान्न = मिष्ट + अन्न
व्यवस्था = वि + अवस्था
वातावरण = वात + आवरण
व्यतीत = वि + अतीत
प्रत्येक = प्रति + एक
एकासन = एक + आसन
III. निम्नलिखित विग्रह पदों को समस्त पद में बदलिए-
राष्ट्र का पति = राष्ट्रपति
कर्म में निष्ठा = कर्मनिष्ठा
गंगा में स्नान = गंगास्नान
रसोई के लिए घर = रसोईघर
विद्या की पीठ = विद्यापीठ
राष्ट्रपति का भवन = राष्ट्रपतिभवन
IV. निम्नलिखित अनेक शब्दों के लिए एक शब्द लिखिए-
गाँव में रहने वाला – ग्रामीण
नगर में रहने वाला – नागरिक
कृषि कर्म करने वाला – कृषक
छात्रों के रहने का स्थान – छात्रावास
जिसका कोई शत्रु न हो – अजातशत्रु
जिसे पराजित न किया जा सके = अपराजित
अतिथि का स्वागत करने वाला = आतिथेय
1. राजेंद्र बाबू सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति थे। आप उनके कौन-कौन से गुणों को अपने जीवन में अपनाना चाहेंगे?
उत्तर – मैं राजेंद्र बाबू जी की सादगी, सरलता, सहृदयता, समर्पण भावना और देशप्रेम जैसे अमूल्य गुणों को अपनाना चाहूँगा।
2. आप किसी महान व्यक्तित्व से मिले हो अथवा आपने किसी महान व्यक्तित्व के बारे में पढ़ा हो तो संक्षेप में लिखिए।
उत्तर – मैं किसी महान व्यक्तित्व से मिला तो नहीं हूँ पर महान व्यक्तित्व के बारे में पढ़ा ज़रूर हूँ। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की ‘एनिहेलेशन ऑफ कास्ट’ पढ़कर मैंने उनके विलक्षण सोच, उनकी शिक्षा-दीक्षा और व्यापक दृष्टिकोण की जानकारी प्राप्त की है।
3.भारत के सभी राष्ट्रपतियों के चित्र एकत्र करके एक चार्ट पर चिपकाकर पुस्तकालय अथवा अन्य किसी समुचित स्थान पर लगाइए।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
4. भारत के राष्ट्रपति चुनाव के संबंध में जानकारी प्राप्त कीजिए।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
1. राजेंद्र बाबू के बाद के भारत के विभिन्न राष्ट्रपतियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए उनकी जीवनियाँ पढ़िए।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
2. राजेंद्र प्रसाद जैसी आकृति व वेशभूषा धारण करके फैन्सी ड्रैस प्रतियोगिता में भाग लीजिए।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
3. सरलता व सादगी का व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस विषय के पक्ष और विपक्ष में कक्षा में परिचर्चा करें।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
1.डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद
पूरा नाम – डॉ. राजेंद्र प्रसाद
जन्म – 3 दिसम्बर, 1884
जन्म भूमि – जीरा देयू, बिहार
मृत्यु – 28 फरवरी, 1963
मृत्यु स्थान – सदाकत आश्रम, पटना
अविभावक – महादेव सहाय
पत्नी – राजवंशी देवी
पद – भारत के प्रथम राष्ट्रपति
कार्यकाल – 26 जनवरी, 1950 से 13 मई, 1962
विद्यालय – कलकत्ता विश्वविद्यालय, प्रेसीडेंसी कॉलेज (कलकत्ता)
शिक्षा – स्नातक, बी. एल. कानून में मास्टर डिग्री और डॉक्टरेट
पुरस्कार – भारत रत्न
भारत के राष्ट्रपतियों की सूची
- डॉ. राजेंद्र प्रसाद
- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
- डॉ. जाकिर हुसैन
- वी. वी. गिरि (वराहगिरि वेंकट गिरि)
- फ़ख़रुद्दीन अली अहमद
- नीलम संजीव रेड्डी
- ज्ञानी जैल सिंह
- रामास्वामी वेंकटरमण
- डॉ. शंकरदयाल शर्मा
- के. आर. नारायणन
- डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम
- प्रतिभा पाटिल
- प्रणब मुखर्जी
- रामनाथ कोविंद
- द्रौपदी मुर्मू
राष्ट्रपति भवन
राष्ट्रपति भवन भारत सरकार के राष्ट्रपति का सरकारी आवास है। सन् 1950 तक इसे वाइसरॉय हाउस कहा जाता था। तब यह तत्कालीन भारत के गवर्नर जनरल का आवास हुआ करता था। यह नई दिल्ली के हृदय क्षेत्र में स्थित है। इसमें 340 कक्ष है और यह विश्व में किसी भी राष्ट्राध्यक्ष के आवास से बड़ा है।