उपेन्द्रनाथ अश्क
(सन् 1910-1996)
हिंदी साहित्य को आधुनिक भावबोध से जोड़ने वाले रचनाकारों में उपेन्द्रनाथ अश्क का विशिष्ट स्थान है। इनका जन्म 14 दिसंबर, 1910 ई. को जालंधर में हुआ। ये एक सफल कहानीकार व उपन्यासकार ही नहीं, एक प्रतिभाशाली एकांकीकार भी हैं। यूँ तो इनके एकांकियों की विषयवस्तु जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से ली गई है परंतु ‘पारिवारिक जीवन’ इनका मुख्य क्षेत्र है। अभिनेयता के प्रति अश्क जी काफी सजग रहे हैं, इसी उद्देश्य से उन्होंने लंबे ‘रंग-निर्देश भी दिए हैं, इसीलिए इनके प्रायः सभी एकांकी सफलतापूर्वक मंच पर खेले जा सकते हैं। इन एकांकियों के संवाद भी सादगी, स्पष्टता व चुस्ती लिए हुए होते हैं। पात्रों का चरित्र चित्रण करते समय भी अश्क जी उनके भीतरी तनाव को अभिव्यक्ति देने का सफल प्रयास करते हैं। इनका देहावसान 19 जनवरी, 1996 को प्रयागराज में हो गया।
रचनाएँ एकांकी संग्रह – ‘देवताओं की छाया में’, ‘चरवाहे ‘पक्का गाना’, ‘पर्दा उठाओ, पर्दा गिराओ’, ‘अन्धी गली’, ‘साहब को जुकाम है’, ‘पच्चीस श्रेष्ठ एकांकी’ आदि।
नाटक – ‘छठा बेटा’, ‘कैद’, उड़ान ‘जय-पराजय’, ‘अंजो दीदी’, ‘अलग-अलग रास्ते’, ‘पैंतरे’, ‘अंधी गली’ आदि।
उपन्यास – ‘सितारों के खेल’, ‘गिरती दीवारें’, ‘गर्म राख’, बड़ी-बड़ी आँखें’, ‘पत्थर- अलपत्थर’, ‘शहर में घूमता आइना’, ‘एक नन्हीं कन्दील’।
कहानी-संग्रह – ‘पिंजरा’, ‘जुदाई की शाम का गीत’, ‘दो धारा’, ‘छींटे’, ‘काले साहब’, ‘कहानी लेखिका और जेहलम के सात पुल’, ‘सत्तर श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘पलँग’ आदि।
पाठ-परिचय
‘सूखी डाली’ एकांकी अश्क जी के ‘चरवाहे ‘ एकांकी संग्रह में संकलित है। यह एक पारिवारिक एकांकी है जिसमें संयुक्त परिवारों के भीतरी सच की एक प्रामाणिक झांकी अश्क जी ने प्रस्तुत की है। नई पीढ़ी की नए विचारों वाली सुशिक्षिता बहू पारंपरिक ढंग से जीवन नहीं बिताना चाहती। केवल घर के रोज़मर्रा के कामों में समय बिताने की अपेक्षा वह पढ़ाई-लिखाई में भी समय बिताना चाहती है। वह घर को नए तरीके से, ज्यादा सलीके से सजाना-सँवारना चाहती है, मगर उसकी इस इच्छा को उसका ‘अभिमान’ कह कर सब उसका विरोध करते हैं। दादाजी के रूप में अश्क जी ने एक ऐसा पात्र गढ़ा है जो समझदार है और नई बहू के मनोविज्ञान को समझता है। यही नहीं, इस पात्र के प्रयासों से घर में फिर से सुख-शांति स्थापित होती है और संयुक्त परिवार विघटित होते-होते बच जाता है। नए-पुराने की टक्कर तथा घर-घर में होने वाले संघर्ष को थोड़े से हास्य, थोड़े-से व्यंग्य व थोड़ी-सी करुणा के साथ अश्क जी ने बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। एकांकी का अंतिम वाक्य सर्वाधिक प्रभावशाली है और समूची एकांकी के सार तत्त्व को पाठक के सामने रख कर उसे मंत्र मुग्ध कर देता है। पाठक यह सोचने पर विवश हो जाता है कि एक सुखी परिवार वही है जिसका प्रत्येक सदस्य सुखी हो।
सूखी डाली
पुरुष पात्र
स्त्री पात्र
दादा (मूलराज)
कर्मचंद
परेश
भाषी
बेला (छोटी बहू)
छोटी भाभी (बेला की सास, इंदु की माँ)
मँझली भाभी
बड़ी भाभी
मँझली बहू
बड़ी बहू
रजवा (मिश्रानी)
पारो
पहला दृश्य
[मानव प्रगति के इस युग में, जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अराजकता की हद तक महत्त्व दिया जाता है और तानाशाही को ‘सभ्य’ समाज में अत्यंत निंदनीय माना जाता है, दादा मूलराज अपने समस्त कुटुंब को एक यूनिट (unit) बनाये, उस पर पूर्ण रूप से अपना प्रभुत्व जमाये, उस महान वट की भांति अटल खड़े हैं, जिसकी लंबी-लंबी डालियाँ उनके आँगन में एक बड़े छाते की भाँति धरती को आच्छादित किये हुए, अगणित घोंसलों को अपने पत्तों में छिपाये, वर्षों से तूफानों और आँधियों का सामना किये जा रही हैं।
वर्षों इस वट की संगति में रहने के कारण दादा वट ही की भांति महान दिखाई देते हैं। आयु की 72 सदियाँ देख लेने पर भी उनका शरीर अभी तक नहीं झुका और उनकी सफेद दाढ़ी वट की लंबी-लंबी दाढ़ियों की भाँति उनकी नाभि को छूती हुई मानो धरती को छूने का प्रण किये हुए है।
दादा का बड़ा लड़का 1914 के महायुद्ध में सरकार की ओर से लड़ते-लड़ते काम आया था। इसके बदले में सरकार ने दादा को एक मुरब्बा जमीन दी थी। किंतु दादा सरकार की इस कृपा ही पर संतुष्ट नहीं रहे। अपने साहस, परिश्रम, निष्ठा, दूरदर्शिता और रुसूख से उन्होंने एक के दस मुरब्बे बनाये। उनके दो बेटे और पोते, जमीन, फ़ार्म, डेयरी और चीनी के उस कारखाने के काम की देखभाल करते हैं, जो उन्होंने हाल ही में अपनी ज़मीन में लगाया है। सबसे छोटा पोता अभी- अभी नायब तहसीलदार होकर इसी कस्बे में लगा है और कुछ ही दिन हुए उसका विवाह लाहौर के एक प्रतिष्ठित तथा संपंन कुल की सुशिक्षित लड़की से हुआ है।
उनके छोटे पोते परेश का नायब तहसीलदार और उनकी छोटी पतोहू का सुशिक्षित होना, अपने में दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं। पहली से सरकारी हलकों में उनकी प्रतिष्ठा और भी बढ़ जाने की संभावना है गाँव में उनका और भी आदर होने लगा है, किंतु साथ ही दूसरी से उनके परिवार के लिए संकट भी उपस्थित हो गया है। उनकी तीनों बहुएँ (जो घर में बड़ी भाभी, मँझली भाभी और छोटी भाभी के नाम से पुकारी जाती हैं, सीधी-साधी महिलाएँ हैं। उन सब में उनकी पोती इंदु ही (जिसने प्राइमरी स्कूल तक बड़ी सफलतापूर्वक शिक्षा पायी है) सबसे अधिक पढ़ी-लिखी समझी जाती है। घर में उसकी चलती भी खूब है और दादा अपनी इस पोती से प्यार भी बहुत करते हैं, किंतु इस ग्रेजुएट छोटी पतोहू के आने से (जो घर में छोटी बहू के नाम से पुकारी जाती है) कुटुंब के इस तालाब में इस प्रकार लहरें सी उठने लगी हैं जैसे स्थिर पानी में बड़ी-सी ईंट गिरने से पैदा हो जाती हैं।
पर्दा इमारत के बरामदे में खुलता है। वास्तव में यह बरामदा घर की स्त्रियों का रांदेवू (Rendezvous) सम्मिलन स्थल है। दिन भर इसमें कोलाहल मचा रहता है। कभी घर की स्त्रियाँ यहाँ धूप लेती हैं कभी चरखे कातती हैं कभी गप्पें उड़ाती हैं कभी लड़ती-झगड़ती हैं और कुछ न हो तो स्नानागार में पड़े कपड़े ही धोया करती हैं। यह स्नानागार बाहर के अहाते में है-दाय दीवार के कोनों में जो दरवाज़ा है, उसके साथ ही बाहर को रसोई आदि से निबट कर दोपहर के बाद, घर की दो-चार स्त्रियाँ प्रायः रोज वहाँ कपड़े धोया करती हैं और निरंतर ‘ धप-धप’ की ध्वनि इस बरामदे में गूँजा करती हैं।
सामने दीवार के बायें कोने में एक छोटी सी गैलरी है, जिसमें (दोनों ओर आमने-सामने) पहले मँझली बहू और बड़ी बहू के कमरे हैं (जिनकी खिड़कियाँ बरामदे में खुलती हैं) फिर मँझली भाभी और बड़ी भाभी के छोटी भाभी का कमरा (जो इंदु की माँ और छोटी बहू बेला की सास है) दायीं ओर है। छोटी बहू का कमरा ऊपर की छत पर है और बायीं दीवार में सीढ़ियाँ बनी हैं, जो ऊपर को जाती हैं।
सामने की दीवार के साथ गैलरी के इधर को दो तख़्त बिछे हैं। दो-एक चारपाइयाँ दीवार के साथ खड़ी हैं। एक पुराने फ़ैशन की बड़ी आराम-कुर्सी भी सामने की दीवार के साथ लगी हुई है।
दोपहर होने में अभी काफ़ी देर है। अतः बरामदे में अपेक्षाकृत निस्तब्धता है केवल गैलरी से स्त्रियों के जल्दी-जल्दी बातें करने की आवाज़ आ रही हैं। पर्दा उठाने के कुछ क्षण पश्चात इंदु तेज़- तेज़ गैलरी से निकलती है और बिफरी हुई-सी दार्यों तरफ के तख्त पर बैठ जाती है। उसके पीछे-पीछे बड़ी बहू शांत स्वभाव से चलती हुई आती है। इंदु की भृकुटी चढ़ी है और बड़ी बहू शांत और गंभीर है।]
बड़ी बहू- (इंदु के कन्धों पर अपने दोनों हाथ रखते हुए) आखिर कुछ कहो भी क्या कह दिया छोटी बहू ने?
इंदु- (चुप)
बड़ी बहू- क्या कह दिया उसने जो इतनी बिफरी हुई हो?
इंदु- (क्रोध से) और क्या ईंट मारती।
बड़ी बहू- कुछ कहो भी ……
इंदु- मेरे मायके में यह होता है, मेरे मायके में यह नहीं होता (हाथ मटका कर) अपने और अपने मायके के सामने तो वह किसी को कुछ गिनती ही नहीं। हम तो उसके लिए मूर्ख, गँवार और असभ्य हैं।
बड़ी बहू – (आश्चर्य से) क्या ……
इंदु- बैठक के बाहर मिश्रानी खड़ी रो रही थी। मैंने पूछा तो पता चला कि बहू रानी ने उसे काम से हटा दिया है।
बड़ी बहू- (उसी आश्चर्य से) काम से हटा दिया है। भला क्या दोष था उसका?
इंदु- दोष यह था कि उसे काम करना नहीं आता।
बड़ी बहू – (स्तंभित) काम करना नहीं आता?
इंदु – उस बेचारी ने कहा भी कि मैं दस-पाँच दिन में सब कुछ सीख जाऊँगी। भला के दिन हुए हैं मुझे आपका काम करते? फिर बहू रानी न मानीं। झाड़न उन्होंने उसके हाथ से छीन लिया और कहा कि हट तू, मैं सब कुछ स्वयं कर लूंगी। अभी तक इतना ही सलीका नहीं कि बैठक कैसे साफ़ की जाती है, पाँच-दस दिन में तू क्या सीख जाएगी!
बड़ी बहू- सलीका नहीं?
इंदु – मैंने जा कर समझाया कि भाभी दस साल से यही मिश्रानी घर का काम कर रही है। घर भर की सफाई करती है, बर्तन मलती है, कपड़े धोती है। जाने तुम्हारा कौन-सा ऐसा काम है जो इससे नहीं होता। और फिर मैंने समझाया कि भाभी नौकर से काम लेने की भी तमीज़ होनी चाहिए।
बड़ी बहू- हाँ और क्या ….
इंदु- झट से बोली, ‘वह तमीज तो बस आप लोगों को है, ‘ मैंने कहा, ‘तुम तो लड़ती हो। मैं तो सिर्फ़ यह कहना चाहती थी कि नौकर से काम लेने का भी ढंग होता है।’ इस पर तुनक कर बोलीं, और वह ढंग मुझे नहीं आता, मैंने नौकर जो यहीं आकर देखे हैं।’ फिर कहने लगी, ‘काम लेने का ढंग उसे आता है, जिसे काम की परख हो। सुबह-शाम झाडू देने मात्र से कमरा साफ़ नहीं हो जाता। उसकी बनावट – सजावट भी कोई चीज़ है। न जाने तुम लोग किस तरह इन फूहड़ नौकरों से गुज़ारा कर लेती हो। मेरे मायके में तो ऐसी गँवार मिश्रानी दो दिन छोड़, दो घड़ी भी न टिकती।’
बड़ी बहू- कहीं उसने ये सब बातें?
इंदु- और कैसे कही जाती हैं जब से आयी है यही तो सुन रहे हैं- नौकर अच्छे हैं तो उसके मायके में खाना पीना अच्छा है तो उसके मायके में कपड़े पहनने का ढंग आता है तो उसके मायके वालों को, हम तो न जाने कैसे जी रहे हैं!
(नाक-भौं चढ़ा कर) यहाँ के लोगों को खाना-पीना पहनना ओढ़ना कुछ नहीं आता। हमारे नौकर गँवार, हमारे पड़ोसी गँवार, हम स्वयं गँवार …….
बड़ी बहू- (चकित – विस्मित सिर्फ़ सुनती है।)
इंदु – मैंने भी कह दिया, ‘क्या बात है भाभी तुम्हारे मायके की? एक नमूना तुम्हीं जो हो। एक मिश्रानी और ले आती तो हम गँवार भी उससे कुछ सीख लेते।’
[दायीं दीवार के कमरे से छोटी भाभी (इंदु की माँ और छोटी बहू बेला की सास) प्रवेश करती हैं। उनके पीछे-पीछे रजवा है।]
छोटी भाभी- क्यों इंदु बेटी, क्या बात हुई यह रजवा रो रही है, कोई कड़वी बात कह दी छोटी बहू ने इसे?
इंदु- मीठी वे कब कहती हैं जो आज कड़वी कहेंगी?
छोटी भाभी- क्या आज तुम कैसी जली कटी बातें कर रही हो छोटी बहू से झगड़ा हो गया है क्या?
रजवा- (भरे हुए गले से) माँ जी, आज उन्होंने बरबस मुझे काम से हटा दिया …. इतने बरस हो गए आपकी सेवा करते, कभी किसी ने इस प्रकार अनादर न किया था। मुझे तो माँ जी आप अपने पास ही रखिए। मैं आज से उनका काम न करने जाऊँगी।
छोटी भाभी- वह तो बच्ची है मिश्रानी, तू भी उसके साथ बच्ची हो गयी।
इंदु- (मुँह बिचका कर) – जी हाँ, बच्ची है। रोटी को चोची कहती है। उसे तो बात ही करनी नहीं आती (क्रोध से) अपने मायके के सामने तो वह किसी को कुछ समझती ही नहीं और गज भर की जबान ……
बड़ी बहू- बात यह है छोटी माँ कि छोटी बहू को हमारा खाना-पीना, पहनना – ओढ़ना कुछ भी पसंद नहीं। उसे हमसे, हमारे पड़ोस से, हमारी हर बात से घृणा है।
छोटी भाभी- (चिंता से) फिर कैसे चलेगा? हमारे घर में तो मिल कर रहना, बड़ों का आदर करना, अपने घर की रूखी-सूखी को दूसरों की चुपड़ी से अच्छा समझना, नौकरों पर दया और छोटों पर……
(मँझली बहू बाहर से हँसती हुई प्रवेश करती है।)
मँझली बहू – खिहि….खिहि खिहि हा हा हा…..
इंदु- क्या बात है भाभी, जो हँसी के मारे लोट-पोट हुई जा रही हो।
मँझली बहू- खिहिखिहि (हाथ पर हाथ मारती है) हा-हा-हा-हा-हा
(गैलरी से मँझली भाभी और बड़ी भाभी प्रवेश करती हैं।)
दोनों- क्या बात है जो आज इतनी ‘हा हा, ही ही’ हो रही है?
इंदु- यह भाभी हैं कि बस हँसे जा रही हैं, कुछ बताती ही नहीं।
मँझली बहू- मैं कहती हूँ..
बड़ी बहू- आखिर कुछ कहो भी।
(फिर हँस पड़ती है।)
मँझली बहू- आज भाई परेश की वह गत बनी कि बेचारा अपना सा मुँह ले कर रह गया …. खिहि…… खिहि….हा हा हा हा हा हा हा…..
छोटी भाभी- ओ हो, तुम्हारी हँसी भी बहू
मँझली बहू- मैं क्या करूँ, मैं हँसी के मारे मर जाऊँगी, छोटी माँ! अभी-अभी छोटी बहू ने परेश की वह गत बनायी। बेचारा अपना सा मुँह ले कर दादा जी के पास भाग गया।
बड़ी बहू इंदु – (बात क्या हुई?)
मँझली बहू- मैं तो उधर ऊपर सामान रखने गयी थी। बहुत-सी बातें तो मैंने सुनी नहीं, बहुत सी समझ भी नहीं पायी। अंग्रेजी में गिटपिट कर रहे थे। छोटी बहू का पारा कुछ-चढ़ा हुआ था। इतना मालूम हुआ कि परेश स्नान कर कमरे में गया तो बहू रानी ने सारा फर्नीचर निकाल कर बाहर रख दिया था। परेश ने कारण पूछा। छोटी बहू ने कहा, ‘मैं इन टूटी-फूटी कुर्सियों और गले सड़े फर्नीचर को अपने कमरे में न रहने दूँगी। परेश कहने लगा, हमारे बुजुर्ग बात काट कर छोटी बहू ने कहा हमारे बुजुर्ग तो नंगे- बुच्चे जंगलों में घूमा करते थे तो क्या हम भी उनका अनुकरण करें (हँसती है) और जो सामान पड़ा था वह भी उठा कर बाहर फेंक दिया।
इंदु- फिर…. फिर….
मँझली भाभी-छोटी बहू
छोटी भाभी- यह तो
मँझली बहू – परेश ने कहा, ‘इस फ़र्नीचर पर हमारे दादा बैठते थे, पिता बैठते थे, चाचा बैठते थे। उन लोगों को कभी शर्म नहीं आयी, उन्होंने कभी फर्नीचर के गले सड़े होने की शिकायत नहीं की। अब यदि मैं जा कर इसे रखने पर आपत्ति करूँगा तो दादा कहेंगे, तहसीलदार होते ही लड़के का सिर फिर गया है। (हाथ मटका कर) न भाई?
मँझली और बड़ी भाभी – हाँ ठीक ही तो कहा परेश ने।
छोटी भाभी- परेश…मेरा बेटा भला ……
मँझली भाभी – तब बहू ने कहा, ‘तो न कहो मैं तो इस गले सड़े सामान को कमरे के पास तक न फटकने दूँगी। इस बेडौल फ़र्नीचर से तो नीचे धरती पर चटाई बिछा कर बैठना- लेटना अच्छा है। मेरे मायके में ……
इंदु – (क्रोध से) बस, उसे तो अपने मायके की पड़ी रहती है चौबीसों घड़ी।
मँझली बहू – और छोटी बहू ने अपने मायके के बड़े-बड़े कमरों और उनके बहुमूल्य फ़र्नीचर का बखान किया (हँसती है) और महाशय परंश की एक भी न चलने दी। बेचारे भीगी बिल्ली बने दादा जी के पास चले गए खि-हि- हि खि-हि-हि…
(हँसती है। दूसरी भी उसके साथ हँसती हैं।)
मँझली बहू- मैं तो चुपके से चली आयी। (मुँह बिचका कर) जबान हैं छोटी बहू की या कतरनी… और फिर जब अंग्रेजी बोलने लगती है तो कुछ समझ में ही नहीं आता। परेश बेचारा तो अपना सा मुँह लेकर रह जाता है। जाने तहसीलदार कैसे बन गया।
इंदु- बस ज़बान ही ज़बान है। बात तो जब है, जब काम भी हो। एक काम को कहो तो सौ नाक-भौंह चढ़ाती है। दादा जी ने चार कपड़े धोने को कहा था, वे तो पड़े गुसलखाने में गल रहे हैं।
छोटी भाभी – गुसलखाने में गल रहे हैं! तू उठा क्यों न लायी उन्हें जा भाग कर उठा ला और फटक कर आँगन में डाल दे। मैं बहू को समझा दूंगी – इस तरह कैसे चलेगा ….(और भी चिंता से) …..परेश ने समझाया नहीं उसे?
इंदु- परेश की तो जैसे वहाँ बड़ी सुनवाई होती है।
मँझली बहू- वह मलमल के थान और अबरों की बात याद है न अभी तक पड़े हुए हैं। कह कह कर हार गए परेश महाशय बहूरानी ने हाथ तक न लगाया उन्हें और वे शर्म के मारे ले जाते नहीं दादा जी के पास कचहरी में होंगे तहसीलदार, घर में तो अपराधियों से भी गए बीते हो जाते हैं।
(हँसती है, इंदु और बड़ी बहू भी हँसती हैं।)
छोटी भाभी – पर दादा जी के कपड़े
बड़ी भाभी तुम भी बहन बस…..क्या इतना पढ़-लिख कर छोटी बहू कपड़े धोयेगी!
इंदु- क्यों! उसके हाथ नमक-मिट्टी के हैं जो गल जायँगे?
(बाहर से दादा के हुक्का गुड़गुड़ाने की आवाज़ आती है)
छोटी भाभी- तुम चलो इंदु-कपड़े फटक कर अहाते में डाल दो। शायद उन्हें जरूरत हो। माँगेंगे तो….. मैं बहू को समझा दूँगी।
(पर्दा गिरता है।)
दूसरा दृश्य
[वही बरामदा। दायीं ओर के तख्त पर बिस्तर बिछा हुआ है। दीवार के साथ तकिया लगा है। दादा आराम से तकिये के सहारे बैठे हुक्का पी रहे हैं। उनका मँझला लड़का कर्मचंद पास बैठा उनके पाँव दाब रहा है। हुक्का पीते-पीते दादा बच्चों को बाहर अहाते में खेलते हुए देख रहे हैं। स्नान गृह से नल के जल्दी-जल्दी चलने की आवाज़ आ रही है। शायद कोई बच्चा उसे चला रहा है, क्योंकि कर्मचंद की भृकुटी तन गयी है।]
[पर्दा उठने के कुछ क्षण बाद तक नल के चलाये जाने और हुक्के के गुड़गुड़ाने की आवाज़ आती है। फिर ……. ]
कर्मचंद – (क्रोध से) बस करो जगदीश! क्या खट-खट लगा रखी है? जरा आराम करने दो। अभी-अभी खाना खा कर बैठे हैं कि तुम……
दादा- (हुक्के की नली को हटा कर उधर देखते हुए) नहीं, नहीं, खेलने दो बच्चों को। (फिर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं) बच्चे….(हँसते हैं) बरगद की पूरी डाल लाकर आँगन में लगा दी और उसे पानी दे रहे हैं। ….(हँसते हैं) ….नहीं जानते कि पेड़ से टूटी डाली जल देने से नहीं पनपती हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, फिर नली छोड़कर कर्मचंद से मैं कहा करता हूँ न बेटा, कि एक बार पेड़ से जो डाली टूट गयी, उसे लाख पानी दो, उसमें वह सरसता न आयेगी और हमारा यह परिवार बरगद के इस महान पेड़ ही की भाँति है….
कर्मचंद- लेकिन शायद अब इस पेड़ से एक डाली टूट कर अलग हो जाये।
दादा- (चिंता से) क्या कहते हो? कौन अलग हो रहा है?
कर्मचंद – शायद छोटा अलग हो जाये।
दादा- परेश? पर क्यों उसे क्या कष्ट है?
कर्मचंद- कष्ट उसे तो नहीं, छोटी बहू को है।
दादा- मुझे किसी ने बताया तक नहीं। यदि कोई शिकायत थी तो उसे वहीं मिटा देना चाहिए था। हल्की-सी खरोंच भी, यदि उस पर तत्काल दवाई न लगा दी जाय, बढ़ कर एक बड़ा घाव बन जाती है और वही घाव नासूर हो जाता है, फिर लाख मरहम लगाओ, ठीक नहीं होता।
कर्मचंद – मैं अच्छी तरह तो नहीं जानता, पर जहाँ तक मेरा विचार है, छोटी बहू के मन में दर्प की मात्रा ज़रूरत से कुछ ज्यादा है। मैंने वह मलमल के थान और रज़ाई के अबरे ला कर दिये थे न? और सबने तो रख लिए, पर सुना है कि छोटी बहू को पसंद नहीं आये। अपने मायके के घराने को शायद वह इस घराने से बड़ा समझती है और इस घर की घृणा को दृष्टि से देखती है।
दादा- बेटा, बड़प्पन बाहर की वस्तु नहीं बड़प्पन तो मन का होना चाहिए और फिर बेटा, घृणा को घृणा से नहीं मिटाया जा सकता। बहू तभी पृथक होना चाहेगी जब उसे घृणा के बदले घृणा दी जायगी। लेकिन यदि उसे घृणा के बदले स्नेह मिले तो उसकी सारी घृणा धुँधली पड़ कर लुप्त हो जायगी। हुक्का गुड़गुड़ाते हैं और महानता भी बेटा, किसी से मनवायी नहीं जा सकती, अपने व्यवहार से अनुभव करायी जा सकती है। ठूंठ वृक्ष आकाश को छूने पर भी अपनी महानता का सिक्का हमारे दिलों पर उस समय तक नहीं बैठा सकता, जब तक अपनी शाखाओं में वह ऐसे पत्ते नहीं लाता, जिनकी शीतल – सुखद छाया मन के सारे ताप को हर लें और जिसके फूलों की भीनी-भीनी सुगंध हमारे प्राणों में पुलक भर दे।
भाषी- (बाहर से) दादा जी, मल्लू और जगदीश ने मेरा वट का पेड़ उखाड़ दिया (मल्लू से लड़ते हुए चीख-चीख कर) क्यों उखाड़ा तूने मेरा पेड़- क्यों उखाड़ा….?
दादा- पेड़? …(हँसते हैं।) … बच्चे!! (हँसते हैं।) ठहरो भाषी, लड़ो मत बेटा। जाना कर्मचंद ज़रा हटाना दोनों को ……
[कर्मचंद जाता है। दादा फिर हुक्के की नली मुँह से लगा लेते हैं- परेश नीची नजर किये प्रवेश करता है ]
दादा- आओ बेटा परेश, वह मैंने एक दो कपड़े भेजे थे न, तनिक देखना बहू ने उन्हें धो डाला है या नहीं। धो डालें हों तो ले आओ जरा। फिर मैं तुम से बात करूँगा।
परेश- मैं लज्जित
दादा- नहीं धुले तो फिर धुल जायेंगे बेटा? आओ, इधर बैठो मेरे पास मैं तो तुम्हें बुलाने ही वाला था। आओ, आओ इधर आकर बैठो!
[फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं परेश चुपचाप आकर दादा के पास बैठ जाता है।]
दादा- (हुक्का गुड़गुड़ाना छोड़कर) मुझे कर्मचंद से अभी पता चला है कि तुम्हारी बहू को रजाई के अबरे और मलमल का थान पसंद नहीं आया। तुम्हारे ताऊ ठहरे पुराने समय के आदमी, वे नये फैशन की चीजें खरीदना क्या जानें? तभी तो मैं कहता हूँ कि छोटी बहू को बाज़ार ले जाओ। वह स्वयं अपनी पसंद की चीजें ले आयेगी।
परेश- जी…..
दादा- (हुक्के का कश लगा कर) और मैं सोचता था कि अब बहू आ गयी है तो इंदु का दहेज तैयार करने में भी सहायता देगी।
परेश- जी मैं इसलिए आया था
दादा- हाँ, हाँ कहो, झिझकते क्यों हो!
परेश- जी बात यह है कि इस घर में बेला का मन नहीं लगता।
दादा- इतनी जल्दी उसका मन कैसे लग सकता है बेटा। अभी कै दिन हुए हैं उसे आये? और फिर बेटा मन लगता नहीं, लगाया जाता है।
परेश- वह मन लगाती ही नहीं।
दादा- तो हमें उसका मन लगाना चाहिए। वह एक बड़े घर से आयी है। अपने पिता की इकलौती बेटी है। कभी नाते-रिश्तेदारों में रही नहीं। इस भीड़-भाड़ से वह घबराती होगी। इतने कोलाहल से वह ऊब जाती होगी। हम सब मिल कर इस घर में उसका मन लगायेंगे।
परेश- उसे कोई भी पसंद नहीं करता। सब उसकी निंदा करते हैं। अभी मेरे पास माँ, बड़ी ताई, मँझली ताई, बड़ी भाभी, मँझली भाभी, इंदु, रजवा – सब आयी थीं। सब उसकी शिकायत करती थीं- ताने देती थीं कि तू उसके हाथ बिक गया है, तू उसे कुछ नहीं तू समझाता और इधर वह उन सब से दुखी है, कहती है-सब मेरा अपमान करती हैं, सब मेरी हँसी उड़ाती हैं। मेरा समय नष्ट करती हैं। मैं ऐसा महसूस करती हूँ, जैसे मैं परायों में आ गयी हूँ। अपना एक भी मुझे दिखायी नहीं देता….. आप मेरी मानें तो
दादा- हाँ, हाँ, कहो
परेश – बात यह है कि वह आजादी चाहती है। दूसरों का हस्तक्षेप, दूसरों की आलोचना उसे पसंद नहीं ……!
(दादा सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाते हैं)
वह समझती है कि वह छोटी बहू है, इसलिए सब उसकी आलोचना करना, उसे आदेश देना अपना कर्त्तव्य समझते हैं। (दादा सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाते हैं)
और वह अपनी अलग गृहस्थी बसाना चाहती है। जहाँ उसे कोई रोकने वाला न हो। जहाँ वह स्वेच्छापूर्वक अपना जीवन बिता सके। वह चाहती है कि यदि बाग़ वाला मकान उसे मिल जाय तो वह सुख और शांति से रहे। मैं तो सदैव यहाँ बना न रहूँगा, कुछ ही दिनों की बात है मेरी तबदीली हो जायगी उतने दिन को यदि आप बाग़ वाले मकान का प्रबंध कर दें। उसकी सारी उद्विग्नता, अन्यमनस्कता और तिलमिलाहट में उसकी यही इच्छा काम करती है। अब मैं उसे कैसे समझाऊँ।
दादा- (कुछ क्षण चुपचाप हुक्का गुड़गुड़ाते हैं फिर) हूँ (खाँसते हैं) यों तो इस झंझट से छुटकारा पाने का सरल उपाय यही है कि तुम्हें बाग़ वाला मकान दे दिया जाय- वह पड़ा भी बेकार है और अभी मैं उससे किसी तरह का काम लेने का भी इरादा नहीं रखता, पर तुम जानते हो बेटा, मेरे जीते जी यह असंभव है। (हुक्का गुड़गुड़ाते हैं) मैं जब अपने परिवार का ध्यान करता हूँ तो मेरे सामने वट का महान पेड़ घूम जाता है। (खाँस कर) शाखाओं, पत्तों, फलों, फूलों से भरा-पूरा (हुक्के से एक- दो कश लगाते हैं) और फिर मेरी आँखों के सामने इस महान वृक्ष की डालियाँ टूटने लगती है और वह केवल ठूंठ रह जाता है। (स्वर धीमा, जैसे अपने-आप से कह रहे हैं) और मैं सिहर उठता हूँ। न बेटा, मैं अपने जीते जी यह सब न होने दूंगा। तुम चिंता न करो। मैं सबको समझा दूँगा-घर में किसी को तुम्हारी पत्नी का तिरस्कार करने का साहस न होगा। कोई उसका समय नष्ट न करेगा। ईश्वर की अपार कृपा से हमारे घर सुशिक्षित, सुसंस्कृत बहू आयी है तो क्या हम अपनी मूर्खता से उसे परेशान कर देंगे? तुम जाओ बेटा, किसी प्रकार की चिंता को मन में स्थान न दो। मैं कोई-न- कोई उपाय ढूँढ़ निकालूँगा। तुम विश्वास रखो, वह अपने आपको परायों से घिरी अनुभव न करेगी। उसे वही आदर-सत्कार मिलेगा, जो उसे अपने घर में प्राप्त था।
परेश- जैसा आप उचित समझें!
दादा- और देखो, तुम स्वयं भी इस बात का ध्यान रखना, तुम्हारी किसी बात से उसका मन न दुखे। कोई भी ऐसी बात न करो जिसे वह अपना अपमान समझे।
(परेश चलने को होता है।)
तुम उसे साथ ले जाकर नगर से सब चीजें खरीद लाओ। शेष की चिंता तुम न करो, मैं कोई-न-कोई रास्ता अवश्य निकाल लूँगा।
[चला जाता है। (दादा फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं, हुक्के के कश लम्बे हैं जो
इस बात के साक्षी हैं कि दादा पीने के साथ-साथ सोच भी रहे हैं। ]
(जैसे अचानक उन्हें कुछ सूझ गया हो) रजवा रजवा (फिर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं), रजवा नहीं आती, फिर आवाज़ देते हैं। रजवा ….रजवा
परेश- जैसी आपकी इच्छा!
रजवा- (दूर से) जी आयी।
(भागती हुई-सी प्रवेश करती है।)
दादा- बहू के अतिरिक्त सबको यहाँ भेज दो। कहो कि सब काम छोड़कर मेरे पास आयें (रजवा जाने लगती है) और सुनो, कोई न रहे सब से कहना, कुछ क्षण के लिए अवश्य यहाँ आ जायें।
रजवा- जी मैं अभी जा कर सब से कहे देती हूँ।
[चली जाती है (दादा फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं) नल से किसी के कपड़े धोने की आवाज़ आने लगती है। दादा और भी लंबे-लंबे कश लेते हैं। धीरे- धीरे कुटुंब के प्राणी आने लगते हैं। बालक और युवक तख्त और चारपाइयों पर बैठते हैं और स्त्रियाँ बरामदे के फर्श पर रजवा उनके बैठने के लिए मोढ़े और चटाइयाँ ला कर बिछा देती हैं।]
दादा- (हुक्का पीना छोड़कर) इंदु कहाँ है, वह नहीं दिखती?
[वे एक नज़र सबको देखते हैं। रजवा स्नान गृह को जाने वाले दरवाज़े में जा कर इंदु को आवाज देती है। कपड़े धोने का स्वर, जो इस बीच निरंतर आता रहा है, सहसा बंद हो जाता है।]
इंदु- (बाहर से) जी आयी (अंदर आ कर) मैं नल पर थी, कपड़े धो रही थी।
दादा- (एक कश खींच कर बैठो बेटा, (एक दो क्षण तक हुक्का गुड़गुड़ाते हैं) मैंने आज तुम सब को एक विशेष अभिप्राय से बुलाया है। मुझे यह सुन कर बड़ा दुख हुआ कि छोटी बहू का मन यहाँ नहीं लगा।
इंदु- दादा जी
दादा- इंदु बेटा, मुझे अपनी बात कह लेने दो मुझे यह जान कर बड़ा दुख हुआ कि छोटी बहू का मन यहाँ नहीं लगा। दोष उसका नहीं, दोष हमारा है। वह एक बड़े घर की बेटी है, अत्यधिक पढ़ी-लिखी है। सबसे आदर पाती और राज करती आयी है। यहाँ वह केवल छोटी बहू है। यहाँ उसे हर एक का आदर करना पड़ता है हर एक से दबना पड़ता है हर एक का आदेश मानना पड़ता है-यहाँ उसका व्यक्तित्व दब कर रह गया है। मुझे यह बात पसंद नहीं (कुछ क्षण हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, फिर) बेटा, बड़ा वास्तव में कोई उमर से या दर्जे से नहीं होता। बड़ा तो बुद्धि से होता है, योग्यता से होता है। छोटी बहू उम्र में न सही, अक्ल में हम सब से निश्चय ही बड़ी है। हमें चाहिए कि उसकी बुद्धि से उसकी योग्यता से लाभ उठायें। मेरी इच्छा है कि उसे यहाँ वही आदर-सत्कार मिले, जो उसे अपने घर में प्राप्त था। सब उसका कहना मानें, उससे परामर्श लें और मैं प्रसंन हूँगा, यदि उसका काम भी तुम लोग आपस में बाँट लो और उसे पढ़ने-लिखने का अधिक अवसर दो। उसे अनुभव ही न हो कि वह किसी दूसरे घर में, किसी दूसरे वातावरण में आ गयी है।
(फिर कुछ क्षण हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, फिर)
बेटा यह कुटुंब एक महान वृक्ष है। हम सब इसकी डालियाँ हैं। डालियों से ही पेड़ पेड़ है और डालियाँ छोटी हो चाहे बड़ी, सब उसकी छाया को बढ़ाती हैं। मैं नहीं चाहता, कोई डाली इससे टूट कर पृथक हो जाय। तुम सदैव मेरा कहा मानते रहे हो। बस यही बात मैं कहना चाहता हूं. यदि मैंने सुन लिया- किसी ने छोटी बहू का निरादर किया हैं, उसकी हँसी उड़ायी है या उसका समय नष्ट किया हैं तो इस घर से मेरा नाता सदा के लिए टूट जाएगा…. अब तुम सब जा सकते हो।
(फिर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं सब धीरे-धीरे जाने लगते हैं।)
दादा- इंदु बेटा और मँझली बहू, तुम ज़रा बैठो।
(दोनों के अतिरिक्त शेष सब चले जाते हैं।)
मँझली बहू, तुम अपनी हँसी को उन लोगों तक ही सीमित रखो बेटा, जो उसे सहन कर सकते हैं। बाहर के लोगों पर घर में बैठ कर हँसा जा सकता है, किंतु घर के लोगों को तब तक हँसी का निशाना बनाना ठीक नहीं, जब तक वे पूर्णतया घर का अंग न बन जायें और इंदु बेटी, तेरी छोटी भाभी बड़ी बुद्धिमती, सुशिक्षित और सुसंस्कृत है तुझे उसकी हँसी उड़ाने, उससे लड़ने-झगड़ने के बदले उसका आदर करना चाहिए, उससे ज्ञानार्जन करना चाहिए। तुम दोनों को मैं इस विषय में विशेष कर सावधान रहने का आदेश करता हूँ।
(फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं, फिर क्षण भर बाद)
अब तुम जाओ और देखो फिर मुझे शिकायत का अवसर न मिले. (गला भर आता है।) यहीं मेरी आकांक्षा है कि सब डालियाँ साथ-साथ बढ़ें, फले-फूलें, जीवन की सुखद, शीतल वायु के परस से झूमें और सरसायें। पेड़ से अलग होने वाली डाली की कल्पना ही मुझे सिहरा देती है।
(फिर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं)
इंदु- हमें क्षमा कीजिए दादा जी, हमारी ओर से आपको कभी शिकायत का अवसर न मिलेगा।
(दोनों चली जाती हैं। दादा कुछ देर हुक्का गुड़गुड़ाते हैं, फिर बाहर खेलते हुए बच्चों को आवाज़ देते हैं:)
भाषी, मल्लू, जगदीश, आओ आज तुम्हें एक कहानी सुनायें ….. बरगद के पेड़ और उसके बच्चों की।
भाषी- (दरवाज़े से झाँक कर) हम सुन चुके हैं। हम नहीं आते। हर बार वही कहानी
मल्लू- चाँद राजा, तारा राजा की सुनाओ तो आयें। हर बार वही कहानी (नकल उतार कर) एक था बरगद का पेड़
(हंसते हुए अदृश्य हो जाते हैं)
दादा- (हँसते हैं) यहीं कहानी यही कहानी तो कुटुंब का, समाज का राष्ट्र का निर्माण करती है। यही तो जीवन की सुदृढ़ विशाल और महान बनाती है!
(हुक्का गुड़गुड़ाने लगते हैं) [पर्दा गिरता है।]
तीसरा दृश्य
[वही बरामदा दोनों तख्त पूर्ववत खिड़कियों के बराबर रखे हुए हैं और चारपाइयाँ वैसे ही दीवार के साथ लगी खड़ी हैं। हाँ, कुर्सी मध्य में आ गयी है- लगता है कि इस पर छोटी बहू-बेला बैठी धूप ले रही थी किंतु पर्दा उठने पर वह आकुलता से बरामदे में घूमती हुई दिखायी देती हैं- एक हाथ में पुस्तक है, मानों पढ़ते-पढ़ते कोई विचार आ जाने से उठकर घूमने लगी हो।]
बेला- (अपने आप से) मैं किन लोगों में आ गयी हूँ? ये कैसे लोग हैं….कुछ भी समझ नहीं पाती… आज कुछ हैं कल कुछ… पल में तोला, पल में माशा इनका कुछ भी तो पता नहीं चलता।
(फिर सोचती हुई धीरे-धीरे घूमती है।)
गर्म होते हैं तो आग बन जाते हैं और नर्म होते हैं तो मोम से भी कोमल दिखायी देते हैं। आज जिस बात को बुरा कहते हैं, कल उसी की प्रशंसा करते हैं-मैं तो तंग आ गयी इन लोगों से।
[जा कर फिर कुर्सी पर बैठ जाती हैं और पुस्तक खोल लेती है। अन्दर गैलरी से उसकी सास, छोटी भाभी आती है।]
छोटी भाभी – तुम ठीक कहती थीं बेटी, इस रद्दी सामान से बैठक-बैठक नहीं, कबाड़ी का गोदाम दिखायी देती थी। सोचती थी कि यह सामान इतने दिनों से इस कमरे में पड़ा है, कुछ ऐसा बुरा भी नहीं और इस पर इतनी देर से सब बैठते आ रहे हैं, कहीं दादा जी बुरा न मानें पर अच्छा किया तुमने जो वह सब उठा दिया। मैंने परेश से कह दिया है- तुम उसके साथ जा कर अपनी रुचि का सामान खरीद लाओ। यह सब मैं रजवा से कह कर सुरेश के कमरे में भिजवा देती हूँ। कई बार निगोड़ी इन्हीं कुर्सियों के लिए मुझसे रूठ चुका है।
बेला- आप बैठिए माँ जी
छोटी भाभी- बस तुम बैठो बेटी। मैं तो यों ही तुम्हें इधर बैठे देख कर चली आयी। अनाज पड़ा उसे फटकना है मिर्चें पड़ी हैं, उन्हें कूटना है मक्खन कई दिनों का इकट्ठा हो गया है, उसका घी बनाना है-बीसों दूसरे काम हैं और दिन ढल रहा है। मैं सोचती थी, तुमने मेरी बात का बुरा न माना हो। वास्तव में बेटी, रजवा मेरे पास आ कर फूट- फूटकर रो दी। नौकरानी समझदार, विश्वसनीय और आज्ञाकारी है, किंतु जो काम उसने कभी किया न हो, वह उससे किस प्रकार हो सकता है?
बेला- (उठती हई) आप बैठिए तो
छोटी भाभी – (उसके कंधों पर हाथ रख कर उसे बैठाते हुए) बैठो बैठो बेटा, कष्ट न करो। मैं तुम्हारा अधिक समय नष्ट न करूँगी। मैं तो केवल तुमसे उसकी सिफ़ारिश करने आयी थी। भावुक स्त्री है, जल्दी ही बात का बुरा मान जाती है। तुम यों करना कि ज्यों ही नया फर्नीचर आ जाये, अपने सामने लगवा कर रजवा को एक बार झाड़ना-बुहारना सिखा देना। फिर वह ग़लती नही करेगी, न हो तो कभी मुझे बता देना। मैं उसे समझा दूँगी।
बेला- नहीं, नहीं, आप
छोटी भाभी- तुम पढ़ी-लिखी समझदार हो बेटी, इसलिए तुमसे इतना कह दिया है। यों तुम न चाहो तो कोई दूसरा प्रबंध हो जायगा। तुम इस बात की तनिक भी चिंता न करो।
(चलने को उद्यत होती हैं।)
बेला- आप बैठिए तो सही ……
छोटी भाभी- नहीं, नहीं तुम अपना पढ़ो। मैं बेकार तुम्हारा समय नष्ट न करूँगी।
(चली जाती है।)
बेला- (पुस्तक बंद करके लंबी साँस लेती हुई जैसे अपने-आप) इन लोगों की कुछ भी तो समझ में नहीं आती। ये माँ जी एकदम कैसे बदल गयीं? अभी परसों मुझे इसी रजवा के लिए डाँट रही थीं। इनका कुछ भी तो पता नहीं चलता।
[फिर पढ़ने लगती है। बड़ी बहू और मँझली भाभी बाहर के दरवाजे से प्रवेश करती हैं।]
मँझली भाभी- क्यों बेटी, अब रजवा कुछ काम सीख गयी है या नहीं? (जरा हँसती है।) बुढ़िया है तो सयानी
बड़ी बहू – आपने इंदु से ठीक ही कहा था। हमें वास्तव में काम की परख नहीं, पर अब …. बेला- आइए इधर बैठिए, चारपाई सरका लीजिए।
मँझली भाभी – (वैसे ही खड़े-खड़े) मैंने एक अनुभवी नौकरानी खोज लाने के लिए कह दिया है, जो नये फैशन के बड़े घरों में काम कर चुकी हो। वास्तव में बहू, दादा जी पुराने नौकरों के हक में हैं- दयानतदार होते हैं और विश्वसनीय हमारे पास पीढ़ी-दर- पीढ़ी काम करते आ रहे हैं। इस रजवा की सास भी यहीं काम करती थी, अब रजवा की बहू भी यहीं काम करती है,……
बड़ी बहू- मैं कहती हूँ बहन जी, आप रजवा की बहू को ही अपने पास क्यों नहीं रख लेतीं …. उसकी उमर भी कम है और काम भी वह जल्दी सीख जाएगी।
बेला- (अन्यमनस्क -सी) नहीं, नये नौकर की आवश्यकता नहीं। रजवा काम सीख
जाएगी। (कुछ चिढ़ कर) पर आप खड़ी क्यों हैं?
मँझली भाभी- हम तुम्हारा हर्ज न करेंगी।
बेला- (और भी चिढ़ कर) मेरा कुछ हर्ज नहीं होता।
बड़ी बहू- हम आप से छोटी हैं, वर्ग में भी और बुद्धि में भी …..
बेला- (रुआँसी आवाज़ में) आप मुझे क्यों काँटों में घसीटती है. आप मेरे साथ क्यों परायों का सा व्यवहार करती हैं
(उठ खड़ी होती है।)
बड़ी बहू- बैठिए-बैठिए, मँझली भाभी, आप भी बैठिए
बेला- मैं चलती हूँ………
[रुलाई को रोक कर आँखों पर रूमाल रखे जल्दी-जल्दी चली जाती है।]
मँझली भाभी – (जैसे अपने-आप से) परायों का सा……
[बाहर से मँझली बहू के कहकहे की आवाज़ आती है दूसरे क्षण वह इंदु और पारो के कन्धे पर झूलती हुई बाहर के दरवाज़े से आती है।]
इंदु – सच…….?
मँझली बहू – (हँसी रोक कर) और क्या मैं झूठ कह रही हूँ? मैंने अपनी इन दो आँखों से देखा (हँसती है) मलावी ने सारी की सारी छत फावड़े से खोद डाली और बंसीलाल महाशय मुँह देखते रह गए।
(सब ठहाका मार कर हँस पड़ती हैं।)
बड़ी बहू- भाई मुझे भी बताना…..क्या किया मलावी ने ..सच!
[मँझली बहू चारपाई बिछा कर उसमें धँस जाती है। उसकी एक ओर इंदु और दूसरी ओर पारो बैठ जाती है। मँझली भाभी कुर्सी पर बैठती है और बड़ी बहू खड़ी रहती है।]
मँझली भाभी – (कुर्सी को जरा खिसका कर समीप होते हुए) बंसीलाल के सामने उखाड़ कर फेंक दी छत मलावी ने?
मँझली बहू- मैं कहती हूँ….. मुँह देखते रह गए बंसीलाल महाशय, ताका किये मुटर- मुटर……
(सब ठहाका लगाती हैं।)
बड़ी बहू- अरे, कौन-सी छत खोद डाली यह तो बताओ
मँझली बहू – रसोई की और कौन-सी अभी दो घंटे भी नहीं हुए कि राज- मजदूर छत डाल कर गए थे और बंसीलाल कारीगरों और मजदूरों से निबट कर अभी दुकान को गया था कि आ गयी उधर से मलावी मारामार करती। जाने किसने उसे जा कर बताया कि तुम्हारे देवर ने अपनी रसोई पर छत डाल ली है। ले के फावड़ा बस सारी की सारी छत उसने खोद डाली। बंसीलाल तब पहुँचे जब अंतिम ईंटें भी उखड़ चुकी थी। तब क्या बस ताका किये मुटर-मुटर …….
(मंझली भाभी को छोड़ कर सब हँसती हैं।)
मँझली भाभी – पर बंसीलाल का लड़का
मँझली बहू- गली के सिरे पर खम ठोंक रहा है।
(जंघा पर हाथ मार कर बताती है कि कैसे खम ठोंक रहा है।)
इंदु- खम ठोंक रहा है?
मँझली बहू – (कहकहा लगाती है) सच, खम ठोंक रहा है और हवा ही में ललकार रहा है कि मैं ड्योढ़ी की छत खोद डालूँगा मैं मकान को खंडहर बना दूंगा मैं यह कर दूँगा मैं वह कर दूँगा, और इधर मलावी कमर कसे खड़ी है कि आये जो माई का लाल है, रक्खे पाँव घर के भीतर …….
(सब हँसती हैं।)
इंदु- (अँगुली ओठों पर रख कर) शश श श भाभी आ रही हैं।
[हँसी एकदम बंद हो जाती है। सन्नाटा छा जाता है। बेला एक हाथ में बंद किताब थामे धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरती है।]
बेला- क्यों जीजी, आप चुप हो गयीं (जरा हँसकर) किस बात पर कहकहे लगाये जा रहे हैं?
मँझली भाभी – (कुर्सी से उठ कर) योंही हँस रही थीं। आओ इधर कुर्सी पर बैठो। बेला- नहीं नहीं आप बैठिए। मैं इधर तख्त पर बैठ जाती हूँ।
मँझली बहू – (जल्दी से उठ कर) आइए- आइए, आप इधर बैठिए।
इंदु और पारो – (दोनों चारपाई से उठ जाती हैं) आइए, आइए, आप इधर बैठिए।
[फिर नीरवता छा जाती है, जिसमें एक प्रकार की घुटन है। बेला बाहर की ओर चल पड़ती है।]
इंदु – बैठिए भाभी जी, आप चली क्यों?
बेला- (मुड़कर क्लांत तथा भारी स्वर में) मैं तो उधर ही जा रही थी। यों ही जाते-जाते खड़ी हो गयी। मैं आपकी हँसी में बाधा नहीं डालना चाहती। (खिन्न स्वर में हँसी के साथ) आप हँसिए, ठहाके मारिए।
(चुपचाप अहाते के दरवाज़े से निकल जाती है।)
मँझली बहू- मैं कहती थी न कि इस ओर न आओ मेरी मुई आदत हुई हँसने की।
इंदु- अब एक यही जगह थी बैठने को
मँझली बहू- हम हँसती हैं तो हँसती हैं दिल से और छोटी बहू के पढ़ने-लिखने में बाधा पड़ती है। मैं कहती हूँ, दादा जी को यदि पता चल गया कि हमारे यहाँ बैठने से छोटी बहू के पढ़ने में खलल आता है तो वे ……
इंदु- किंतु यही एक जगह थी पर्दे वाली
मँझली बहू- तुम भूल गयीं, हमें ही तो दादा जी ने खास तौर पर सतर्क रहने को कहा था (कहकहा लगा कर हँस पड़ती है।) मैं कहती हूँ, चलो मेरे कमरे में।
इंदु- मुझे तो दादा जी के कपड़े धोने हैं, मैं चली।
(जल्दी-जल्दी बाहर की ओर चली जाती है।)
मँझली भाभी- ठीक है। तुम लोग अब यहाँ इतना न बैठा करो (बड़ी बहू से) हम तो बहू गोदाम में जा रही थीं, चलो गेहूँ छँटवा लें। छोटी बहन तो कब की गयी हुई है। फिर तो अस्त हो जाएगा दिन और महरियाँ चली जायेंगी।
बड़ी बहू- मैं तो फँस गयी मँझली की बातों में चलो…. चलो।
(दोनों चली जाती हैं)
मँझली बहू- मैं कहती हूँ पारो, चल मेरे कमरे में। वहाँ चल कर बैठें।
पारो- (चलते हुए) मुझे तो जाना है भाभी। लल्ला आ गया होगा, न मिली तो चिल्लायेगा।
मँझली बहू… (अपने-आप से) यह छोटी बहू तो उकाब – सी आ कर सबको डरा गयी!
[पारो चली जाती है। बाहर से बड़ी भाभी आती हुई दिखायी देती है। मँझली बहू भाग कर उसके पास जाती है।]
बड़ी भाभी, सुनी तुमने मलावी की बात, खोद डाली उसने सारी की सारी छत।
(कहकहा लगाती है।)
बड़ी भाभी – मलावी ने छत खोद डाली?……
मँझली बहू – (उसे अपने साथ लेकर कमरे की ओर जाती हुई) हाँ, हाँ, अभी राज- मजदूर छत बना कर गए थे कि आ गयी मलावी मारोमार करती ……
बड़ी भाभी – पर
मँझली बहू- चलो मेरे कमरे में। वहाँ चल कर सब बताती हूँ। यहाँ तो छोटी बहू की पढ़ाई में बाधा पड़ती है।
[ उसे साथ ले कर अपने कमरे की ओर जाती है। बाहर से परेश और बेला बातें करते प्रवेश करते हैं। ]
बेला- (आर्द्र कंठ से) आप मुझे मेरे मायके भेज दीजिए। मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं अपरिचितों में आ गयी हूँ। कोई मुझे नहीं समझता, किसी को मैं नहीं समझती।
परेश- आखिर बात क्या है! कुछ कहो भी।
बेला- मैं जाती हूँ तो सब खड़ी हो जाती हैं। बड़ी भाभी, मँझली भाभी और माँ जी तक! मेरे सामने कोई हँसता नहीं, कोई मुझसे अधिक समय तक बात नहीं करना चाहता। सब मुझसे ऐसे डरती हैं जैसे मुर्गी के बच्चे बाज़ से अभी-अभी सब हँस रही थीं, ठहाके पर ठहाके मार रही थीं, मैं गयी तो सब ऐसे सन्न रह गयीं, जैसे भरी सभा में किसी ने चुप की सीटी बजा दी हो।
परेश- पर इसमें …..
बेला- और कोई मुझे काम को हाथ नहीं लगाने देती। तनिक सा भी काम करने लगूँ तो सब भागी आती हैं। सब मेरा इस प्रकार आदर करती हैं, मानो मैं ही इस घर में सब से बड़ी हूँ।
परेश- मैं नहीं समझता तुम क्या चाहती हो? तुम्हें शिकायत थी, कोई तुम्हारा आदर नहीं करता? अब सब तुम्हारा आदर करते हैं। तुम्हें शिकायत थी, तुम्हें सब से दबना पड़ता है अब सब तुम से दबते हैं। तुम्हें शिकायत थी, तुम सब का काम करती हो अब सब तुम्हारा काम करते हैं। आदर, सत्कार, आराम न जाने तुम और क्या चाहती हो?
(तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ जाता है।)
बेला- (निढाल हो कर कुर्सी में धँस जाती है) न जाने मैं क्या चाहती हूँ? (सिसकने लगती है) न जाने मैं क्या चाहती हूँ? पर मैं इतना जानती हूँ कि मैं यह सब आदर, सत्कार, सुख, आराम नहीं चाहती। [बाहों में मुँह छिपा कर सिसकती है। इंदु हाथ में कुछ मैले कपड़े लिए हुए बाहर के दरवाज़े से प्रवेश करती है।]
इंदु- भाभी जी ….
बेला- (उसी प्रकार चुप बैठी रहती है।)
इंदु- (बेला के कंधे को हिला कर) भाभी जी भाभी जी
(बेला मुँह ऊपर उठाती है।)
इंदु- हैं, भाभी जी आप तो रो रही हैं?
बेला- (आँखें पोंछ कर) नहीं, मैं रो नहीं रही, पर इंदु परमात्मा के लिए मुझे ‘जी’ ‘जी’ करके न बुलाया करो।
इंदु- लो भला, यह कैसे हो सकता है। आप मुझसे बड़ी हैं और फिर आप मुझसे कहीं अधिक पढ़ी-लिखी हैं।
बेला- पहले तो तू मुझे यों ‘जी’ ‘जी’ करके नहीं बुलाती थी?
इंदु- मैं तो मूर्ख ठहरी भाभी जी दादा जी ने कहा था …..
बेला- (सहसा चौंक कर) दादा जी ने क्या कहा था?
इंदु- उन्होंने सब को समझाया था कि घर में सबको आपका आदर करना चाहिए।
बेला- किंतु उन्होंने यह सब क्यों कहा? मैंने तो कभी उनसे इस बात की शिकायत नहीं की?
इंदु- शायद छोटे भैया ने उनसे यह कहा था कि आपका मन यहाँ नहीं लगता, आप बाग वाले ……
बेला- ओह! यह बात है।
इंदु- दादा जी और सब कुछ सह सकते हैं, किसी का अलग होना नहीं सह सकते – ‘हम सब एक महान पेड़ की डालियाँ हैं, वे कहा करते हैं, और इससे पहले कि कोई डाली टूट कर अलग हो, मैं ही इस घर से अलग हो जाऊँगा और उन्होंने हम सबको समझाया कि हम आपका आदर करें, काम करें और आपको पढ़ने-पढ़ाने का समय दें।
बेला- पर मैं तो आदर नहीं चाहती और मैं तो तुम सब के साथ मिल कर काम करना चाहती हूँ।
इंदु- यह कैसे हो सकता है भाभी जी ……?
बेला- (दीर्घ विश्वास छोड़ती हुई) आप लोगों ने मुझे कितना गलत समझा और मैंने आप लोगों को कितना …..
इंदु- आप कैसी बातें करती हैं। लाइए, कपड़े लाइए। मैं दादा जी के कपड़े धोने जा रही हूँ, साथ ही आपके भी फटक लाऊँ।
बेला- (चुप सोचती है।)
इंदु- भाभी जी
बेला- (जैसे मन-ही-मन उसने किसी बात का निश्चय कर लिया हो) मैं भी तुम्हारे साथ जाऊँगी, मैं भी तुम्हारे साथ कपड़े धोऊँगी।
इंदु- दादा जी नाराज न होंगे…
बेला- मैं दादा जी से कह दूँगी।
इंदु- भाभी जी
बेला- मुझे केवल भाभी कहा कर, मेरी प्यारी इंदु।
इंदु – (प्यार से भरे हुए गले के साथ) भाभी
बेला- चल कपड़े धोयें। धूप निकली जा रही है।
इंदु – पर आपके कपड़े
बेला- मेरे कपड़े आज रजवा ने धो दिये थे, सलवार कमीज़ ही तो थी। चल मैं तेरी सहायता करूँगी।
[ दोनों चली जाती हैं, कुछ क्षण बाद बरामदे में कपड़े धोने का शब्द आने लगता है। दादा गैलरी की ओर से हुक्का गुड़गुड़ाते-गुड़गुड़ाते मल्लू की अँगुली थामे प्रवेश करते हैं।]
दादा- हाँ बेटा, मेले में चलेंगे। जो तू कहेगा, वही खिलौना ले देंगे।
(सहसा बाहर के दरवाजे के पास जा कर ठिठक जाते हैं।)
दादा (आश्चर्य से) हैं! छोटी बहू
इंदु- (बाहर से) मैंने तो बहुतेरा कहा पर भाभी मानी नहीं।
दादा- छोटी बहू, इधर आ बेटी!
(शरमाई हुई बेला दरवाज़े के पास जा खड़ी होती है।)
– बेटा कपड़े धोना तुम्हारा काम नहीं, पढ़-लिखकर
इंदु- (जो अपनी भाभी के साथ ही आ खड़ी हुई है) मैंने बहुतेरा कहा पर भाभी नहीं मानी ……
दादा- (जिन्हें इंदु के स्वर का अनादर अच्छा नहीं लगा) इंदु तुझे इतनी बार कहा है कि आदर से
बेला- (भावावेश के कारण रुंधे हुए कंठ से) (दादा जी, आप पेड़ से किसी डाली का टूट कर अलग होना पसंद नहीं करते, पर क्या आप यह चाहेंगे कि पेड़ से लगी लगी वह डाल सूख कर मुरझा जाय …..
(सिसक उठती है, हुक्के की गुड़गुड़ाहट बंद हो जाती है)
[पर्दा सहसा गिर पड़ता है।]
शब्दार्थ-
तानाशाही – निरंकुश शासन
पतोह – पोते की बहू
दर्प – घमंड
सुदृढ़ – मजबूत
मलमल – बारीक कपड़ा
अभियुक्त – जिस पर अभियोग चलाया जाए
वृथा – बेकार
अहाता – आँगन
मिश्रानी – मिश्र (विशिष्ट वर्गीय ब्राह्मण) की स्त्री
बहुमूल्य – कीमती
अन्यमनस्कता -अनमनापन, उचाटता
उद्विग्नता – परेशानी
तिलमिलाहट – बेचैनी
अबरा – लिहाफ़ के ऊपर का कपड़ा
कस्बा – छोटा शहर
तहसीलदार – तहसील का प्रधान अधिकारी
मुरब्बा – पच्चीस एकड़ भूमि का वर्ग टुकड़ा
रुसूख – प्रभाव
फूहड़ – गँवार
शाखा – टहनी
नासूर – नाड़ी व्रण, ऐसा घाव जिसमें से बराबर मवाद निकलता हो
खलल – बाधा
खिन्न – उदास
सुसंस्कृत – अच्छे संस्कारों वाली
अराजकता – अव्यवस्था
निंदनीय – निंदा के योग्य
कुटुम्ब – परिवार
आच्छादित – ढका हुआ
प्रभुत्व – स्वामित्व, दबदबा,
निष्ठा – श्रद्धापूर्ण विश्वास
कोलाहल – शोर
स्नानागार – स्नान करने का स्थान, बाथरूम,
निस्तंब्धता – चुप्पी
स्वेच्छापूर्वक – अपनी इच्छा से
नीरवता – शान्ति
आकांक्षा – इच्छा
उकाब – गरुड़, एक बड़ी जाति का गिद्ध
परामर्श – सलाह
तिरस्कार – अपमान, उपेक्षा
ग्रेजुएट – स्नातक
भृकुटि – भौहें
आर्द्र – नम, द्रवित।
अभ्यास
(क) विषय-बोध
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए
1. दादा मूलराज के बड़े पुत्र की मृत्यु कैसे हुई?
2. ‘सूखी डाली’ एकांकी में घर में काम करने वाली नौकरानी का क्या नाम था?
3. बेला का मायका किस शहर में था?
4. दादा जी की पोती इंदु ने कहाँ तक शिक्षा प्राप्त की थी?
5. ‘सूखी डाली’ एकांकी में दादा जी ने अपने कुटुंब की तुलना किससे की है?
6. बेला ने अपने कमरे में फर्नीचर बाहर क्यों निकाल दिया?
7. दादा जी पुराने नौकरों के हक में क्यों थे?
8. बेला ने मिश्रानी को काम से क्यों हटा दिया?
9. एकांकी के अंत में बेला रुंधे कंठ से क्या कहती है?
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर तीन-चार पंक्तियों में दीजिए :-
1. एकांकी के पहले दृश्य में इंदु बिफरी हुई क्यों दिखाई देती है?
2. दादा जी कर्मचंद की किस बात से चिंतित हो उठते हैं?
3. कर्मचंद ने दादा जी को छोटी बहू बेला के विषय में क्या बताया?
4. परेश ने दादा जी के पास जाकर अपनी पत्नी बेला के संबंध में क्या बताया?
5. जब परेश ने दादा जी से कहा कि बेला अपनी गृहस्थी अलग बसाना चाहती है तो दादा जी ने परेश को क्या समझाया?
III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर छह या सात पंक्तियों में दीजिए
1. इंदु को बेला की कौन सी बात सबसे अधिक परेशान करती है? क्यों?
2. दादा जी छोटी बहू के अलावा घर के सभी सदस्यों को बुला कर क्या समझाते हैं?
3. एकांकी के अंतिम भाग के घर के सदस्यों के बदले हुए व्यवहार से बेला परेशान क्यों हो जाती है?
4. मँझली बहू के चरित्र की कौन सी विशेषता इस एकांकी में सबसे अधिक दृष्टिगोचर होती है?
5. ‘सूखी डाली’ एकांकी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?
6. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए :-
यह कुटुंब एक महान वृक्ष है। हम सब इसकी डालियाँ हैं। डालियों से ही पेड पेड़ है और डालियाँ छोटी हों चाहे बड़ी, सब उसकी छाया को बढ़ाती हैं। मैं नहीं चाहता, कोई डाली इससे टूटकर पृथक् हो जाए।
दादा जी, आप पेड़ से किसी डाली का टूटकर अलग होना पसंद नहीं करते, पर क्या आप यह चाहेंगे कि पेड़ से लगी लगी वह डाल सूख कर मुरझा जाए …….।
(ख) भाषा-बोध
I. निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची लिखिए
प्रतिष्ठा
आकाश
वृक्ष
प्रसन्न
परामर्श
अवसर
आदेश
आलोचना
II. निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए :
आकाश
आज़ादी
पसन्द
शांति
आदर
प्रसन्न
झूठ
निश्चय
मूर्ख
इच्छा
घृणा
विश्वसनीय
III. निम्नलिखित समरूपी भिन्नार्थक शब्दों के अर्थ बताते हुए वाक्य बनाइए :-
सूखी
सुखी
सास
साँस
कुल
कूल
और
और
IV. निम्नलिखित मुहावरों के अर्थ समझकर उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए
मुहावरा अर्थ वाक्य
काम आना – मारा जाना
नाक-भौं चढ़ाना – घृणा या असंतोष प्रकट करना
पारा चढ़ना – क्रोधित होना
भीगी बिल्ली बनना – सहम जाना
मरहम लगाना – सांत्वना देना
ठहाका मारना – जोर से हँसना
खलल पड़ना – किसी काम में बाधा आना
कमर कसना – किसी काम के लिए निश्चयपूर्वक तैयार होना
(ग) रचनात्मक अभिव्यक्ति
1. कल्पना कीजिए कि आप बेला हैं और दादा जी आपसे आपकी परेशानी का कारण जानना चाहते हैं। आप क्या उत्तर देंगी?
2. आज भारत में संयुक्त परिवार विघटित हो रहे हैं। बताइए कि इसके क्या कारण हैं?
3. नौकरी की तलाश में आज घर के सदस्यों को देश के दूर-दराज के इलाकों में ही नहीं, विदेशों में भी जाना पड़ता है ऐसे में दादा जी की वटवृक्ष वाली कल्पना कहाँ तक प्रासंगिक है?
4. ‘घर में नई बहू के आने पर घर के माहौल में घुल-मिल जाना जहाँ उसकी जिम्मेदारी हैं, वहीं परिवार के शेष सदस्यों की भी जिम्मेदारी है कि वे भी उसकी आशाओं- अपेक्षाओं के अनुसार खुद को बदलें’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं? क्यों?
5. यदि आपके घर में कोई सदस्य या कोई आपका मित्र/ रिश्तेदार धूम्रपान जैसी लत का शिकार है तो आप उसकी यह लत छुड़वाने में कैसे मदद करेंगे।
6. जब दादा जी ने घर से सदस्यों को बुलाया तो घर के बालक तथा युवक तख्त और चारपाइयों पर बैठते हैं जबकि स्त्रियाँ बरामदे के फर्श पर मोढ़े और चटाइयों पर बैठती हैं- क्या आपको इस तरह की व्यवस्था उचित लगी और क्या आज भी आप स्त्रियों के साथ आप इस तरह का भेदभाव देखते हैं? इसकी कक्षा में चर्चा कीजिए।
7. दादा जी में अनेक चारित्रिक गुण हैं किंतु हुक्का गुड़गुड़ाते रहना तथा छोटी बहू से अपनी पोती के लिए दहेज की अपेक्षा करना उनके चरित्र की कमियाँ हैं- इस संबंध में अपने विचार प्रकट कीजिए।
(घ) पाठ्येतर सक्रियता
1. ‘सूखी डाली’ एकांकी को अपने स्कूल के मंच पर खेलिए।
2. अपने पुस्तकालय से उपेन्द्रनाथ अश्क के अन्य एकांकियों को लेकर पढ़िए।
3. वट वृक्ष के बारे में विस्तृत जानकारी एकत्र कीजिए।
4. वट वृक्ष की भिन्न-भिन्न विशेषताओं को बताने वाले चित्र एकत्र कीजिए और उन्हें एक चार्ट पर चिपका कर अपनी कक्षा में लगाएँ।
5. लाहौर शहर के बारे में विस्तृत जानकारी एकत्र कीजिए।
6. बच्चे, बूढ़े और जवान
बात सुनो खोलकर कान
धूम्रपान है मौत का सामान
है तुम्हें क्या इसका ज्ञान- इस विषय पर स्कूल की प्रार्थना सभा में भाषण प्रतियोगिता का आयोजन कीजिए।
7. दहेज एक सामाजिक कलंक है। यह प्रथा अनैतिक, अवांछनीय एवं अविवेकपूर्ण है- इस विषय पर स्कूल में निबंध/कविता अथवा चित्रकला आदि गतिविधियों का आयोजन करके उसमें सक्रिय रूप से भाग लें।
(ङ) ज्ञान-विस्तार
1914 महायुद्ध – 1914 ई. से लेकर 1919 ई. के मध्य चले इस भीषण महायुद्ध को प्रथम विश्वयुद्ध कहते हैं। यह महायुद्ध यूरोप, एशिया व अफ्रीका (मुख्यत: यूरोप में) महाद्वीपों और जल-थल व आकाश में लड़ा गया। इसमें भाग लेने वाले देशों की संख्या, युद्धक्षेत्र का फैलाव और इससे हुई क्षति के दिल हिला देने वाले आँकड़ों के कारण ही इसे विश्वयुद्ध या महायुद्ध कहते हैं।
ग्रेजुएट स्नातक डिग्री प्राप्त व्यक्ति ग्रेजुएट कहलाता है। स्नातक डिग्री विश्वविद्यालय की पहली डिग्री होती है, जैसे- ‘बैचलर ऑफ आर्ट्स या बैचलर ऑफ साइंस’ आदि। प्राचीन काल में ब्रह्मचर्य आश्रम में रहते हुए गुरुकुल में सफलतापूर्वक शिक्षा पूरी करने वाले विद्यार्थी को एक समारोह में पवित्र जल से स्नान करवा कर सम्मानित किया जाता था। इस प्रकार के स्नान को प्राप्त किया हुआ विद्वान विद्यार्थी ‘स्नातक’ कहलाता था।
वटवृक्ष – यह भारत का राष्ट्रीय वृक्ष है। इसे बरगद का पेड़ भी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘फाइकस वेनगैलेंसिस’ और अंग्रेजी नाम ‘बनियन ट्री’ है। हिंदू लोग इस वृक्ष को पूजनीय मानते हैं। भारत में वटवृक्ष को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
लाहौर यह पाकिस्तान के महत्त्वपूर्ण शहरों में से एक है। इसे ‘पाकिस्तान का दिल’ भी कहा जाता है क्योंकि पाकिस्तानी इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा के क्षेत्र में इस शहर का विशिष्ट योगदान है। यह पाकिस्तान के ‘पंजाब प्रांत’ की राजधानी भी हैं।
हुक्का गुड़गुड़ाना : स्वास्थ्यह्रासक व अशोभनीय कार्य
हुक्का तंबाकू के सेवन का एक तरीका है। आज धूम्रपान तंबाकू सेवन का माध्यम है। इसके अतिरिक्त जरदे आदि के रूप में भी तंबाकू का सेवन किया जाता है। याद रहे तंबाकू का सेवन करना सौ प्रतिशत स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है क्योंकि तंबाकू में एक भी स्वास्थ्यवर्धक गुण नहीं है। परिवारजनों के मध्य या सार्वजनिक स्थलों पर तंबाकू के सेवन से अन्य लोगों को भी भारी नुकसान पहुँचाने के साथ-साथ यह बेहद अशोभनीय भी लगता है। इसके अतिरिक्त भारत तथा अन्य कई देशों ने सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान के खिलाफ कानून का प्रावधान किया है। इसके सेवन से कैंसर, दिल के रोग, फेफड़ों के भयानक रोग आदि हो जाते हैं। यदि एक बार यह लत लग गयी तो फिर इससे छुटकारा पाना कठिन हो जाता है। अतः इसके उपर्युक्त नुकसानों को देखते हुए इससे परहेज़ ही बेहतर है।