Punjab Board, Class X, Hindi Pustak, The Best Solution Do Kalakaar, Mannu Bhandaree, दो कलाकार, मन्नू भंडारी

(सन् 1931-2021)

मन्नू भंडारी नई कहानी की एक प्रसिद्ध लेखिका हैं। आपके उपन्यास और कहानियाँ मानवीय भावनाओं को स्पर्श करते हैं। आपका जन्म 3 अप्रैल 1931 में भानपुर मध्यप्रदेश में हुआ। आपकी विद्यालय स्तर की शिक्षा अजमेर में हुई जबकि स्नातक स्तर की परीक्षा आपने कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1949 में उत्तीर्ण की। आपका विवाह हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार श्री राजेन्द्र यादव से हुआ आपने अपने पति श्री राजेन्द्र यादव के साथ मिलकर एक ‘इंच मुस्कान’ की रचना की! आपकी प्रसिद्ध रचनाओं में ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’ ने बहुत ख्याति प्राप्त की। इन उपन्यासों के नाट्य रूपांतर भारत रंग महोत्सव नई दिल्ली में प्रस्तुत किए गए। आपकी रचनाएँ इतनी लोकप्रिय थीं कि इनका कई भाषाओं में अनुवाद किया गया।

मन्नू भंडारी की कहानियों ने हिंदी फिल्मों में अत्यंत प्रसिद्धि प्राप्त की। ‘यही सच है’ उपन्यास के आधार पर ‘रजनीगंधा’ फ़िल्म बनी जिसे फिल्म फेयर अवार्ड में सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित किया गया। बासु चैटर्जी द्वारा निर्देशित ‘स्वामी’ फ़िल्म के संवाद भी आपने लिखे। सन् 1986 में आपकी कहानी समय की धारा प्रकाशित हुई। आपकी रचनाओं पर कई पुरस्कार मिले। विशेषत: ‘एक कहानी यह भी’ पर सन् 2008 में आपको व्यास सम्मान मिला। 15 नवंबर, 2021 को इनका देहावसान हो गया।

‘दो कलाकार’ मानवीय भावनाओं को स्पर्श करने वाली मर्मस्पर्शी  कहानी है। चित्रा और अरुणा दो अंतरंग सहेलियाँ हैं। चित्रा चित्रकार हैं। उसकी तूलिका में जादू है। उसके बने चित्र राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होते हैं। लेकिन अरुणा एक समाज सेविका है। वह बेसहारा लोगों को सहारा देती है। वह ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में गरीब और बेसहारा लोगों की बेरंग ज़िंदगी में अपनी सेवा से खूबसूरत रंग भर देती है। ऐसा ही बहुत सालों तक चलता है। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में जी-जान लगाए रहते हैं। एक दिन चित्रा के पिताजी उसे आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाने की इजाजत दे देते हैं। यह पढ़कर वह बहुत खुश होती है और अपनी चित्रकला को और भी निखारने के लिए विदेश जाने को तत्पर हो जाती है। इधर अरुणा को यह कभी लगा ही नहीं था कि छह सालों से चित्रा के साथ रहते हुए कभी ऐसा भी पल आएगा कि वह उससे अलग हो जाएगी। आखिर यह दिन आ ही गया जब चित्रा को विदेश जाना था। चित्रा का सामान अरुणा सुबह से ही पैक करने में लगी हुई थी। चित्रा को हॉस्टल की लगभग सभी लड़कियों ने भाव-भीनी विदाई दी। चित्रा ने भी सबसे विदाई ली और जब वह अपने शिक्षकों से विदा लेने गई तो आने में थोड़ी ज़्यादा ही देर हो गई जब अरुणा ने उससे देर से आने का कारण पूछा तो उसने यह बताया कि गर्ग की दुकान के सामने पेड़ के नीचे अक्सर एक भिखारिन बैठी रहा करती थी ना आज वह मर गई और उसके दोनों बच्चे उसके सूखे शरीर से लिपटे हुए थे। मैं अपने को रोक नहीं सकी जल्दी ही उसे एक कागज पर उतार लिया। बस इसी में इतनी देर हो गयी। यह सुनते ही अरुणा वहाँ से गायब हो गई और चित्रा के विदाई के अंतिम समय तक वह नहीं आई। हालाँकि कई वर्षों तक उनके बीच पत्रों के माध्यम से बातचीत होती रही फिर धीरे-धीरे पत्राचार बिलकुल बंद ही हो गया। तीन साल बाद चित्रा भारत वापस लौटीं तो वह एक नामजद चित्रकार के रूप में प्रसिद्धि पा चुकी थी। उसके प्रशंसा में छपे लेखों को पढ़कर उसके पिता भी बहुत खुश होते थे।  दिल्ली में एक जगह पर उसके चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी हुई थी। उसके चित्रों को देखने के लिए बहुत से लोग आए हुए थे और तारीफ़ों की जैसे बाढ़ ही आ गई थी। इसी भीड़ में उसकी मुलाक़ात अरुणा से हो गई उसके साथ दो बच्चे भी थे। चित्रा ने उससे बच्चों के बारे में पूछा तो तत्काल उसने यह कहा कि यह मेरे बच्चे हैं। अरुणा ने बच्चों को उसकी मासी चित्रा को नमस्कार कहने को कहा। बच्चों से थोड़ी देर बातचीत करने के बाद वहाँ अरुणा का पति मनोज आ पहुँचे। अरुणा ने बच्चों को मनोज के साथ भेज दिया और चित्रा से बातें करने लगीं। चित्रा के अधिक ज़ोर देने पर कि वे बच्चे किसके हैं,  अरुणा ने उस चित्र की ओर इशारा किया जिसमें दो बच्चे अपनी भिखारिन माँ के शव से चिपके हुए थे। चित्रा कुछ कहना चाहती थी पर शब्द निकल ही नहीं पाए। यहाँ विडंबना यह है कि कोई दो अनाथ बच्चों और उनकी मरी हुई माँ का चित्र बनाकर कई पुरस्कार पाता है लेकिन अरुणा उन अनाथ बच्चों को अपनाकर उन्हें माँ का प्यार देकर उनके जीवन में कई रंग बिखेर देती है। इस तरह अरुणा और चित्रा दोनों ही कलाकार हैं। लेखिका बाकी बात पाठकों पर छोड़ देती हैं कि उनके क्या विचार हैं?

‘दो कलाकार’ कहानी में मन्नू भंडारी ने जन सेवा या मानवता की भावना को बहुत बड़ी कला माना है। कहानी की प्रमुख पात्रा अरुणा के मुँह से कहलवाया भी है, वह चित्रा को कहती है- “कागज पर इन बेजान चित्रों को बनाने की बजाय दो चार की ज़िंदगी क्यों नहीं बना देती।” ‘दो कलाकार’ शीर्षक कहानी की मूल मानवीय संवेदना को लेकर चलता है। शीर्षक संक्षिप्त व सार्थक है। कहानी की भाषा में हिंदी के साथ-साथ उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग हैं। कहानी में जिज्ञासा अंत तक बनी रहती है।

“ए रूनी, उठ,” और चादर खींचकर, चित्रा ने सोती हुई अरुणा को झकझोरकर उठा दिया।

“अरे, क्या है?” आँख मलते हुए थोड़े खिझलाहट भरी आवाज़ में अरुणा ने पूछा। चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले गयी और अपने नये बनाये हुए चित्र के सामने ले जाकर खड़ा करके बोली, “देख, मेरा चित्र पूरा हो गया।”

“ओह! तो इसे दिखाने के लिए तूने मेरी नींद खराब कर दी। बदतमीज़ कहीं की!”

“अरे, जरा इस चित्र को तो देख, न पा गयी पहला इनाम तो नाम बदल देना।” चित्र को चारों और से घुमाते हुए अरुणा बोली, “किधर से देखूँ, यह तो बता दे? हज़ार बार तुझसे कहा कि जिसका चित्र बनाये उसका नाम लिख दिया कर, जिससे गलतफहमी न हुआ करें, वरना तू बनाये हाथी और हम समझें उल्लू।” फिर तस्वीर पर आँख गड़ाते हुए बोली, “किसी तरह नहीं समझ पा रही हूँ कि चौरासी लाख योनियों में से आखिर यह किस जीव की तस्वीर है?”

“तो आपको यह कोई जीव नज़र आ रहा है? अरे, जरा अच्छी तरह देख और समझने की कोशिश कर।”

“अरे, यह क्या? इसमें तो सड़क, आदमी, ट्रॉम, बस, मोटर, मकान सब एक-दूसरे पर चढ़ रहे हैं, मानो सबकी खिचड़ी पकाकर रख दी हो। क्या घनचक्कर बनाया है?” और उसने वह चित्र रख दिया।

“ज़रा सोचकर बता कि यह किसका प्रतीक है?”

“तेरी बेवकूफी का, आयी है बड़ी प्रतीक वाली।”

“अरे, जनाब, यह चित्र आज के जीवन में चल रही उलझन की तरफ ध्यान खींचता है।”

“समझी, मुझे तो यह चित्र तेरे दिमाग में चल रही उलझन ही लग रही है। बिना मतलब ज़िंदगी खराब कर रही है।” और अरुणा मुँह धोने के लिए बाहर चली गयी। लौटी तो देखा, तीन- चार बच्चे उसके कमरे के दरवाजे पर खड़े उसकी राह देख रहे हैं। आते ही बोले, “दीदी! सब बच्चे आकर बैठ गए, चलिए।”

“आ गए सब बच्चे? अच्छा चलो, मैं अभी आयी।” बच्चे दौड़ पड़े।

“क्या ये बंदर पाल रखे हैं तूने भी?” फिर जरा हँसकर चित्रा बोली, “एक दिन तेरी पाठशाला का चित्र बनाना होगा। जरा लोगों को दिखाया ही करेंगे कि हमारी एक ऐसी मित्र साहब थीं जो सारे दाइयों, चपरासियों और दुनिया भर के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर ही अपने को भारी पण्डिता और समाज सेविका समझती थी।”

“जा जा समझते हैं तो समझते हैं। तू जाकर सारी दुनिया में ढिंढोरा पिटाना, हमें कोई शरम है क्या? तेरी तरह लकीरें खींचकर तो समय बर्बाद नहीं करते।” और पैर में चप्पल डालकर वह बाहर मैदान में चली गयी, जहाँ एक छोटी-सी पाठशाला बनी हुई थी।

रात के दस बजे थे। सारे छात्रावास की बत्तियाँ हमेशा की तरह बुझ चुकी थीं। ऊपर के एक तल्ले पर अँधेरे में ही खुसर-फुसर चल रही थी। रविवार के दिन तो यों ही छुट्टी होती है। दूसरे, दिन के समय में काफी नींद निकाल ली जाती थी, सो दस बजे लड़कियों को किसी तरह भी नींद नहीं आती थी। तभी छात्रावास के फाटक में जलती हुई टॉर्च लिए कोई घुसा। अपने कमरे की खिड़की में से झाँकते हुए सविता ने कहा, “ठाठ तो छात्रावास में बस अरुणा ही के हैं, रात नौ बजे लौटो, दस बजे लौटो, कोई बंधन नहीं। हम लोग तो दस के बाद बत्ती भी नहीं जला सकते।”

“लौट आई अरुणा दी? आज सवेरे से ही वे बड़ी परेशान थी। फुलिया दाई का बच्चा बड़ा बीमार था, दोपहर से वे उसी के यहाँ बैठी थी। पता नहीं, क्या हुआ बेचारे का?” शीला ने ठंडी साँस भरते हुए कहा।

“तू बड़ी भक्त है अरुणा दी की!”

“उनके जैसे गुण अपना ले तो तेरी भी भक्त हो जाऊँगी।”

“मैं कहती हूँ, उन्हें यही सब करना है तो कहीं और रहें, छात्रावास में रहकर यह जो नवाबी चलाती हैं, सो तो हमसे बर्दाश्त नहीं होती। सारी लड़कियाँ डरती हैं तो कुछ कहती नहीं, पर प्रिंसिपल और वार्डन तक रोब खाती है इनका, तभी तो सब प्रकार की छूट दे रखी हैं।

“तू भी जिस दिन हाड़ तोड़कर दूसरों के लिए यों मेहनत करने लग जाएगी न, उस दिन तेरा भी सब रोब खाने लगेंगे। पर तुम्हें तो सजने-सँवरने से ही फुर्सत नहीं मिलती, दूसरों के लिए क्या खाक काम करोगी।”

“अच्छा-अच्छा चल, अपना भाषण अपने पास रख।”

अरुणा अपने कमरे में घुसी तो बहुत ही धीरे से जिससे चित्रा की नींद न खराब हो पर चित्रा जग ही रही थी। दोपहर से अरुणा बिना खाये-पिये बाहर थी, उसे नींद कैसे आती भला? मेस से उसका खाना लेकर उसे मेज पर ढककर रख दिया था। अरुणा के आते ही वह उठ बैठी और पूछा, “बड़ी देर लग गयी, क्या हुआ रूनी!”

“वह बच्चा नहीं बचा, चित्रा। किसी तरह उसे नहीं बचा सके।” और उसका स्वर किसी गहरे दुख में डूब गया।

चित्रा ने माचिस लेकर लालटेन जलाया और स्टोव जलाने लगी, खाना गरम करने के लिए। तभी अरुणा ने कहा, “रहने दे चित्रा, मैं खाऊँगी नहीं, मुझे जरा भी भूख नहीं है।” और उसकी आँखें फिर छलछला आईं।

बहुत ही स्नेह से अरुणा की पीठ थपथपाते हुए चित्रा ने कहा, “जो होना था सो हो गया, अब भूखे रहने से क्या होगा, थोड़ा-बहुत खा ले।”

“नहीं चित्रा, अब रहने दे, बस तू लालटेन बुझा दे।”

उसके बाद दो-तीन दिन तक अरुणा बहुत ही उदास रहीं, लेकिन समय के साथ-साथ वह दुख भी जाता रहा, और सब काम ज्यों-का-त्यों चलने लगा।

चार बजते ही कॉलेज से सारी लड़कियाँ लौट आई पर अरुणा नहीं लौटी। चित्रा चाय के लिए उसका इंतजार कर रही थी। “पता नहीं कहाँ-कहाँ अटक जाती है, बस इसके पीछे बैठे रहा करो।”

“अरे, क्यों बड़-बड़ कर रही है। ले मैं आ गई। चल बना चाय।”

“तेरे मनोज की चिट्ठी आई है।”

“कहाँ, तूने तो पढ़ ही ली होगी फाड़कर।”

“चल हट, तुम्हारी चिट्ठियों में रहता ही क्या है जो कोई पढ़े। बड़े-बड़े आदर्श की बातें, मानो खत न हुआ भाषण हुआ।”

“अच्छा-अच्छा, तू लिखा करना रसभरी चिट्ठियाँ, हमें तो वह सब आता नहीं।” वह लिफाफा फाड़कर पत्र पढ़ने लगी। जब उसका पत्र समाप्त हो गया तो चित्रा बोली, “आज पिता जी का पत्र आया है, लिखा है जैसे ही यहाँ की पढ़ाई खत्म हो जाएगी, मैं विदेश जा सकती हूँ। मैं तो जानती थी, पिता जी कभी मना नहीं करेंगे।”

“हाँ भाई, धनी पिता की इकलौती बिटिया ठहरी। तेरी इच्छा कभी टाली जा सकती है। पर सच कहती हूँ, मुझे तो यह सारी कला इतनी बेमतलब लगती है कि बता नहीं सकतीं। किस काम की ऐसी कला, जो आदमी को आदमी न रहने दे।”

“तो तू मुझे आदमी नहीं समझती क्यों? अरे, इस लगन को देखकर ही तो गुरुजी कहते हैं कि वह समय दूर नहीं, जब हिन्दुस्तान के कोने-कोने में मेरी शोहरत गूँज उठेगी। अमृता शेरगिल की तरह मेरा भी नाम गूँज उठे, बस यही तमन्ना है।”

“कागज़ पर इन बेजान चित्रों को बनाने की बजाय दो चार की ज़िंदगी क्यों नहीं बना देती!”

“वह काम तो तेरे और मनोज के लिए छोड़ दिया है। तुम दोनों ब्याह कर लो और फिर जल्दी से सारी दुनिया का कल्याण करने के लिए झंडा लेकर निकल पड़ना।” और चित्रा हँस पड़ी। फिर बोली- “अच्छा, यह बता कि तेरे यह सब करने से ही क्या हो जाएगा? तूने अपनी अनोखी पाठशाला में दस-बीस बच्चे पढ़ा दिये, तो क्या निरक्षरता मिट जाएगी, या झोंपड़ी में कुछ औरतों को हुनर सिखाकर कुछ कमाने लायक बना दिया तो उससे गरीबी मिट जाएगी? अरे, यह सब काम एक के किये होते नहीं। जब तक समाज का सारा ढाँचा नहीं बदलता तब तक कुछ होने का नहीं, और ढाँचा ही बदल गया तो तेरे मेरे कुछ करने की जरूरत नहीं, सब अपने आप ही हो जाएगा।”

तीन दिन से तेज वर्षा हो रही थी। रोज़ अखबारों में बाढ़ की खबरें आती थीं। बाढ़ पीड़ितों की दशा बिगड़ती जा रही थी।

आज शाम को एक स्वयंसेवकों का दल जा रहा है। प्रिंसिपल से अनुमति ले ली, मैं भी उनके साथ जा रही हूँ।” शाम को अरुणा चली गयी। पंद्रह दिन बाद वह लौटी तो उसकी हालत काफी खस्ता हो गयी थी। सूरत ऐसी निकल आयी थी मानो छह महीने से बीमार हो।

शाम को चित्रा गुरुदेव के पास से लौटी तो अरुणा को देखकर बड़ी खुश हुई। “अच्छा हुआ, तू लौट आयी। मैं तो सोच रही थी कहीं तू बाढ़ पीड़ितों की सेवा करती ही रह जाय और मैं जाने से पहले तुझसे मिल भी न पाऊँ।”

“क्यों तेरा जाने का तय हो गया?”

“हाँ, अगले बुध को मैं घर जाऊँगी और बस एक सप्ताह बाद हिंदुस्तान की सीमा के बाहर पहुँच जाऊँगी।” उल्लास उसके स्वर में छलका पड़ रहा था।

“सच कह रही है, तू चली जायगी चित्रा! छह साल से तेरे साथ रहते-रहते यह बात ही मैं तो भूल गयी कि कभी हमको अलग भी होना पड़ेगा। तू चली जाएगी तो मैं कैसे रहूँगी?”

“अरे, दो महीने बाद शादी कर लेगी, फिर याद भी न रहेगा कि कौन कमबख्त थी चित्रा! बड़ी लालसा थी तेरी शादी में आने की, पर अब तो आ नहीं सकूँगी। अच्छी तरह शादी करना, दोनों मिलकर सारे समाज का और सारे संसार का कल्याण करना।”

आज चित्रा को जाना था। हॉस्टल से उसे बड़ी शानदार विदाई मिली थी। अरुणा सवेरे से ही उसका सारा सामान ठीक कर रही थी। एक-एक करके चित्रा सबसे मिल आयी। बस गुरुजी के घर की तरफ चल पड़ी। तीन बज गए, पर वह लौटी नहीं अरुणा उसका सारा काम खत्म करके उसकी राह देख रही थी। और भी कई लड़कियाँ वहाँ जमा थीं, कुछ बार-बार आकर पूछ जाती थीं, चित्रा लौटी या नहीं। पाँच बजे की गाड़ी से वह जाने वाली है। अरुणा ने सोचा, वह खुद जाकर देख आये कि आखिर बात क्या हो गयी। तभी हड़बड़ाती सी चित्रा कमरे में आई, “बड़ी देर हो गयी ना! अरे क्या करुँ, बस, कुछ ऐसा हो गया कि रुकना ही पड़ा।”

“आखिर क्या हो गया ऐसा, जो रुकना ही पड़ा, सुनें तो।” दो-तीन लड़कियाँ एक साथ बोली।”

“गर्ग की दुकान के सामने पेड़ के नीचे अक्सर एक भिखारिन बैठी रहा करती थी ना, लौटी तो देखा कि वह वहीं मरी पड़ी है और उसके दोनों बच्चे उसके सूखे शरीर से चिपककर बुरी तरह रो रहे हैं। जाने क्या था उस सारे दृश्य में कि मैं अपने को रोक नहीं सकी जल्दी ही उसे एक कागज पर उतार लिया। बस इसी में इतनी देर हो गयी।” चर्चा इसी पर चल पड़ी, “कैसे मर गयी, कल तो उसे देखा था। “किसी ने कहा, “अरे, ज़िंदगी का क्या भरोसा, मौत कहकर थोड़े आती है।” आदि-आदि। पर इस सारी चर्चा से अरुणा कब खिसक गयी, कोई जान ही नहीं पाया।

साढ़े चार बजे और चित्रा हॉस्टल के फाटक पर आ गयी, पर तब तक अरुणा का कहीं पता नहीं था। बहुत सारी लड़कियाँ उसे छोड़ने को स्टेशन आयीं, पर चित्रा की आँखें बराबर अरुणा को ढूँढ़ रही थीं। उसे पूरा विश्वास था कि वह इस विदाई की वेला में उससे मिलने जरूर जाएगी। पाँच भी बज गए, रेल चल पड़ी, अनेक रूमालों ने हिल – हिलकर चित्रा को विदाई दी, पर उसकी आँसू भरी आँखें किसी और को ही ढूँढ़ रही थीं पर अरुणा न आयी सो न आयी।

“विदेश जाकर चित्रा तन-मन से अपने काम में जुट गयी। विदेशों में उसके चित्रों की धूम मच गयी। भिखमंगी और दो अनाथ बच्चों के उस चित्र के बखान कई अखबारों में हुए नाम और शोहरत पाकर चित्रा जैसे अपना पिछला सब कुछ भूल गयी। पहले साल तो अरुणा और उसके बीच चिट्ठियों का लगातार आना जाना लगा रहा। फिर कम होते-होते एकदम बंद हो गया। पिछले एक साल से तो उसे यह भी नहीं मालूम कि वह कहाँ है। नयीं कल्पनाएँ और नये-नये विचार उसे चित्र बनाने की प्रेरणा देते और वह उन्हीं में खोयी रहती। उसके चित्रों की प्रदर्शनियाँ होतीं। अनेक प्रतियोगिताओं में उसका ‘अनाथ’ शीर्षक वाला चित्र पहला इनाम पा चुका था। जाने क्या था उस चित्र में, जो देखता, वही हैरान रह जाता। दुख और गरीबी जैसे सामने आकर खड़ी थी। तीन साल बाद जब वह भारत लौटी तो बड़ा स्वागत हुआ उसका अखबारों में उसकी कला पर, उसके जीवन पर अनेक लेख छपे पिता अपनी इकलौती बिटिया की इस कामयाबी पर बहुत खुश थे समझ नहीं पा रहे थे कि उसे कहाँ-कहाँ उठायें, बिठायें। दिल्ली में उसके चित्रों की शानदार प्रदर्शनी हुई। उस प्रदर्शनी को देखने के लिए जनता उमड़ पड़ी थी, भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी और चित्रा को लग रहा था, जैसे उसके सपने सच हो गए।

भीड़-भाड़ में अचानक उसकी भेंट अरुणा से हो गयी। “रुनी!” कहकर वह भीड़ को भूलकर अरुणा के गले से लिपट गयी। “तुझे कब से चित्र देखने का शौक हो गया, रुनी।”

“अरे, ये बच्चे किसके हैं?” दो प्यारे से बच्चे अरुणा से सटे खड़े थे। लड़के की उम्र दस की होगी तो लड़की की कोई आठ।

“मेरे बच्चे हैं, और किसके! ये तुम्हारी चित्रा मासी हैं, नमस्ते करो अपनी मासी को।” अरुणा ने आदेश दिया।

बच्चों ने बड़ी अदा से नमस्ते किया पर चित्रा हैरान होकर कभी उनका और कभी अरुणा का मुँह देख रही थी। वह सारी बात का कुछ तुक नहीं मिला पा रही थी। तभी अरुणा ने टोका, “कैसी मासी है, प्यार तो कर।” और चित्रा ने दोनों के सिर पर हाथ फेरा। प्यार का जरा-सा सहारा पाकर लड़की चित्रा की गोदी में जा चढ़ी। अरुणा ने कहा, “तुम्हारी ये मासी बहुत अच्छी तस्वीरें बनाती हैं, ये सारी तस्वीरें इन्हीं की बनायी हुई हैं।”

“सच?” आश्चर्य से बच्ची बोल पड़ी। “तब तो मासी, तुम जरूर चित्रकला में पहला नंबर लाती होगी। मैं भी पहला नंबर लाती हूँ-तुम हमारे घर आओगी तो अपनी कॉपी दिखाऊँगी।” बच्ची के स्वर में मुकाबले की भावना थी। चित्रा और अरुणा इस बात पर हँस पड़ीं।

“आप हमें सब तस्वीरें दिखाइये मासी, समझा-समझाकर।” बच्चे ने फरमाइश की। चित्रा समझाती तो क्या, यों हीं तस्वीरें दिखाने लगी। घूमते-घूमते वे उसी भिखारिनी वाली तस्वीर के सामने आ पहुँचे। चित्रा ने कहा, “यही वह तस्वीर है रुनी, जिसने मुझे इतनी प्रसिद्धि दी।”

“ये बच्चे रो क्यों रहे हैं मासी? तस्वीर को ध्यान से देखकर बालिका ने कहा।”

“इनकी माँ मर गयी, देखती नहीं मरी पड़ी है। इतना भी नहीं समझती!” बालक ने मौका पाते ही अपने बड़प्पन की छाप लगायी।

“ये सचमुच के बच्चे थे मासी?” बालिका ने पूछा।

“अरे, सचमुच के बच्चों को देख कर ही तो बनायी थी यह तस्वीर।”

“हाय राम! इनकी माँ मर गयी तो फिर इन बच्चों का क्या हुआ?” बालक ने पूछा।

“मासी, हमें ऐसी तस्वीर नहीं, अच्छी-अच्छी तस्वीरें दिखाओ, राजा-रानी की, परियों की” उस तस्वीर को और देर देखना बच्ची के लिए भारी पड़ रहा था। तभी अरुणा के पति आ पहुँचे।

परिचय हुआ। साधारण बातचीत के बाद अरुणा ने दोनों बच्चों को उसके हवाले करते हुए कहा, “आप जरा बच्चों को प्रदर्शनी दिखाइये, मैं चित्रा को लेकर घर चलती हूँ।”

बच्चे इच्छा न रहते हुए भी पिता के साथ विदा हुए। चित्रा को दोनों बच्चे बड़े ही प्यारे लगे। वह उन्हें एकटक देखती रही, फिर पूछा, “सच सच बता रुनी! ये प्यारे-प्यारे बच्चे किसके हैं?

“कहा तो, मेरे।” अरुणा ने हँसते हुए कहा।

“अरे, बताओ ना! मुझे ही बेवकूफ बनाने चली है।”

एक पल रुककर अरुणा ने कहा, “बता दूँ?” और फिर उस भिखारिनी वाले चित्र के दोनों बच्चों पर अँगुली रखकर बोली, “ये ही वे दोनों बच्चे हैं।”

‘क्या sss!” हैरानी से चित्रा की आँखें फैली की फैली रह गयी।

क्या सोच रही हैं, चित्रा ?”

“कुछ नहीं मैं… मैं सोच रही थी कि…” पर शब्द शायद उसके विचारों में ही खो गए।

खिझलाहट – खीझ से भरी हुई

उल्लास – हर्ष या खुशी

घनचक्कर – जंजाल

कमबख्त – बदकिस्मत, हतभाग्य

प्रतीक – प्रतिरूप, चित्र

शोहरत – प्रसिद्धि

पण्डिता – विदुषी

प्रतियोगिता – मुकाबला

छात्रावास = हॉस्टल

आश्चर्य – हैरानी

मेस – हॉस्टल का भोजन कक्ष

फरमाइश – इच्छा

वार्डन – छात्रावास या हॉस्टल की प्रधान

अमृता शेरगिल – मशहूर चित्रकार

निरक्षरता – अनपढ़ता

अनुमति – आज्ञा

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-

(1) छात्रावास में रहने वाली दो सहेलियों के नाम क्या थे?

उत्तर – छात्रावास में रहने वाली दो सहेलियों के नाम थे, चित्रा और अरुणा।

(2) चित्रा कहानी के आरंभ में अरुणा को क्यों जगाती है?

उत्तर – चित्रा कहानी के आरंभ में अरुणा को अपने द्वारा बनाए गए  चित्र को दिखाने के लिए जगाती हैl

(3) अरुणा चित्रा के चित्रों के बारे में क्या कहती है?

उत्तर – अरुणा चित्रा के चित्रों को देखकर उसके बारे में यह कहती है कि कागज पर इन बेजान चित्रों को बनाने की बजाय दो चार जिंदगियाँ क्यों नहीं बना देती? ऐसा करना ज़्यादा सार्थक होगा।

(4) अरुणा छात्रावास में रात को देर से लौटती है तो शीला उसके बारे में क्या कहती है?

उत्तर – अरुणा छात्रावास में रात को देर से लौटती है तो शीला उसके बारे में कहती है कि आज सवेरे से ही अरुणा बड़ी परेशान थीl फुलिया दाई का बच्चा बड़ा बीमार था, दोपहर से वे उसी के यहाँ बैठी थीl

(5) चित्रा के पिता जी ने पत्र में क्या लिखा था?

उत्तर – चित्रा के पिताजी ने पत्र में लिखा था कि जैसे ही उसकी पढ़ाई खत्म हो जाए वह विदेश जाकर अपने आगे की पढ़ाई कर सकती हैl

(6) अरुणा बाढ़ पीड़ितों की सहायता करके स्वयंसेवकों के दल के साथ कितने दिनों बाद लौटीं?

उत्तर – अरुणा बाढ़ पीड़ितों की सहायता करके स्वयंसेवकों के दल के साथ 15 दिन बाद लौटीl

(7) विदेश में चित्रा के किस चित्र ने धूम मचायी थी?

उत्तर – विदेश में चित्रा के उस चित्र ने धूम मचायी थी जिसमें मृत भिखारिन के दो बच्चे उसके सूखे शरीर से लिपटे हुए थे।

II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर तीन या चार पंक्तियों में दीजिए :-

(1) अरुणा के समाज सेवा के कार्यों के बारे में लिखिए।

उत्तर – अरुणा एक सहृदयी युवती है। वह गरीब और अनपढ़ बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाती हैl फुलिया दाई के बीमार बच्चे की देखभाल के लिए वह दोपहर से रात तक उसके पास बैठी रहती हैl वह बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए वहाँ पहुँच कर 15 दिनों तक सेवा कार्य करती है।  इतना ही नहीं भिखारिन के दोनों बच्चों का लालन-पालन भी अपने बच्चे की तरह ही करती हैl

(2) मरी हुई भिखारिन और उसके दोनों बच्चों को उसके सूखे शरीर से चिपक कर रोते देख चित्रा ने क्या किया?

उत्तर – मरी हुई भिखारिन और उसके दोनों बच्चों को उसके सूखे शरीर से चिपक कर रोते देख चित्रा ने झटपट कागज़ पर उस कारुणिक दृश्य को उतार लिया। उसे यह दृश्य अपने नए चित्र के लिए बिलकुल माकुल प्रतीत हो रहा था।

(3) चित्रा की हॉस्टल से विदाई के समय अरुणा क्यों नहीं पहुँच सकी?

उत्तर – चित्रा की हॉस्टल से विदाई वाले दिन ही अरुणा को चित्रा से पता चला कि गर्ग की दुकान के सामने पेड़ के नीचे अक्सर जो एक भिखारिन बैठी रहा करती थी, आज वह मर गई और उसके दोनों बच्चे उसके सूखे शरीर से लिपटे हुए हैं। यह सुनकर अरुणा का हृदय करुणा से भर गया और वहाँ जाकर उसने उन बच्चों को संभाला जिसमें बहुत समय लग गया। इस वजह से वह चित्रा की हॉस्टल से विदाई के समय नहीं पहुँच सकी। 

(4) प्रदर्शनी में अरुणा के साथ कौन से बच्चे थे?

उत्तर – चित्रा के चित्रों की प्रदर्शनी में अरुणा के साथ मृत भिखारिन के ही दोनों बच्चे थे।

III. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर छह या सात पंक्तियों में दीजिए-

(1) दो कलाकार कहानी का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – ‘दो कलाकार’ कहानी का उद्देश्य पानी की तरह साफ है। मन्नू भंडारी अपनी इस कहानी के माध्यम से यह संदेश देना चाहती हैं कि जीवन में सभी लोग एक-एक कलाकार हैं। सब अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं बशर्ते तय यह किया जाता है कि किसके कामों से कितने लोगों की ज़िंदगी में खुशियाँ आती हैं। चित्रा की चित्रों से उसे शोहरत मिलती है तो अरुणा की समाज सेवाओं से लोगों की ज़िंदगियों में खुशियाँ आती हैं। हमें भी यही तय करना है कि हम किस तरह के कलाकार हैं। अगर हमारे कर्मों से दूसरों के होंठों पर मुस्कुराहट और जीवन में खुशहाली आती है तो यही हमारे जीवन की सार्थकता है।  

(2) दो कलाकार के आधार पर अरुणा का चरित्र चित्रण करें।

उत्तर – मन्नू भंडारी की मूर्धन्य रचना ‘दो कलाकार’ के आधार पर अरुणा का चरित्र चित्रण कुछ इस प्रकार है –

सहृदय युवती – अरुणा करुणा की साक्षात प्रतिमूर्ति है। उससे किसी का भी दूख देखा नहीं जाता। समाज सेवा करके प्राय: वह हॉस्टल देर से पहुँचती है। वह गरीब बच्चों को मुफ्त में पढ़ाती है। बाढ़-पीड़ितों की मदद करने लिए तत्काल वहाँ पहुँचती है। फुलिया दाई के बच्चे की देखभाल के लिए दोपहर से रात तक बैठी रहती है। यहाँ तक कि मृत भिखारिन की दोनों बच्चों को गोद ले लेती है।

सच्ची सखी – वह अपनी सखी चित्रा के साथ भी बहुत अच्छा व्यवहार करती है। जब उसे यह पता चलता है कि चित्रा आगे की पढ़ाई के लिए विदेश चली जाएगी तो वह यह कह बैठती है कि इन छह सालों के साथ के बाद कभी लगा ही नहीं कि तुमसे अलग होना पड़ेगा। अपनी सखी चित्रा के विदेश जाने समय उसका सारा सामान वह स्वयं बाँधती है।

(3) चित्रा एक मंझी हुई चित्रकार है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं?

उत्तर – चित्रा एक मंझी हुई चित्रकार है। इसमें दो राय है ही नहीं। मैं इस कथन से पूर्णत: सहमत हूँ। चित्रा के चित्र सचमुच उच्चकोटी के हुआ करते थे। उसने तो अमृता शेरगिल जैसे विलक्षण व्यक्तित्व को अपना आदर्श बना रखा था। अपने चित्रों के प्रति वह इतनी सजग और संवेदनशील होती है कि किसी चित्र का काम समाप्त होते ही वह यह जानने को आतुर हो जाती है कि लोगों की उसके इस चित्र के प्रति क्या राय है और इसलिए वह सुबह-सुबह अरुणा को जगाकर उससे अपने चित्र के बारे में पूछती है। वह अपने चित्र के थीम को लेकर भी बड़ी जागरूक रहती है तभी तो उस मृत भिखारिन के शरीर से चिपके उसके दोनों बच्चों के दृश्य को वह झटपट कागज़ पर उतार लेती है। विदेश जाने के बाद उसकी चित्रकला में और भी निखार आया। उसकी प्रशंसा में बहुत सारे लेख अखबारों में भी छपने लगे थे। दिल्ली में भी उसके चित्रों की प्रदर्शनी देखने बहुत सारे लोग आए थे जो उनकी विलक्षण प्रतिभा की प्रशंसा कर रहे थे।   

(4) ‘दो कलाकार’ कहानी के शीर्षक की सार्थकता को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – ‘दो कलाकार’ कहानी के शीर्षक की सार्थकता स्वत: ही स्पष्ट है। इस कहानी में भी अरुणा और चित्रा वास्तव में दो कलाकार ही हैं। चित्रा और अरुणा दो अंतरंग सहेलियाँ हैं। चित्रा चित्रकार हैं। उसकी तूलिका में जादू है। उसके बने चित्र राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होते हैं। दूसरी तरफ अरुणा एक समाज सेविका है। वह बेसहारा लोगों को सहारा देती है। वह ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में गरीब और बेसहारा लोगों की बेरंग ज़िंदगी में अपनी सेवा से खूबसूरत रंग भर देती है। चित्रा अपने अद्भुत चित्रों से लोगों के मस्तिष्क को उद्वेलित करती है तो अरुणा अपनी नि:स्वार्थ सेवा भाव से लोगों के हृदय में जगह बनाती है।

(1) निम्नलिखित मुहावरों के अर्थ समझ कर इनका अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए-

मुहावरा   अर्थ          वाक्य

राह देखना – बेसब्री से इंतज़ार करना – माँ अपने बेटे की राह देख रही है।

रोब खाना – प्रभाव या हस्ती मानना – एक समय ऐसा था जब लोग दारा सिंह का रोब खाते थे।   

आँखें छलछल आना – आँसू निकल आना – गरीब बच्चे को भूखा देखकर अरुणा की आँखें छलछला गईं।

पीठ थपथपाना – हौसला शाबाशी देना – शिक्षक ने उमेश की उपलब्धि पर उसकी पीठ थपथपाई।

धूम मचना  – प्रसिद्धि होना – चित्रा के चित्रों ने राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर धूम मचा दी थी।

(2) निम्नलिखित शब्दों के विपरीत शब्द लिखे :-

बेवकूफी – समझदारी

धनी – निर्धन

बंधन – बंधनमुक्त

बीमार – स्वस्थ

गुण – अवगुण

आदर्श – अनादर्श

विदेश – देश

शोहरत – अपकीर्ति

निरक्षरता – साक्षरता

ज़िंदगी – मौत

(3) निम्नलिखित का हिंदी में अनुवाद कीजिए-

(1) ਮੇਰੇ ਬੱਚੇ ਹਨ, ਹੋਰ ਕਿਸਦੇ। ਇਹ ਤੁਹਾਡੀ ਚਿਤਰਾ ਮਾਸੀ ਹੈ, ਨਮਸਤੇ ਕਰੋ ਆਪਣੀ ਮਾਸੀ ਨੂੰ” ਅਰੁਨਾ ਨੇ ਹੁਕਮ ਦਿੱਤਾ।

उत्तर – मेरे बच्चे हैं, और किसके। यह आपकी तस्वीर है आंटी? अपनी आंटी को नमस्कार करो, अरुणा ने आदेश दिया।

(2) ਸੱਚ? ਹੈਰਾਨੀ ਨਾਲ ਬੱਚੀ ਬੋਲ ਪਈ। ਫਿਰ ਤਾਂ ਮਾਸੀ, ਤੁਸੀਂ ਜ਼ਰੂਰ ਚਿੱਤਰਕਲਾ ਵਿੱਚ ਪਹਿਲਾ ਨੰਬਰ ਲਿਆਉਂਦੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਮੈਂ ਵੀ ਪਹਿਲਾ ਨੰਬਰ ਲਿਆਉਂਦੀ ਹਾਂ।

उत्तर – सच? लड़की आश्चर्यचकित होकर बोली। फिर आंटी, आप तो पेंटिंग में फर्स्ट नंबर लाई होंगी। मैं भी पहला नंबर लेकर आती हूँ।

(3) ਚਿੱਤਰਾਂ ਨੂੰ ਨਹੀਂ, ਚਿਤਰਾ ਨੂੰ ਵੇਖਣ ਆਈ ਸੀ। ਤੂੰ ਤਾਂ ਇਕਦਮ ਭੁੱਲ ਹੀ ਗਈ।

उत्तर – वह चित्र देखने आई थी, चित्र दिखाने नहीं। आप तुरंत भूल गए।  

(1) क्या आप ने भी अरुणा की तरह किसी जरूरतमंद या बेसहारा की मदद की है अगर की है तो उस प्रसंग को लिख कर अपने अध्यापक को दिखायें या कक्षा में सुनायें।

उत्तर – मैंने भी एक बार अरुणा की तरह तो नहीं लेकिन उनसे थोड़ी-सी कम ही सही एक जरूरतमंद की मदद की है। बात कुछ ऐसी थी कि उस व्यक्ति की ट्रेन छूटने वाली थी और उसके पास टिकट काउंटर में देने के लिए चिल्लर पैसे नहीं थे। मैंने तत्काल उन्हें चिल्लर पैसे दिए और उसने अपनी टिकट की तथा ट्रेन में सवार हो सका। उन्होंने समय की कमी के कारण केवल आँखों से मुझे धन्यवाद अर्पण किया।

(2) स्कूल में हुई किसी चित्र प्रदर्शनी या प्रतियोगिता का अपने शब्दों में वर्णन करें।

उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।

(1) सभी विद्यार्थी मिलकर अपनी चित्रकला की प्रदर्शनी का आयोजन करें। यह आयोजन दीवाली आदि त्योहार पर किया जा सकता है।

उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।  

(2) अपने विद्यालय या शहर में आयोजित होने वाली चित्रकला प्रदर्शनी को देखने जायें और चित्रकला से संबंधित ज्ञान प्राप्त करें।

उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।  

(3) समाज भलाई का काम करने वाले प्रसिद्ध चरित्र मदर टेरेसा, फलोरेंस नाइटगेल, स्वामी दयानंद आदि के जीवन के बारे में पढ़ें तथा इंटरनेट पर सहायतार्थ कार्य करने वालों के बारे में जानकारी प्राप्त करें।

उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।  

अमृता शेरगिल

(30 जनवरी 1913 – 5 दिसम्बर 1941)

पूरा नाम – अमृता शेरगिल

माता का नाम – मेरी एँटोनी गोट्समन (हंगरी मूल की यहूदी ओपेरा गायिका)

पिता का नाम – उमराव सिंह (सिक्ख, संस्कृत-फारसी के विद्वान)

जन्म स्थान – बुडापेस्ट (हंगरी)

मृत्यु स्थान – लाहौर

पति – डॉ विक्टर इगान

नागरिकता – भारतीय

कर्मक्षेत्र – चित्रकला

कर्मभूमि – भारत

उपलब्धियाँ-  

(1) भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने 1976 और 1979 में भारत के नौ सर्वश्रेष्ठ कलाकारों में शामिल किया।

(2) इनकी चित्रकारी को दिल्ली की ‘नेशनल गैलरी’ में धरोहर के रूप में रखा गया है।

(3) उनकी चित्रकारी ‘यंग गर्ल्स’ को पेरिस में ‘एसोसिएशन आफ़ द ग्रैंड सैलून’ तक पहुँचने का अवसर मिला। यहाँ तक पहुँचने वाली अमृता शेरगिल पहली सबसे कम आयु की एशियाई चित्रकार थीं।

 

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