Punjab Board, Class X, Hindi Pustak, The Best Solution Neeti ke Dohe, Raheem, Biharee, Vrind, नीति के दोहे, रहीम, बिहारी एवं वृन्द

रहीम (सन् 1553-1625)

इनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था। इनका उपनाम रहीम था। इनके पिता का नाम बैरम खाँ था। ये अकबर के राज्यकाल में दरबार के नवरत्नों में से एक थे। परंतु जहांगीर के शासनकाल में राजद्रोह के अपराध में इन्हें बंदी कर लिया गया और जागीर भी छीन ली गई। इनकी वृद्धावस्था राजकीय कोप के कारण बड़ी दीनता में बीती। उस समय की दयनीय दशा की छाया इनके कई दोहों में मिलती है। रहीम संस्कृत, फारसी, अरबी, ब्रज और अवधि भाषाओं के ज्ञाता थे। मुसलमान होते हुए भी इन्हें हिंदू गाथाओं और पौराणिक कहानियों का अच्छा ज्ञान था। रहीम तुलसीदास के प्रिय मित्र थे।

रचनाएँ- ‘रहीम सतसई’ रहीम की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है। इसमें जीवन के गहरे अनुभवों का निचोड़ है। इनकी भाषा सरल और सुबोध है। शैली मुक्तक है। इन्होंने दोहा छंद को अपनाया है।

बिहारी (सन् 1603-1664)

महाकवि बिहारी लाल का जन्म ग्वालियर के पास बसुआ गोविंदपुर गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम केशवराय था। बिहारी जी की जन्म व मृत्यु तिथि के संबंध में विद्वानों का एक मत नहीं है। इन्होंने आचार्य केशवदास से काव्य कला की शिक्षा ग्रहण की थी। विवाह के बाद ये अपनी सुसराल मथुरा में रहने लगे। कहा जाता है कि शाहजहाँ ने बिहारी को आगरा बुलाया और पुरस्कृत किया था। इसके बाद ये जयपुर के राजा जयसिंह के आश्रय में चले गए। वहाँ इन्होंने ‘सतसई’ की रचना की। वहाँ इनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी। जिसके बाद ये वृंदावन में चले गए, जहां सन् 1664 में इनका देहांत हो गया।

रचनाएँ- ‘बिहारी सतसई’ बिहारी की ख्याति का आधार है। यह उनकी एकमात्र रचना है। इनमें सात सौ सत्रह दोहे हैं। इनकी भाषा ब्रज है। बिहारी के दोहों में शृंगार रस मुख्य है। इसके साथ- साथ भक्ति, नीति, प्रकृति चित्रण आदि वर्णन में भी बिहारी किसी से पीछे नहीं हैं। इनकी शैली मुक्तक है। इन्होंने दोहा छंद को अपनाया है। बिहारी के दोहों के बारे कहा गया है।

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन को छोटे लगें, घाव करें गंभीर”॥

वृंद (सन् 1685-1765)

वृंद का नाम रीतिकालीन परंपरा के अंतर्गत बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। अन्य प्राचीन कवियों की भाँति वृंद की जन्म व मृत्यु तिथि के संबंध में विद्वानों का एक मत नहीं है। वृंद कवि मेवाड़ (जोधपुर) के रहने वाले थे। इन्होंने काशी में जाकर संस्कृत पढ़ी थी। कहा जाता हैं कि ये कृष्णगढ़ नरेश महाराज राजसिंह के गुरु थे और उनके साथ औरंगजेब की फौज में ढाका में गए थे। इनके वंशधर अब तक कृष्णगढ़ में हैं। ये जोधपुर में महाराज जसवंत सिंह के दरबार में भी रहे थे।

रचनाएँ – इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-’वृंद सतसई’, ‘पवन पचीसी’, ‘हितोपदेश संधि’, ‘वचनिका’, ‘शृंगार शिक्षा’ और ‘भाव पंचाशिका’। इनमें वृंद सतसई बहुत प्रसिद्ध हैं, जिसमें नीति के सात सौ दोहे हैं। इनके नीति के दोहे जन साधारण में बहुत प्रसिद्ध हैं। इनकी भाषा सरल है व लोकोक्तियों का सुंदर प्रयोग हुआ है। इनका काव्य लोक नीति का सुंदर संग्रह है।

प्रस्तुत संकलन में ‘नीति के दोहे के अंतर्गत महाकवि रहीम, बिहारी व वृंद के नीति से संबंधित शिक्षा दायक व प्रेरणादायक दोहे हैं।

प्रथम दोहे में रहीम जी कहते है कि संपत्ति या अच्छे समय में आपके बहुत से मित्र बन जाते हैं, परंतु जो विपत्ति या कठिनाई में साथ देता है वही सच्चा मित्र हैं।

दूसरे दोहे में रहीम जी अपना लक्ष्य या ध्येय एक ओर केंद्रित करने की शिक्षा देते हैं। उनका कहना है कि एक की साधना पूरी तरह करने से सब साधे जाते हैं और सबके पीछे दौड़ने पर सब बेकार हो जाता है, जिस प्रकार वृक्ष की जड़ को सींचने पर फूल, फल सब तृप्त हो जाते हैं।

तीसरे दोहे में स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ के महत्व को दिखाया है जिस तरह वृक्ष अपना फल खुद न खाकर संसार को दे देते हैं तालाब अपना जल दूसरों के लिए देते हैं उसी प्रकार दानी व्यक्ति अपनी संपत्ति परमार्थ या दूसरों की भलाई के कार्यों में लगाते हैं।

चौथे दोहे में रहीम जी कहते हैं कि किसी वस्तु छोटे आकार को देखकर उसके महत्व को नहीं भूलना चाहिए जिस प्रकार सुई जो कार्य कर सकती है वह तलवार जैसी बड़ी चीज भी नहीं कर सकती अतः हमें बड़ी वस्तु को देखकर छोटी वस्तु की उपयोगिता को भूलना नहीं चाहिए।

पाँचवें दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि कनक (सोने) का नशा धतूरे (कनक) के नशे से सौ गुना है क्योंकि धतूर (कनक) को तो खाने से ही नशा चढ़ता है पर सोना (कनक) अर्थात् धन संपत्ति तो जिस व्यक्ति के पास आ जाती है उसे दौलत का नशा चढ़ जाता है।

छठे दोहे में बिहारी जी ने एक भँवरे के माध्यम से मानव को आशावादी होने का संदेश दिया है। उनका कहना है कि पतझड़ में भी इसी उम्मीद के साथ भँवरा फूल की डालियों के पास रहता है कि बसंत आने पर इनमें फिर फूल लगेंगे अर्थात् मानव को निराश न होकर आने वाले अच्छे दिनों के लिए आशावादी होना चाहिए।

सातवें दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि एक जैसे स्वभाव या प्रकृति वालों का साथ ही ज़्यादा देर रहता है जैसे पान की पीक लाल रंग की होती है, वह ओठों पर रहती है। काजल काले रंग का होता है, वह आँखों में बसता है।

आठवें दोहे में बिहारी जी गुणों के महत्व पर जोर देते हैं गुणी – गुणी कहने से बिना गुण वाला गुणवान नहीं हो जाता जैसे अर्क यानि आक का पौधा सूर्य के समान नहीं हो जाता क्योंकि सूर्य को भी अर्क कहते हैं। इसलिए हमें नाम पर ही नहीं गुण या योग्यता पर ध्यान देना चाहिए।

नौवें दोहे में वृंद जी परिश्रम के महत्व के बारे में कहते हैं कि लगातार मेहनत करने से मूर्ख भी विद्वान हो सकता है, जिस तरह बार-बार रस्सी घिसने से पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं अतः कमजोर व्यक्ति भी लगातार मेहनत करके अपने लक्ष्य को पा सकता है।

दसवें दोहे में वृंद छल और कपट के व्यवहार को थोड़ी देर चलने वाला ही मानते हैं कि जिस तरह काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ सकती उसी तरह धोखेबाज व्यक्ति एकाध बार तो चालाकी कर सकता है लेकिन उसकी चालाकी बार-बार नहीं चल पाती।

ग्यारहवें दोहे में वृंद मीठे वचनों के महत्व को दर्शाते हुए कहते हैं कि हैं जिस तरह उबल रहे दूध का उफान ठंडे जल के छींटे से दूर हो जाता है उसी तरह ही गर्व या घमंड को मीठे वचनों से शांत किया जा सकता है।

बारहवें दोहे में वृंद शिक्षा देते हैं कि अपने शत्रु को कभी भी कम में नहीं लेना चाहिए जिससे बात बिगड़ जाती है जैसे छोटा-सा अंगारा तिनकों के बड़े समूह को जला सकता है। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि छात्र-छात्राओं को अपने ध्येय को कभी कम में न लेकर उसके लिए पूरी अर्थात युद्ध स्तर पर तैयारी करनी चाहिए।

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

विपत कसौटी जे कसे, सोई साँचै मीत (1)

एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।

रहिमन सींचे मूल को, फूलै फलै अधाय॥ (2)

तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान।

कहि रहीम पर काज हित, संपत्ति संचहिं सुजान॥ (3)

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।

जहाँ काम आवे सुई का करे तरवारि॥ (4)

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।

बह खाये बौरात है, यह पाये बौराय॥ (5)

इहि आशा अटक्यों रहै, अलि गुलाब के मूल।

हो इहै बहुरि बसन्त ऋतु, इन डारनि पै फूल॥ (6)

सोहतु संग समानु सो, यह कहै सब लोग।

पान पीक ओठनु बनें, नैननु काजर जोग॥ (7)

गुनी गुनी सबकै कहैं, निगुनी गुनी न होतु।

सुन्यों कहूँ तरू अरक तें, अरक-समान उदोतु॥ (8)

करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥ (9)

फेर न ह्वै है कपट सों, जो कीजै व्यापार।

जैसे हाँडी काठ की, चढ़ न दूजी बार॥ (10)

मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान।

तनिक सीत जल सौं मिटे, जैसे दूध उफान॥ (11)

अरि छोटो गनिये नहीं जाते होत बिगार।

तृण समूह को तनिक में, जारत तनिक अंगार॥ (12)

रहीम

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

विपत कसौटी जे कसे, सोई साँचै मीत (1)

शब्दार्थ

सगे – अपने

बनत – बनना

बहु – बहुत

रीत – संबंध

बिपति – विपत्ति, कष्ट

कसौटी – परीक्षा

जे – जो 

कसे – खरा

सो – वही

साँचे – सच्चा

मीत – मित्र

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार रहीम जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से रहीम जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें जीवन अच्छे और सच्चे मित्रों की पहचान कैसे करनी चाहिए?  

व्याख्या

रहीम जी सच्चे दोस्तों की पहचान करने का तरीका बताते हुए कह रहे हैं कि जब हमारे पास बहुत धन-संपत्ति होती है तो दूर-दूर के रिश्ते बन जाते हैं पर हमारा सच्चा मित्र और सच्चे संबंधी वे ही होते हैं जो संकट के समय में हमारा साथ न छोड़ें। 

एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।

रहिमन सींचे मूल को, फूलै फलै अधाय॥ (2)

शब्दार्थ

साधे – अनुकरण करना

सींचे – सींचना, सिंचाई करना, पौधों में पानी देना

मूल – जड़

फूलै फलै  –  फूलना और फलना

अघाय — तृप्त

प्रसंग –

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार रहीम जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से रहीम जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें जीवन में एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।  

व्याख्या

प्रस्तुत दोहे के माध्यम से रहीम हमें यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमें अपने जीवन का एक ही लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए और उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देना चाहिए। ऐसा करने पर हमें अभीष्ट लक्ष्य ज़रूर प्राप्त होगा और एक बार  लक्ष्य प्राप्त हो जाने के बाद हम वो सभी चीज़ें प्राप्त कर सकते हैं जिसकी कभी हमने कल्पना की थी।     

तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान।

कहि रहीम पर काज हित, संपत्ति संचहिं सुजान॥ (3)

शब्दार्थ

तरुवर – पेड़

खात – खाना

सरवर – सरोवर

पियहि – पीना 

पान – पानी 

कहि – कहना

पर – दूसरा 

काज – काम

हित – के लिए, भलाई

संचहि – संचय करना

सुजान – सज्जन

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार रहीम जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से रहीम जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें जीवन में धन का उपयोग जरूरतमंदों की मदद के लिए करना चाहिए।    

व्याख्या

रहीम जी का मानना है कि जिस प्रकार पेड़ अपना फल खुद नहीं खाता, नदी अपना जल खुद नहीं पीती उसी प्रकार सज्जन भी धन का संचय ज़रूरतमंदों की मदद करने के लिए करते हैं। यही सच्ची मानवता है।

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।

जहाँ काम आवे सुई का करे तरवारि॥ (4)

शब्दार्थ

देखि – देखकर

बड़ेन – बड़ा

लघु – छोटा

डारि – छोड़ देना

तरवारि – तलवार

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार रहीम जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से रहीम जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें सभी को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए।  

व्याख्या

प्रस्तुत दोहे के माध्यम से रहीम कह रहे हैं कि हमें सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिए। इस दुनिया में अपनी-अपनी जगह पर सभी की आवश्यकता हैं। हमारा बड़े लोगों को देखकर उनसे संबंध स्थापित करते समय हमें छोटे लोगों का साथ नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार जहाँ सुई काम आती है वहाँ तलवार कुछ भी नहीं कर सकता।

 

बिहारी

कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।

बह खाये बौरात है, यह पाये बौराय॥ (5)

शब्दार्थ

कनक – धतूरा -एक नशीला फल

कनक – स्वर्ण

ते – से

सौ गुनी – Hundred times

मादकता – नशा

अधिकाय – अधिक होना

बह – वह

खाये – खाकर

बौरात – पागल होना, अभिमानी होना

पाये – पाकर

बौराय – पागल होना, अभिमानी होना

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार बिहारी जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से बिहारी  जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें जीवन में कभी भी अभिमानी या घमंडी नहीं होना चाहिए।  

व्याख्या

बिहारी जी के इस दोहे का अर्थ है कि सोने (कनक) यानी धन का नशा धतूरे (कनक) यानी नशीली वस्तु से सौ गुना अधिक होता है। मनुष्य जब धतूरा का सेवन करता है उसके बाद ही नशा होता है, जबकि सोना (स्वर्ण) मिलने से ही नशा अर्थात् घमंड  हो जाता है।

इहि आशा अटक्यों रहै, अलि गुलाब के मूल।

हो इहै बहुरि बसन्त ऋतु, इन डारनि पै फूल॥ (6)

इहि – इसी

आशा – उम्मीद, आशा

अटक्यौं – अटका हुआ, ठहरा हुआ

अलि – भौंरा,

मूल – जड़

हो इहै – होंगे

बहुरि – फिर से

डारनि पै – डालियों पर

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार बिहारी जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से बिहारी  जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें जीवन में कभी भी शीघ्रता या तीव्रता से कोई अहम फैसला नहीं लेना चाहिए वरन् धीरज के साथ आगे बढ़ना चाहिए।  

व्याख्या

कवि बिहारी जी का मानना है कि विपरीत समय आने पर प्रियजन अपने आश्रय स्थल को एकदम से नहीं छोड़ते हैं। वे तो अच्छे दिन की आशा में अपने आश्रय स्थल में धैर्य धारण कर टीके रहते हैं। ठीक ऐसा ही गुलाब का प्रेमी भौंरा भी करता है। वह भी पुष्प-रहित गुलाब के पौधे की जड़ में अटका रहता है कि पुनः वसंत ऋतु आएगी और इन डालियों में फिर से सुगंधित फूल और पत्ते खिलेंगे।

 

सोहतु संग समानु सो, यह कहै सब लोग।

पान पीक ओठनु बनें, नैननु काजर जोग॥ (7)

शब्दार्थ  

सोहतु – अच्छा लगना

संग – साथ

समानु – एक समान

कहै – कहते हैं

पीक – थूक

ओठनु – होंठ

नैननु – आँखों का

काजर – काजल

जोग – मेल

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार बिहारी जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से बिहारी  जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि समान गुण, धर्म और स्वभाव वाले चीज़ें ही वास्तव में शोभनीय होते हैं।

व्याख्या

अपने इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि ऐसा लगभग सभी लोगों का मानना है कि दो समान गुणों या समान स्वभाव वाले लोगों का साथ ही शोभा देता है जैसे जिस तरह पान चबाने पर वह लाल रंग का हो जाता है और होठों के लाल रंग से मेल खाने लगता है तभी वे दोनों शोभित होते हैं। इसी तरह काजल काले रंग का होता है और आँखों का रंग भी काला होता है तभी जाकर दोनों की शोभा में एकरूपता देखने को मिलती है।

गुनी गुनी सबकै कहैं, निगुनी गुनी न होतु।

सुन्यों कहूँ तरू अरक तें, अरक-समान उदोतु॥ (8)

शब्दार्थ

गुनी – गुणी

सबकै – सब कोई

कहैं – कहते हैं

निगुनी – निर्गुण

होतु – होता है

सुन्यों – सुनते हैं

कहूँ – कहते हैं

तरू – पेड़

अरक – अर्क

तें – को

अरक-समान – अर्क के समान

उदोतु – सूर्य

प्रसंग

 प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार बिहारी जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से बिहारी  जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें किसी के नाम से नहीं वरन् उसके गुणों से उनका आकलन करना चाहिए।

व्याख्या

इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि किसी गुणहीन व्यक्ति को गुणी-गुणी कहने से व्यक्ति गुणवान नहीं बन जाता है। अपने कथन की पुष्टि के लिए बिहारी जी कहते हैं कि जिस प्रकार सूर्य को अर्क भी कहते हैं और आक का पौधा भी अर्क कहलाता है लेकिन अर्क के पौधे को सूर्य कहने से उसमें सूर्य के समान गुण नहीं आ जाते हैं। अतः, हमें किसी के नाम पर नहीं बल्कि उसके गुण व योग्यता पर ध्यान देना चाहिए।

 

वृंद

करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥ (9)

शब्दार्थ

करत करत – बार-बार करना

जड़मति – मूर्ख , मंद बुद्धि

होत – होता है

सुजान – सज्जन

रसरी – रस्सी

आवत जात – आना-जाना

ते – से

सिल – पत्थर

परत – पड़ता

निसान – निशान

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार वृंद जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से वृंद जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि बार-बार अभ्यास करने से जड़बुद्धि भी बुद्धिमान बन सकता है।  

व्याख्या

कुएँ से पानी खींचने के लिए बाल्टी से बँधी रस्सी को कुएँ के अंदर डाला जाता है। वह रस्सी कुएँ की दीवार से बार-बार रगड़ खाती है जिससे पत्थर पर निशान बन जाते हैं। कवि कहते हैं कि हमारा मस्तिष्क तो हाड़ माँस का बना हुआ है, बार-बार अभ्यास करने से इस पर भी दाग बन ही जाएँगे। इसी तरह बार-बार अभ्यास करने से मंदबुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीख लेता है और बुद्धिमान बन जाता है।

फेर न ह्वै है कपट सों, जो कीजै व्यापार।

जैसे हाँडी काठ की, चढ़ न दूजी बार॥ (10)

शब्दार्थ

फेर – फिर

ह्वै है – होता है

कपट – छल

कीजै – करता है 

व्यापार – आचार-व्यवहार

हाँडी – हंडी

काठ – लकड़ी

दूजी – दूसरी

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार वृंद जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से वृंद जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि बार-बार अभ्यास करने से जड़बुद्धि भी बुद्धिमान बन सकता है।  

व्याख्या

कवि वृंद कहते हैं कि जिस प्रकार लकड़ी से बनी हुई हाँडी (बर्तन) को दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ाया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार जो मनुष्य कपटपूर्ण व्यापार करता है, लोगों को धोखा देता है। उसका व्यापार भी लंबे समय तक नहीं चल सकता है।

मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान।

तनिक सीत जल सौं मिटे, जैसे दूध उफान॥ (11)

शब्दार्थ

मधुर – मीठा

वचन – बोली

ते – से

जात – जाति

मिट – मिटना

उत्तम – श्रेष्ठ

जन – आदमी

अभिमान – घमंड

तनिक – थोड़ा

सीत – शीतल

जल – पानी

सौं – से

दूध – गोरस

उफान – दूध का उफ़ान

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार वृंद जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से वृंद जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि मीठे वचनों के प्रयोग से आदमी श्रेष्ठ और पूजनीय बन जाता है।  

व्याख्या

इस दोहे में कवि वृंद कह रहे हैं कि जिस तरह थोड़ा-सा ठंडा पानी उबलते हुए दूध के उफान को शांत कर देता है, उसी तरह मीठे बोल बड़े-बड़े लोगों के घमंड को नष्ट कर देता है और उनके गुस्से को शांत कर देता है। कवि हमें इस दोहे से यह सीख लेने  की सीख दे रहे हैं कि हमें हमेशा मीठी बोली बोलनी चाहिए क्योंकि इसका महत्त्व व्यक्ति के व्यवहार में मुख्य भूमिका निभाता है। जब हम दूसरों के साथ मधुर वचनों में बातें करते हैं, तो हम उन्हें सम्मान और प्रेम का अहसास दिलाते हैं।  

अरि छोटो गनिये नहीं जाते होत बिगार।

तृण समूह को तनिक में, जारत तनिक अंगार॥ (12)

शब्दार्थ

अरि – शत्रु

छोटो – छोटा

गनिये – मानना

जाते – जिससे

होत – होता है

बिगार – बिगाड़

तृण – घास

तनिक – थोड़ा

जारत – जलाना

अंगार – अग्निशिखा

प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार वृंद जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से वृंद जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें कभी भी अपने शत्रु को कमजोर नहीं समझना चाहिए।  

व्याख्या

वृंद जी के अनुसार कभी भी अपने शत्रु को अपने से छोटा या कमज़ोर नहीं समझना चाहिए क्योंकि कई बार छोटी वस्तुएँ भी बहुत बड़ा नुकसान कर देती हैं। जिस प्रकार एक छोटा-सा अंगारा तिनकों के बड़े समूह को जला सकता है, उसी प्रकार एक छोटी वस्तु भी बहुत बड़ा नुकसान कर सकती है।

I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-

(1) रहीम जी के अनुसार सच्चे मित्र की क्या पहचान है?

उत्तर – रहीम जी के अनुसार सच्चे मित्र की पहचान है कि वे हमारी विपरीत परिस्थितियों में सदा हमारी मदद के लिए खड़े रहते हैं।

(2) ज्ञानी व्यक्ति सम्पत्ति का संचय किस लिए करते हैं?

उत्तर – ज्ञानी व्यक्ति सम्पत्ति का संचय जरूरतमंदों की सहायता के लिए करते हैं।

(3) बिहारी जी के अनुसार किसका साथ शोभा देता है?

उत्तर – बिहारी जी के अनुसार समान गुण, धर्म और स्वभाव साथ शोभा देता है।

(4) बिहारी जी ने मानव को आशावादी होने का क्या संदेश दिया है?

उत्तर – बिहारी जी ने मानव को भौंरों के माध्यम से आशावादी होने का संदेश दिया है क्योंकि भौरे पतझर के मौसम में भी गुलाब की डालियों के आस-पास मँडराते रहते हैं। उनका मानना है कि वसंत ऋतु में फिर से इन डालियों पर गुलाब के फूल खिलेंगे और वे फिर से इन फूलों का रसपान कर सकेंगे। ठीक इसी तरह मानव को भी कभी निराश नहीं होना चाहिए और धैर्य धारण करते हुए अच्छे दिनों के लिए आशावादी बने रहना चाहिए।   

(5) छल और कपट का व्यवहार बार-बार नहीं चल सकता इसके लिए वृंद जी ने क्या उदाहरण दिया है?

उत्तर – छल और कपट का व्यवहार बार-बार नहीं चल सकता इसके लिए वृंद जी ने लकड़ी की हाँडी का उदाहरण देते हुए कहा है कि इसे बार-बार चूल्हे पर नहीं बैठाया जा सकता।

(6) निरंतर अभ्यास से व्यक्ति कैसे योग्य बन जाता है? वृंद जी ने इसके लिए क्या उदाहरण दिया है?

उत्तर – निरंतर अभ्यास से व्यक्ति किसी विद्या में कुशल बनकर योग्य बन जाता है।  वृंद जी ने इसके लिए रस्सी से बँधी बाल्टी का उदाहरण दिया है जो कुएँ के अंदर बार-बार आता-जाता है और कुएँ की दीवार पर दाग बना देता है।  

(7) शत्रु को कमजोर या छोटा क्यों नहीं समझना चाहिए?

उत्तर – शत्रु को कमजोर या छोटा नहीं समझना चाहिए क्योंकि छोटे शत्रु भी बड़ा नुकसान कर सकते हैं जैसे एक छोटी सी चिंगारी से बड़े से तिनकों के समूह को जला कर खाक कर सकता है।

II. निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-

(1) रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।

    जहाँ काम आवे सुई, का करे तरवारि॥

 उत्तर – प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार रहीम जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से रहीम जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें सभी को सम्मान की दृष्टि से देखना चाहिए।  

व्याख्या

प्रस्तुत दोहे के माध्यम से रहीम कह रहे हैं कि हमें सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिए। इस दुनिया में अपनी-अपनी जगह पर सभी की आवश्यकता हैं। हमारा बड़े लोगों को देखकर उनसे संबंध स्थापित करते समय हमें छोटे लोगों का साथ नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार जहाँ सुई काम आती है वहाँ तलवार कुछ भी नहीं कर सकता।

(2) कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।

   बह खाये बौरात है, यह पाये बौराय॥

उत्तर – प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार बिहारी जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से बिहारी  जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि हमें जीवन में कभी भी अभिमानी या घमंडी नहीं होना चाहिए।  

व्याख्या

बिहारी जी के इस दोहे का अर्थ है कि सोने (कनक) यानी धन का नशा धतूरे (कनक) यानी नशीली वस्तु से सौ गुना अधिक होता है। मनुष्य जब धतूरा का सेवन करता है उसके बाद ही नशा होता है, जबकि सोना (स्वर्ण) मिलने से ही नशा अर्थात् घमंड  हो जाता है।

(3) मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान।

तनिक सीत जल सों मिटे, जैसे दूध उफान॥

उत्तर – प्रसंग

प्रस्तुत दोहा हमारी कक्षा दसवीं की हिंदी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘नीति के दोहे’ से लिया गया है। इस दोहे के रचनाकार वृंद जी हैं। अपने दोहे के माध्यम से वृंद जी हमें यह नीति शिक्षा दे रहे हैं कि मीठे वचनों के प्रयोग से आदमी श्रेष्ठ और पूजनीय बन जाता है।  

व्याख्या

इस दोहे में कवि वृंद कह रहे हैं कि जिस तरह थोड़ा-सा ठंडा पानी उबलते हुए दूध के उफान को शांत कर देता है, उसी तरह मीठे बोल बड़े-बड़े लोगों के घमंड को नष्ट कर देता है और उनके गुस्से को शांत कर देता है। कवि हमें इस दोहे से यह सीख लेने  की सीख दे रहे हैं कि हमें हमेशा मीठी बोली बोलनी चाहिए क्योंकि इसका महत्त्व व्यक्ति के व्यवहार में मुख्य भूमिका निभाता है। जब हम दूसरों के साथ मधुर वचनों में बातें करते हैं, तो हम उन्हें सम्मान और प्रेम का अहसास दिलाते हैं।

(1) निम्नलिखित शब्दों के विपरीत  शब्द लिखें :

संपत्ति – संपत्तिविहीन

हित – अहित

बैर – मित्रता

उत्तम – अधम

आशा – निराशा

(2) निम्नलिखित शब्दों के विशेषण शब्द बनाएँ

प्रकृति – प्राकृतिक

बल – बलवान 

हित – हितकारी

विष – विषैला

मूल – मौलिक

व्यापार – व्यापारिक

(3) निम्नलिखितशब्दों की भाववाचक संज्ञा बनाएँ –

लघु – लघुता

एक – एकता

मादक – मादकता

मधुर – मधुरता, माधुर्य

 

(1) अध्यापक महोदय उपर्युक्त नीति के दोहों पर आधारित शिक्षाप्रद कहानियाँ छात्र- छात्राओं को सुनाएँ और उनसे भी इस प्रकार की कोई सच्ची घटना अथवा कहानी सुनाने के लिए कहें।

उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।

(2) छात्र छात्राएँ इस प्रकार के अन्य दोहों का संकलन कर विद्यालय की भित्ति पत्रिका पर लगाएँ।

उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।

(3) कक्षा में ‘दोहा गायन प्रतियोगिता’ में सक्रिय रूप से भाग लें।

उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।

(4) रहीम अथवा अन्य कवियों के द्वारा रचित दोहों की ऑडियो/वीडियो सी.डी. लेकर अथवा इंटरनेट के माध्यम से सुनें / देखें।

उत्तर – छात्र इस प्रश्न का उत्तर अपने स्तर पर करें।

बिहारी, रहीम तथा वृंद ने नीति की अत्यंत महत्वपूर्ण बातें ‘दोहा’ छंद के माध्यम से की हैं। ‘दोहा’ एक मात्रिक छंद है जिसके पहले तथा तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं।

You cannot copy content of this page