(सन् 1532-1623)
गोस्वामी तुलसीदास हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की सगुण धारा की राम भक्ति शाखा के मूर्धन्य कवि थे। वे अपने समय के प्रतिनिधि कवि थे। उनका समूचा काव्य समन्वय की भावना से निहित है। उन्होंने अपने समाज को ‘रामचरितमानस’ जैसे महाकाव्य के द्वारा भक्ति, ज्ञान और समाज सुधार का उपदेश दिया। उन्होंने ‘राम राज्य’ का एक आदर्श जनता के सम्मुख रखा, इसलिए उन्हें लोक नायक व युग द्रष्टा व युग स्रष्टा भी कहा जाता है।
तुलसीदास का जन्म सन् 1532 में पिता आत्मा राम तथा माता हुलसी के घर बताया जाता है। बचपन में जल्दी ही माता पिता का देहांत होने के कारण इन्हें संघर्ष का सामना करना पड़ा। नरहरिदास नामक महात्मा ने इनका पालन पोषण किया। प्रारंभिक शिक्षा भी इनकी देख-रेख में ही हुई। काशी के महान विद्वान शेष सनातन ने इन्हें वेद शास्त्रों व इतिहास-पुराण का ज्ञान दिया। एक बहुत बड़े विद्वान बनकर तुलसी राजपुर लौटे। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर दीनबन्धु पाठक ने अपनी सुंदर और विदुषी पुत्री रत्नावली का विवाह इनसे कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि इन्होंने अपनी पत्नी के प्रति अगाध आसक्ति के कारण उससे फटकार खाने पर घर छोड़ दिया। तुलसी रामभक्त हो गए।
रचनाएँ :- गोस्वामी तुलसीदास के मुख्य रूप से बारह ग्रंथ प्रसिद्ध हैं जिनमें दोहावली, कवितावली, गीतावली, रामचरितमानस व विनय पत्रिका प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त रामललानहछू, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, बरवै रामायण, कृष्ण गीतावली, वैराग्य संदीपनी तथा रामाज्ञा प्रश्नावली छोटे ग्रंथ हैं। इन्होंने ब्रज, अवधी व संस्कृत भाषा अपनायी। इस महान कवि का निधन सन् 1623 में हुआ।
प्रस्तुत पाठ में तुलसीदास जी के भक्ति एवं शिक्षाप्रद दोहे लिए गए हैं। भक्ति से संबंधित दोहों में कवि ने प्रभु श्रीराम के चरित्र की महानता दर्शाते हुए राम भक्ति के महत्व पर प्रकाश डाला है। इसके अतिरिक्त विभिन्न शिक्षाप्रद दोहों में कवि ने स्वार्थ, ईर्ष्या, लोभ एवं क्रोध को छोड़कर समभाव से जीने का उपदेश दिया है।
प्रथम दोहे में कवि तुलसीदास अपने गुरु के चरणों की धूल से अपने मन रूपी शीशे को साफ करते हुए श्रीराम जी के पावन यश का गान करने को कह रहे हैं जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है।
दूसरे दोहे में श्रीराम के नाम रूपी मणियों से बने दीपक को अपने हृदय में रखने का उपदेश देते हैं। जिस दीपक से हृदय के भीतर और बाहर उजाला हो जाएगा अर्थात अज्ञान का नाश हो जाएगा।
तीसरे दोहे में संतों की तुलना हंस से की गई। जिस तरह हंस नीर-क्षीर विवेक करता है अर्थात दूध और पानी को अलग कर देता है उसी प्रकार संत भी इस संसार को जिस में गुण और दोष-विकार है, वे गुण रख कर दोषों और विकारों को छोड़ देते हैं।
चौथे दोहे में श्रीराम के चरित्र की महानता की बात है, जिन्होने वृक्षों पर रहने वाले वानरों को भी पूरा मान-सम्मान दिया।
पाँचवें दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि ईश्वर से प्रेम करने से, संसार के सभी लोगों से समता रखने से तथा विभिन्न विकारों को छोड़ने से ही भवसागर से पार हुआ जा सकता है।
छठे दोहे में संतों की संगति की महिमा गायी गयी है।
सातवें दोहे में गोस्वामी जी स्वार्थी और ईर्ष्यालु व्यक्ति के भाग्य की बात करते हैं कि जो दूसरों के सुख व समृद्धि को देखकर ईर्ष्या की आग में जलने लगता है, उसका कभी भी हित नहीं हो सकता।
आठवें दोहे में भगवान से उसके भक्त को बड़ा दिखाते हुए तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम जी ने तो लंका जाने के लिए पुल की मदद ली परन्तु उनके भक्त हनुमान जी बिना पुल के ही इतने विशाल समुद्र को लाँघ गए।
नौवें दोहे में नीति की बात बताई गई है कि यदि आपका गुरु, वैद या मंत्री भय या किसी लोभ वश आपकी हर बात ज्यों की त्यों मान लेते हैं तो समझ लीजिए आपका धर्म, शरीर या राज्य नष्ट होने वाला है। यह दोहा रावण के संदर्भ में कहा गया है जिसके मंत्री उसे सही सलाह न देकर डर के कारण उसकी हर बात पर जी हाँ कहते थे, इसी कारण रावण का शीघ्र ही नाश हो गया।
अंतिम दोहे में कवि ने परमात्मा पर विश्वास करके भक्ति करने पर बल दिया है।
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥ 1
राम नाम मनी दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहरु हुँ, जौ चाहसि उजियार॥ 2
जड़ चेतन गुन दोषभय, बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि विकार॥ 3
प्रभु तरुतर कपि डार पर, ते किए आप समान।
तुलसी कहुँ न राम से, साहिब सील निधान॥ 4
तुलसी ममता राम सो, समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुःख, दास भए भव पार॥ 5
गिरिजा संत समागम सम, न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं वेद पुरान 6
पर सुख संपति देखि सुनि, जरहिं जे जड़ बिनु आगि।
तुलसी तिन के भाग ते, चलै भलाई भागि॥ 7
साहब ते सेवक बड़ो, जो निज धरम सुजान।
राम बाँध उतरे उद्धि, लांघि गए हनुमान॥ 8
सचिव वैद गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भयु आस।
राज, धर्म, तन तीनि कर, होइ बेगिही नास॥ 9
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि विनु द्रवहिं न राम।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीवन लह विश्राम॥ 10
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥ 1
शब्दार्थ
श्री गुरु – शिक्षक, संसार के प्रथम गुरु भगवान शिव को माना जाता है।
चरन सरोज – कमल के समान चरण
रज – धूल
निज – अपना
मन – हृदय
मुकुरु – दर्पण या शीशा
सुधारि – सुधार कर
बरनऊँ – वर्णन
रघुबर – श्रीराम
बिमल – विमल या पवित्र
जसु – बुद्धिमान या जिसके पास तेज़ दिमाग हो
दायकु – देने वाला
फल चारि – चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
व्याख्या
इस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं श्री गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर (श्रीराम) के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है।
राम नाम मनी दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहरु हुँ, जौ चाहसि उजियार॥ 2
शब्दार्थ
राम नाम – राम नाम का जाप
मनी – मणि
दीप – दीपक
धरु – धरना या रखना
जीह – जीभ
देहरी – प्रवेश गृह / मुख
द्वार – दरवाजा
भीतर – अंदर
बाहरु – बाहर
हुँ – हैं
जौ – जिससे
चाहसि – चारों ओर
उजियार – उजाला
व्याख्या
तुलसीदास जी अपने इस दोहे में कहते हैं कि यदि तुम्हें भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं अलौकिक ज्ञान) चाहिए तो राम नाम के दीप को अपनी देहरी अर्थात् अपनी जिह्वा पर हमेशा जलाए रख अर्थात् हमेशा राम-नाम का सुमिरन करो इससे आंतरिक और बाहरी दोनों सुख की प्राप्ति निर्मल ज्ञान के साथ निरंतर होती रहती है।
- यह दोहा तुलसीदास जी की रचना पुष्प-पराग के पन्ने 79 पर लिखा है।
- इस दोहे में भक्ति रस का समावेश है।
- इस दोहे में तुलसीदास जी ने प्रभु श्रीराम के नाम-जाप की महत्ता स्पष्ट की है।
जड़ चेतन गुन दोषभय, बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि विकार॥ 3
शब्दार्थ
जड़ – स्थिर जीवनरहित वस्तु
चेतन – जीवनसहित
गुन – गुण
दोषभय – दोष सहित
बिस्व – विश्व, दुनिया
कीन्ह – किया
करतार – सृष्टि करने वाला, रचना करने वाला
संत – सज्जन पुरुष
हंस – एक पक्षी Swan
गहहिं – ग्रहण करना
पय – पीना
परिहरि – त्याग
बारि – पानी
विकार – अवगुण
व्याख्या
हिंदी साहित्य जगत के श्रेष्ठतम विभूति गोस्वामी तुलसीदास जी के रचित ग्रंथ रामचरित मानस से लिए गए इस दोहे का अर्थ है कि विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण और दोषों सहित रचा है, लेकिन संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं। सरल अर्थों में यह कहा जा सकता है कि हमें हमेशा सही का चयन करना चाहिए जैसे हंस पानी मिश्रित दूध में से भी दूध को पीकर पानी को छोड़ देता है वैसे ही हमें अच्छी चीजों का ही चयन करना चाहिए और बुरी चीजों को छोड़ देना चाहिए।
प्रभु तरुतर कपि डार पर, ते किए आप समान।
तुलसी कहुँ न राम से, साहिब सील निधान॥ 4
शब्दार्थ
प्रभु – श्रीराम
तरुतर – वृक्ष के नीचे
कपि – बंदर
डार – डाली
ते – उसे
किए – करना
कहुँ – कहीं
न – नहीं
से – सा
साहिब – साहब
सील – शील
निधान – खजाना
व्याख्या
इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि वानरों के स्वामी श्रीराम तो पेड़ के नीचे विराजते थे और सेवक होने पर भी वानर पेड़ की डालियों पर बैठते थे, तो भी (इस अशिष्टता पर कोई ध्यान न देकर) प्रभु ने उनको अपने ही समान बना लिया। अपने सान्निध्य में प्रभु श्रीराम ने उन्हें भी पूजनीय और स्मरणीय बना डाला।
तुलसी ममता राम सो, समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुःख, दास भए भव पार॥ 5
शब्दार्थ
सो – वही
समता – समानता
संसार – दुनिया
राग – क्रोध
रोष – क्रोध
दोष – विकार
दास – सेवक
भए – होना
भव – दुनिया
व्याख्या
इस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि इस दुनिया में जिनकी भी श्रीराम में ममता भाव झलकता है और सारे संसार के प्रति समता का भाव होता है, जिनका किसी के प्रति भी राग, द्वेष, दोष और दुख का भाव नहीं है, वास्तव में प्रभु श्रीराम के ऐसे भक्त भव सागर से पार कर चुके हैं।
गिरिजा संत समागम सम, न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं वेद पुरान॥ 6
शब्दार्थ
गिरिजा – माता पार्वती
संत – सिद्ध पुरुष
समागम – मेल
सम – समान
कछु – कुछ
आन – और
बिनु – बिना
हरि – विष्णु
न – नहीं
होइ – होगा
सो – वही
गावहिं – गाता है
पुरान – पुराण
व्याख्या
गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस में भगवान शंकर ने माता पार्वती को संबोधित करते हुए कहा कि संसार में वे लोग भाग्यशाली हैं जिन्हें सच्चे हृदय वाले सत्पुरुष पग पग पर मार्गदर्शन के लिए मिलते रहें। इससे बड़ा लाभ और क्या हो सकता है। पर पृथ्वीलोक पर ऐसा सुखद संयोग श्रीहरि की कृपा के बिना नहीं हो सकता, ऐसा ही वेद और पुराणों में भी वर्णित है।
पर सुख संपति देखि सुनि, जरहिं जे जड़ बिनु आगि।
तुलसी तिन के भाग ते, चलै भलाई भागि॥ 7
शब्दार्थ
पर – दूसरों की
संपति – संपत्ति
देखि – देखकर
सुनि – सुनकर
जरहिं – जलना, ईर्ष्या करना
जे – जो
जड़ – मूर्ख
बिनु – बिना
आगि – आग
तिन – उनका
भाग – भाग्य
ते – से
चलै – चले जाना
भागि – भागना, पलायन करना
व्याख्या
संत कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि जो मूर्ख व्यक्ति दूसरे मनुष्य की सुख-सम्पत्ति व ऐश्वर्य को देख सुनकर बिना ही आग के ईर्ष्या से जलने लगते हैं, उनके भाग्य से भलाई भाग कर चली जाती है अर्थात् उनका कभी भला नहीं होता है।
साहब ते सेवक बड़ो, जो निज धरम सुजान।
राम बाँध उतरे उद्धि, लांघि गए हनुमान॥ 8
शब्दार्थ
साहब – यहाँ प्रभु श्रीराम
ते – से
सेवक – दास यहाँ हनुमान
बड़ो – बड़ा
निज – अपना
धरम – धर्म
सुजान – सज्जन
बाँध – सेतु
उद्धि – समुद्र
लांघि – लाँघना
व्याख्या
ये दोहा भगवान राम और उनके परम भक्त हनुमान जी के बीच अंतर को दिखाता है। भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। यदि वे चाहते तो एक ही बाण में समुद्र को सुखा सकते थे फिर भी उन्होंने मर्यादित भाव से समुद्र से प्रार्थना की और नल और नील की सहायता से सेतु बनवाया और समुद्र पार कर लंका विजय की। जबकि हनुमान जी उनके भक्त मात्र होने के बावजूद लंका उड़ कर चले गए। इससे ये भी स्पष्ट है कि भगवान अपने को सीमित रखते हुए भी भक्त को असीमित बनाने की क्षमता रखते हैं। इसीलिए अगर भक्त हनुमान जैसा हो तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं रह जाता है। उसके पास अपने भगवान की शक्ति के अतिरिक्त भक्ति की शक्ति भी मिल जाती है।
सचिव वैद गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भयु आस।
राज, धर्म, तन तीनि कर, होइ बेगिही नास॥ 9
शब्दार्थ
सचिव – मंत्री
वैद – डॉक्टर
गुरु – शिक्षक
तीनि – तीनों
बोलहिं – बोलते हैं
भयु – भय
आस – आशा
राज – राज्य
तन – शरीर
होइ – होता
बेगिही – शीघ्र ही
नास – नाश
व्याख्या
तुलसीदास जी अपने इस दोहे से एक कटु सत्य का उद्घाटन करते हुए कह रहे हैं कि मंत्री, वैद्य और गुरु ये तीनों यदि अप्रसन्नता के भय से या व्यक्तिगत लाभ की आशा से हित की बात न कहकर ठाकुरसुहाती बातें या प्रिय बातें ही बोलते हैं, तो राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि विनु द्रवहिं न राम।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीवन लह विश्राम॥ 10
शब्दार्थ
बिनु – बिना
बिस्वास – विश्वास
भगति – भक्ति
नहिं – नहीं
तेहि – उसे
बिनु – बिना
द्रवहिं – द्रवित होना
न – नहीं
सपनेहुँ – सपने में
लह – सुख
व्याख्या
तुलसीदास जी अपने इस दोहे में कहते हैं कि भगवान में सच्चे विश्वास के बिना मनुष्य को कभी भी भगवद्भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती और बिना भक्ति के भगवान द्रवित नहीं होते अर्थात् कृपा नहीं कर सकते। जब तक मनुष्य पर भगवान की कृपा नहीं होती तब तक मनुष्य स्वप्न में भी सुख-शांति नहीं पा सकता। अत:, मनुष्य को भगवान का भजन करते रहना चाहिए ताकि भगवान के प्रसन्न हो जाने पर भक्त को सब सुख-संपत्ति अपने आप प्राप्त हो जाए।
I. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक या दो पंक्तियों में दीजिए-
(1) तुलसीदास जी के अनुसार राम जी के निर्मल यश का गान करने से कौन-से चार फल मिलते हैं?
उत्तर – तुलसीदास जी के अनुसार राम जी के निर्मल यश का गान करने से चारों फल यथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
(2) मन के भीतर और बाहर उजाला करने के लिए तुलसी कौन-सा दीपक हृदय में रखने की बात करते हैं?
उत्तर – मन के भीतर और बाहर उजाला करने के लिए तुलसीदास जी राम-नाम के सुमिरन का दीपक अपने जिह्वा में रखने की बात करते हैं।
(3) संत किस की भाँति नीर-क्षीर विवेक करते हैं?
उत्तर – संत हंस की भाँति नीर-क्षीर विवेक करते हैं।
(4) तुलसीदास के अनुसार भव सागर को कैसे पार किया जा सकता है?
उत्तर – तुलसीदास के अनुसार प्रभु श्रीराम के नाम के प्रति ममता का भाव, संसार के प्रति समता का भाव और मनुष्यों के प्रति राग, द्वेष, क्रोध आदि की भावना न रखकर भव सागर को पार किया जा सकता है।
(5) जो व्यक्ति दूसरों के सुख और समृद्धि को देखकर ईर्ष्या से जलता है, उसे भाग्य में क्या मिलता है?
उत्तर – जो व्यक्ति दूसरों के सुख और समृद्धि को देखकर ईर्ष्या से जलता है, उनके भाग्य से भलाई भाग कर चली जाती है अर्थात् उनका कभी भला नहीं होता है।
(6) रामभक्ति के लिए गोस्वामी तुलसीदास किसकी आवश्यकता बतलाते हैं?
उत्तर – रामभक्ति के लिए गोस्वामी तुलसीदास ईश्वर के प्रति सच्चे विश्वास की आवश्यकता बतलाते हैं क्योंकि इसके बिना मनुष्य को कभी भी भगवद्भक्ति प्राप्त नहीं हो सकती।
II. निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(1) प्रभु तरुतर कपि डार पर, ते किए आप समान।
तुलसी कहुँ न राम से, साहिब सील निधान॥
उत्तर – प्रसंग – प्रस्तुत दोहा हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक के प्रथम अध्याय गोस्वामी तुलसीदास द्वारा कृत दोहावली से लिया गया है। इस दोहे में कवि प्रभु श्रीराम के अन्यतम गुणों का वर्णन है।
व्याख्या – इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि वानरों के स्वामी श्रीराम तो पेड़ के नीचे विराजते थे और सेवक होने पर भी वानर पेड़ की डालियों पर बैठते थे, तो भी (इस अशिष्टता पर कोई ध्यान न देकर) प्रभु ने उनको अपने ही समान बना लिया। अपने सान्निध्य में प्रभु श्रीराम ने उन्हें भी पूजनीय और स्मरणीय बना डाला।
(2) सचिव, वैद, गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भयु आस।
राज, धर्म, तन तीनि कर, होइ बेगिही नास।
उत्तर – प्रसंग – प्रस्तुत दोहा हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक के प्रथम अध्याय गोस्वामी तुलसीदास द्वारा कृत दोहावली से लिया गया है। इस दोहे में कवि पाठकों को एक कटु सत्य से स्वागत कराते हुए कहते हैं कि
व्याख्या – तुलसीदास जी अपने इस दोहे से एक कटु सत्य का उद्घाटन करते हुए कह रहे हैं कि मंत्री, वैद्य और गुरु ये तीनों यदि अप्रसन्नता के भय से या व्यक्तिगत लाभ की आशा से हित की बात न कहकर ठाकुरसुहाती बातें या प्रिय बातें ही बोलते हैं, तो राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
(1) निम्नलिखित शब्दों के विपरीत शब्द लिखें :
संपत्ति – संपत्तिविहीन
सेवक – स्वामी
भलाई – बुराई
लाभ – हानि
(2) निम्नलिखित शब्दों की भाववाचक संज्ञा बनाएँ :
दास – दासता
गुरु – गुरुत्व
निज – निजत्व
जड़ – जड़ता
(3) निम्नलिखित के विशेषण शब्द बनाएँ:
धर्म – धार्मिक
भय – भयानक
मन – मानसिक
दोष – दोषी
(1) अपने विद्यालय के पुस्तकालय से गोस्वामी तुलसीदास से संबंधित पुस्तकों से उनके जीवन की अन्य घटनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(2) तुलसीदास द्वारा रचित दोहों की ऑडियो या वीडियो सी. डी. लेकर अथवा इंटरनेट से इन दोहों को सुनकर आनंद लें और स्वयं भी इन को याद कर लय में गाने का अभ्यास करें।
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
(3) इंटरनेट के माध्यम से राष्ट्रीय दूरदर्शन पर दिखाए ‘तुलसीदास’ के जीवन पर आधारित सीरियल को ग्रीष्म अवकाश में देखें
उत्तर – छात्र इसे अपने स्तर पर करें।
इस पाठ का प्रथम दोहा
“श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर विमल जसु, जो दायकु फल चारि॥”
श्री हनुमान चालीसा का प्रथम दोहा है। गोस्वामी तुलसीदास श्री हनुमान जी के परम भक्त थे। हनुमान चालीसा भी तुलसीदास द्वारा रचित है। हनुमान के पिता का नाम केसरी व माता का नाम अंजना था। हनुमान जी को महाबली व श्रीराम के अनन्य भक्त के रूप में चित्रित किया गया है। लक्ष्मण मूर्च्छा के समय संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जीवन दान दिलाने, सीता जी के बारे में पता लगाने के लिए विशाल समुद्र को पार कर लंका में पहुँचना, रावण के अभिमान को चूर-चूर कर सोने की लंका को जलाने वाले हनुमान जी के पराक्रम की अनेक गाथाएँ हैं। उन्होंने जहाँ राम जी के आदर्श सेवक के रूप में अपने कर्त्तव्य की पूर्ति की, वहाँ सुग्रीव के साथ आदर्श मित्रता भी निभायी।