विवाह एक सामाजिक बंधन है जो मानव जीवन को व्यवस्थित और सुचारु रूप से चलाने के लिए समाज ने बनाया है। विवाह के साथ धार्मिक आस्था और राजनैतिक नियमों के मिल जाने से इसका ढाँचा कुछ ऐसा बन गया है जिसको व्यवस्था भी काफी विस्तृत है। विवाह द्वारा एक पुरुष और एक नारी का पारस्परिक संबंध स्थापित होता है।
आर्य-काल में एक पुरुष एक ही स्त्री के साथ विवाह करता था परंतु धीरे-धीरे बहु विवाह की प्रथा प्रचलित हो चली थी। आरंभ में तो दूसरा विवाह किन्हीं ऐसे कारणों के कारण होता था जिसमें परिवार के नष्ट होने का भय हो अर्थात् संतान उत्पत्ति के लिए और फिर बाद में यह प्रचलित प्रणाली के रूप में ही समाज ने अपना लिया यशस्वी योद्धाओं और वैभवशाली व्यक्तियों ने अपने आनंद उपभोग के लिए भी एक से अधिक विवाह करने प्रारंभ कर दिए जिनके परिणामस्वरूप राम को वन जाना पड़ा, भीष्म को आजन्म ब्रह्मचारी रहना पड़ा और इसी प्रकार की अनेकों घटनाएँ भारतीय इतिहास और प्राचीन ग्रंथों में मिल सकती हैं।
दूसरा विवाह मानव की कमजोरियों का प्रतीक है। यह किन कारणवश होता है यह ऊपर दिया जा चुका है। इन दो कारणों के अतिरिक्त पहली स्त्री के मर जाने पर भी दूसरा विवाह पुरुष का हो जाता है। इस प्रकार का विवाह केवल पुरुषों के लिए वर्जित नहीं है नारी के लिए ही वर्जित है। नारी एक विवाह के पश्चात् दूसरे विवाह का स्वप्न भी नहीं देख सकती। हिंदू-शास्त्रों ने नारी को बहु विवाह की आज्ञा नहीं दी। नारी को सती बनाकर अग्नि कुंड में स्वाहा कर देना उन्होंने पसंद किया परंतु दूसरा विवाह करके अपने शेष जीवन को व्यतीत करना पसंद नहीं किया।
बहु विवाह से मानवता के सिद्धांत को ठेस लगी और नारी जाति का अपमान हुआ। यह अपमान की भावना व्यापक रूप से हिंदू समाज में फैलती चली गई और इसके कारण अनेकों कुप्रथाओं ने समाज में जन्म लिया। सबसे प्रधान वस्तु जो सामने आई वह थी सौत की डाह। यह भावना हिंदू समाज में विशेष रूप से पाई जाती है। यहाँ पर चाहे किसी की स्त्री जीवनपर्यंत बीमार ही क्यों न बनी रहे परंतु वह कभी भी यह पसंद नहीं करेगी कि उसका पति दूसरा विवाह कर ले, किसी अन्य स्त्री को प्रेम करने लगे अथवा अपने दैनिक जीवन में साथी बना सके। चीन के सामाजिक नियमों में स्त्री पुरुष के लिए अपनी विवशता में दूसरी स्त्री खोजकर ले आती है और इस प्रकार वह अपने पति के जीवन को शुष्क नहीं होने देती।
कुछ जातियों में बहु विवाह समाज के लिए लाभदायक भी सिद्ध होता है। भारत में कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनमें स्त्रियों पुरुषों के साथ खेतों में काम करती हैं और घर-गृहस्थ के भी सब कामों को संभालती हैं। ऐसी जाति के व्यक्ति दो-तीन विवाह कर लेते हैं और फिर उनकी सहायता से अपने गृह कार्य को सुचारु रूप से चला लेते हैं। अपने कार्य संचालन के लिए उसे ऐसे साझीदार मिल जाते हैं कि वह सुगमता से अपना कार्यभार संभाल सकता है। परंतु ऐसा बहुत कम होता है। इस प्रकार का संचालन भी कोई बिरला ही कर पाता है अन्यथा जीवन में ऐसी फूट जड़ जमा लेती है कि जीवन ही नरक-तुल्य हो जाता है। बहु विवाह के कारण महाराजा दशरथ को अपने प्राण त्याग देने पड़े थे। बहु विवाह समाज की वह बड़ी कुरीति है कि जिसका जन्म आवश्यकता के कारण होकर बाद में उसे भोग विलास और ऐश्वर्य के लिए उपयोग किया गया।
समाज ने करवट नहीं बदली। कुरीतियाँ कम होने के स्थान पर बराबर बढ़ती ही चली गईं। बहु विवाह के पश्चात् बाल-विवाह की समस्या इस क्षेत्र में आई। बाल-विवाह की समस्या का मूल कारण मुसलमानी शासन व्यवस्था की उच्छृंखलता थी। जब हिंदू लड़कियों पर दिन-दहाड़े छापे मारे जाने लगे तो उनके माता-पिताओं ने उनकी धर्म-रक्षा के लिए बाल विवाह की प्रथा निकाली। इस प्रथा के अनुसार लड़के और लड़कियों के पैदा होने के साथ ही संबंध स्थापित कर दिए जाते थे और इस प्रकार उन्हें उस भय से मुक्त किया जाता था। यह प्रथा हिंदू-समाज के लिए भी हानिकारक सिद्ध हुई। जिस समस्या का हल समझकर इस प्रथा का प्रचार किया गया वह समस्या तो सुलझ न सकी हाँ एक बाल विधवाओं की नई समस्या समाज के सम्मुख आकर खड़ी हो गई। बालक नन्हें कोमल पुष्पों के समान होते हैं। न जाने कितने खिलते हैं और पूर्ण होने से पूर्व ही कुम्हलाकर समाप्त हो जाते हैं। यही दशा इन बाल-विवाहों की भी है।
हिंदू समाज में विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी और बंगाल में सती प्रथा के नाम पर नारी जाति के साथ घोर अत्याचार होने लगे। कुरीतियों की परिस्थिति यहाँ तक गंभीर बनी कि हिंदू स्त्री को अपने मृतक पति की देह के साथ बाँधकर बल पूर्वक चिताओं पर जलवाया जाने लगा। बंगाल के समाज-सुधारक ब्राह्म समाज ने इसके विपरीत विद्रोह किया और अंग्रेजों ने भी नियम बनाकर इस प्रथा को रोका।
आर्यसमाज ने विधवा-समस्या को सुलझाने में सहयोग दिया और भारत के कोने-कोने में सुव्यवस्थित विधवा आश्रम खोल डाले। इन विधवा आश्रमों ने हिंदू समाज का महान हित किया और अनेकों घरों से तंग आकर भागी हुई विधवाओं को अपने अंक में प्रश्रय दिया। इसके फलस्वरूप अनेकों विधवाओं के जीवन नष्ट होने से बच गए और समाज द्वारा वह अपने दुबारा विवाह करा कर आजीवन सुख-चैन की भागी बन गई। आर्यसमाज का यह कार्य हिंदू-समाज के हित में विशेष उल्लेखनीय है परंतु खेद है कि स्वार्थी व्यक्तियों ने इस क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा और इन विधवा आश्रमों में यहाँ तक बुराइयाँ आईं कि वहाँ पर विधवाएँ बिकने लगीं। प्रारंभ में तो उससे विवाह करने वालों से उन पर आश्रम द्वारा किया गया व्यय ही माँगा गया परंतु धीरे-धीरे इसकी मात्रा बढ़ने लगी। फिर भी आर्यसमाज ने इस सामाजिक समस्या को सुझाने में क्रियात्मक कार्य किया।
आज का समाज जागृति की ओर बढ़ रहा है। सरकारी नियमों द्वारा बहु-विवाह पर प्रतिबंध लगता जा रहा है। बाल विवाह के विपरीत पहले ही ‘शारदा विल’ पास हो चुका है परंतु विधवा विवाह आज भी कहीं-कहीं पहले की भाँति सामाजिक समस्या है। यह समस्या सर्वदा समाज को ही सुलझानी होगी क्योंकि सरकार नियम द्वारा विधवा को विवाह करने की आज्ञा मात्र ही दे सकती है, विवाह करने पर बाध्य नहीं कर सकती।