Sahityik Nibandh

भक्ति काल की निर्गुण-भक्ति-धारा

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भक्ति काल में निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति के रूप में ईश्वर की उपासना की दो प्रणालियाँ प्राप्त होती है। इनमें से निर्गुण भक्ति में ईश्वर के निराकार स्वरूप की भक्ति की गई है और सगुण भक्ति में ईश्वर के अवतार रूप की उपासना हुई है। निर्गुण भक्ति के अंतर्गत ईश्वर के रहस्य को प्राप्त करने के लिए ज्ञान और प्रेम की दो प्रणालियों को अपनाया गया है। इन भक्ति प्रणालियों को क्रमशः ‘ज्ञानाश्रयी’ और ‘प्रेमाश्रयी’ कहते हैं। आगे हम इन दोनों का पृथक् पृथक् परिचय देंगे।

ज्ञानाश्रयी भक्ति – शाखा

इस शाखा के कवियों ने ईश्वर प्राप्ति के लिए ज्ञान का आश्रय लिया। इनके मत को ‘संत-मत’ भी कहा जाता है। जिस समय इन्होंने काव्य- रचना की उस समय भारत पर मुसलमानों का शासन स्थापित हो चुका था। हिंदुओं और मुसलमानों के भक्ति मार्ग भिन्न-भिन्न थे उनमें एकता लाने के लिए यह आवश्यक था कि उनकी भक्ति-पद्धति को एक जैसा रखा जाए। अतः ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों ने गोरख पन्थ के हठयोग, वेदान्त के ज्ञानवाद, सूफीमत की प्रेम भावना और वैष्णवों के अहिंसा आदि विविध सिद्धांतों को मिलाकर एक नवीन भक्ति मार्ग की स्थापना की। इन्होंने व्यक्तिगत साधना पर विशेष बल दिया है। इन्होंने गुरु की सहायता से ईश्वर को प्राप्त करने की विधि का प्रतिपादन किया है और रूढ़िवाद, मिथ्या आडम्बरों तथा जाति-भेद का तीव्र विरोध किया है।

इस भक्ति धारा को प्रारंभ करने का श्रेय महात्मा कबीर को है। अतः ये सभी सिद्धांत उनके काव्य में सरलता से प्राप्त हो जाते है। आगे हम इस धारा के सभी कवियों के काव्य पर प्रकाश डालेंगे।

(1) महात्मा कबीर –

महात्मा कबीर अशिक्षित थे, किंतु सज्जनों के सत्संग से उन्होंने पर्याप्त ज्ञान का संचय किया था। उनकी वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नामक ग्रंथ में उपलब्ध होता है। यह कृति रमैनी, सबद एवं साखी नामक तीन भागों में विभक्त है। महात्मा कबीर ने अपने काव्य को साधारण भाषा में उपस्थित किया है। उन्होंने अपने युग में प्रचलित धार्मिक पाखंडों तथा जाति-भेद का तीव्र विरोध किया है। उन्होंने भक्ति में स्वार्थ के न होने को आवश्यक माना है और संतों को शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने का संदेश दिया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना दोहों और गेय पदों के रूप में की है। उनकी मृत्यु के उपरांत उनके शिष्यों ने उनके नाम से ‘कबीर- पन्थ’ की स्थापना की, जो अभी तक प्रचलित है।

(2) संत धर्मदास –

महात्मा कबीर के पश्चात् ज्ञानाश्रयी भक्ति-परंपरा में सन्त धर्मदास का नाम उल्लेखनीय है। वह महात्मा कबीर के शिष्य थे। उन्होंने अपने काव्य को अपने गुरु के काव्य के समान ही उपस्थित किया है। किन्तु वे उनकी खंडन- मंडन की पद्धति से यथेष्ट पृथक् रहे हैं। उनका काव्य पूर्वी हिन्दी भाषा में प्राप्त होता है।

(3) संत रविदास –

संत रविदास ने अपने काव्य की रचना मुक्तक रूप में की है। उनके काव्य में ज्ञानाश्रयी शाखा के सभी प्रमुख सिद्धांत प्राप्त हो जाते हैं। यद्यपि वह जाति के चमार थे, तथापि उन्होंने भक्ति भावना से ओत-प्रोत मार्मिक पदों की रचना की है।

(4) गुरु नानक

संतमत की परंपरा में गुरु नानक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने एकेश्वरवाद की स्थापना करते हुए मूर्ति-पूजा और हिंदू-मुस्लिम-भेद का तीव्र विरोध किया है। उनकी वाणी का संग्रह ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में प्राप्त होता है। वह कबीर के समान अपनी बात का कट्टरता के साथ समर्थन नहीं करते थे। उनके काव्य की भाषा मूल रूप से पंजाबी है, किंतु उसमें खड़ी बोली, ब्रज- भाषा तथा कुछ अन्य देशी भाषाओं के शब्द भी प्राप्त होते हैं।

(5) दादूदयाल –

संत दादूदयाल ने अपने काव्य में संत मत की सभी विशेषताओं को ग्रहण किया है। उनके काव्य पर सूफीमत का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। उनके काव्य में ईश्वर भक्ति के ज्ञान-पक्ष के अतिरिक्त आत्मा के परमात्मा के प्रति प्रेम एवं विरह के मार्मिक चित्र भी प्राप्त होते है। उनके काव्य में कबीर जैसी सुधार-भावना का अभाव रहा है। उनकी भाषा मारवाड़ी और गुजराती के शब्दों से युक्त पश्चिमी हिंदी है। उनके नाम से ‘दादू-पन्थ’ अभी तक प्रचलित है।

(6) सुंदरदास –

ज्ञानाश्रयी शाखा के काव्य की रचना की है। सुशिक्षित होने के धारा के कवियों से पर्याप्त भिन्न रही है। कवियों में महात्मा सुंदरदास ने सबसे परिष्कृत कारण उनकी भाषा-शैली इस फिर भी उनकी विचारधारा संत मत के अनुकूल ही है। उनके काव्य में भाव पक्ष और कला-पक्ष का सुंदर समन्वय उपलब्ध होता है। उनका ‘सुंदर – विलास’ नामक ग्रंथ उसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

(7) मलूकदास –

संत मलूकदास ने आत्म-बोध, वैराग्य, ईश्वरीय प्रेम आदि विभिन्न विषयों को लेकर सुंदर काव्य रचना की है। उनकी भाषा अनेकरूप होते हुए भी सुव्यवस्थित है। उनकी ‘रत्न – खान’ और ‘ज्ञान बोध’ नामक दो रचनाएँ प्राप्त होती हैं।

उपर्युक्त प्रमुख संत कवियों के अतिरिक्त सर्वश्री अक्षर अनन्य, शेख इब्राहीम, वीर भानु, लालदास और हरिदास आदि कतिपय अन्य कवियों ने भी ज्ञानाश्रयी काव्य-धारा के विकास में पर्याप्त योग प्रदान किया है।

प्रेमाश्रयी भक्ति – शाखा

इस धारा के कवियों ने ईश्वर के रहस्य को प्राप्त करने के लिए प्रेम और मधुर भावनाओं का आश्रय लिया है। इसके अतिरिक्त इनसे पूर्व ज्ञानमार्गी संतों ने खंडन – मंडन की पद्धति को अपनाते हुए जिस हिंदू-मुस्लिम संगठन का प्रयत्न किया था, उसे भी उन्होंने नवीन रूप में उपस्थित किया। इस धारा के विकास में योग देने वाले प्रायः सभी कवि मुसलमान थे। अतः इन्होंने हिंदुओं की प्रसिद्ध लोक-कथाओं में सूफी मत के सिद्धांतों का समावेश करते हुए उनमें सांकृतिक संबंध स्थापित करने के प्रयत्न किए। इस धारा के सभी कवियों को हिंदू धर्म, हिंदी भाषा और भारतीय काव्य-पद्धति का अत्यंत साधारण ज्ञान था। फिर भी इनके प्रयत्न की प्रशंसा ही की जाएगी।

प्रेमाश्रयी शाखा के कवियों ने अपने काव्यों की रचना फारसी की मसनवी शैली के अनुसार की है। इसी कारण इन्होंने काव्य कथा को प्रारंभ करने से पूर्व ईश्वर- वन्दना, पैगम्बर स्तुति और अपने समय के बादशाह की प्रशंसा आदि की परंपरा का पालन किया है। इन्होंने आत्मा को पति तथा परमात्मा को पत्नी के रूप में चित्रित करते हुए लौकिक प्रेम के माध्यम से ईश्वरीय प्रेम को उपस्थित किया है। इन्होंने शोक आदि विविध मानवीय भावों की मार्मिक व्यंजना उपस्थित की है। सूफी संतों के अनुसार आत्मा और परमात्मा के मिलन में शैतान (माया) द्वारा बाधाएँ उपस्थित की जाती हैं। प्रस्तुत धारा के कवियों ने भी इसी साधना-प्रणाली को ग्रहण किया है।

इस धारा के काव्यों में विविध साहित्यिक विशेषताएँ ज्ञानाश्रयी धारा के काव्यों की अपेक्षा अधिक मात्रा में प्राप्त होती हैं। इनमें महात्मा कबीर के साधनात्मक रहस्यवाद के स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद को स्थान प्राप्त हुआ है। इस धारा के काव्य प्रबन्धात्मक रूप में लिखे गए हैं और इनमें कथानक की रमणीयता की ओर बराबर ध्यान दिया गया है। इनकी रचना अवधी भाषा में दोहा और चौपाई नामक छंदों में हुई है। इस धारा के प्रमुख कवियों का परिचय इस प्रकार है-

(1) कुतुबन –

कविवर कुतुवन का ‘मृगावती’ नामक काव्य इस धारा का प्रथम ग्रंथ हैं। इसमें चंद्रनगर के राजकुमार तथा कंचनपुर की राजकुमारी की प्रेम कथा का वर्णन किया गया है। इसका कथानक सरल और आकर्षक है तथा इसमें साधक के त्याग और कष्ट सहन का सुंदर वर्णन हुआ है। इसकी रचना अवधी भाषा में हुई है।

(2) मंझन –

कविवर मंझन ने अवधि भाषा में ‘मधुमालती’ नामक काव्य लिखा है। यह काव्य इस समय खंडित रूप में प्राप्त होता है। इसमें कनेसर के राजकुमार मनोहर और महारस की राजकुमारी मधुमालती के प्रेम का वर्णन किया गया है। इसमें तिलस्म और जादू के कुछ मनोरंजक दृश्यों का भी समावेश हुआ है। इनमें कवि ने अनेक स्थानों पर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। इसमें कल्पना को व्यापक स्थान प्राप्त हुआ है और इसकी वर्णन-शैली मार्मिक तथा हृदयग्राही है।

(3) जायसी-

महाकवि जायसी का प्रेमाश्रयी शाखा के कवियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान है। उन्होंने ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’ तथा ‘आखिरी रचना कलाम’ नामक तीन काव्यों की रचना है। इनमें से ‘पद्मावत’ का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। इसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन तथा सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम का वर्णन किया गया है। अन्य सूफी काव्यों की भाँति यह भी एक रूपक काव्य है और इसमें आध्यात्मिकता को स्पष्ट किया गया है।

इसमें कवि की मौलिकता का स्थान-स्थान पर परिचय मिलता है। जहाँ उनके सहयोगी कवियों ने अपने काव्यों में कल्पना का आश्रय लिया है वहाँ उन्होंने ‘पद्मावत’ के उत्तरार्द्ध में ऐतिहासिकता का भी समावेश किया है। इसी प्रकार जहाँ अन्य सूफी कवियों ने अपनी रचनाओं में केवल कोमल भावनाओं को ही स्थान दिया है वहाँ उन्होंने उत्साह, क्रोध तथा युद्ध आदि का चित्रण उपस्थित कर जीवन की अनेकरूपता को स्पष्ट किया है।

(4) उसमान-

कविवर उसमान ने महाकवि जाएसी के ‘पद्मावत’ के अनुसरण पर ‘चित्रावली’ नामक काव्य की रचना की है। इसमें नेपाल के राजकुमार सुजान और रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली के प्रेम का वर्णन किया गया है। इसकी कथा पूर्णतः कवि कल्पित है। इसमें विरह और षट् ऋतुओं का सुंदर वर्णन प्राप्त होता है।

(5) शेख नबी-

कविवर शेख नबी ने ‘ज्ञानदीप’ नामक काव्य की रचना की है। इसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवयानी की प्रेम कथा का वर्णन किया गया है। प्रेमाश्रयी धारा के ग्रंथों के मूल सिद्धांतों का इनमें साधारण रूप में समावेश हुआ हैं।

उपर्युक्त प्रमुख कवियों के अतिरिक्त इस धारा के विकास में श्री कासिम शाह और नूर मुहम्मद ने भी योग दिया है। इन्होंने क्रमशः ‘हंस जवाहिर’ और ‘इन्द्रावती’ नामक काव्यों की रचना की है, किंतु इन कृतियों का विशेष साहित्यिक महत्त्व नहीं है। अतः इस काव्य धारा की समाप्ति कविवर शेख नबी के काव्य के साथ ही माननी चाहिए।

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