समाज पर साहित्य का क्या प्रभाव पड़ता है और साहित्य पर समाज का क्या प्रभाव पड़ता है इसकी निश्चित रूपरेखा बनाना कठिन कार्य है। यह प्रभाव कितना पड़ता है, कैसे पड़ता है, किन परिस्थितियों में पड़ता है, किन परिस्थितियों में कम और किन में अधिक पड़ता है, यह बहुत महत्त्वपूर्ण समस्याएँ हैं जिनका अनुसंधान इतनी सुगमता से नहीं किया जा सकता; हाँ, वस्तुस्थिति की रूप रेखा अवश्य बनाई जा सकती है।
मानव समूह का नाम समाज है और लेखक तथा पाठक दोनों ही समाज के प्राणी हैं। दोनों का समाज पर प्रभाव पड़ता है और समाज का भी दोनों पर प्रभाव पड़ता है। लेखक जो कुछ भी लिखता है उसमें समाज का प्रतिबिंब पड़ता है ओर समाज के व्यक्ति लेखकों की जिन रचनाओं को अध्ययन अथवा मनोरंजन के लिए पढ़ते हैं उनका उन पर प्रभाव पड़ता है। इससे यह सत्य तो स्थिर हो जाता है कि दोनों का दोनों पर प्रभाव पड़ता है परंतु यह आँकना कठिन है कि वह किस दशा में किस मात्रा में और किन विचारों के अधीन पड़ता है।
भारतीय समाज और भौतिकता का प्रभाव उतना नहीं है जितना हृदयवाद का। हमारा समाज भाव प्रवण है, उसमें हृदय-पक्ष प्रधान है और बुद्धि-पक्ष गौण। इसका प्रधान कारण यह है कि समाज का संचालन आदिकाल से धर्म-पक्ष के अधीन हुआ है, विज्ञान के अधीन नहीं। हृदय-पक्ष प्रधान होने के कारण भारतीय समाज पर काव्य के अन्य अंगों की अपेक्षा कविता का अधिक प्रभाव है। नाटक-साहित्य का भारतीय समाज के प्रारंभिक युग में हमें प्राधान्य मिलता है परंतु मध्य युग में आकर नाटक-साहित्य का लोप-सा ही हो गया। विलायती समाज पर भी कविता और नाटक-साहित्य का पर्याप्त प्रभाव है परंतु वहीं हृदय-पक्ष की अपेक्षा बुद्धि पक्ष प्रधान होने के कारण उपन्यास और कहानियों की ओर समाज का अधिक ध्यान है। विलायती समाज में भाव-प्रवणता का अभाव और बुद्धि प्रवणता की तीव्रता मिलती है।
भारतीय समाज में प्राचीन काल से काव्य का महत्त्व रहा है और प्राचीन काव्यों को समाज ने धर्म-ग्रंथ मानकर अपनाया है। गोस्वामी तुलसीदास की रामायण ने समाज पर जो प्रभाव डाला है वह कुरान शरीफ़, बाइबिल और वेदों से किसी प्रकार भी कम नहीं है। रामायण में एक आदर्श समाज का चित्रण होते हुए भी समाज का सच्चा चित्र उसमें वर्तमान है। समाज के गुणों के साथ अवगुणों का भी उसमें चित्रण है। बहु-विवाह और सती प्रथा का रामायण में समावेश है, साथ ही निषादराज से रामचंद्र का मिलन कराकर और भीलनी के झूठे बेर खिलाकर छुआ-छूत की भावना के प्रति विद्रोह प्रकट किया गया है। इस प्रकार समाज का साहित्य पर और साहित्य का समाज पर स्पष्ट प्रभाव मिलता है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही साहित्य की प्रतिष्ठा है। वेद, उपनिषद्, पुराण, धर्मशास्त्र, महाभारत, रामायण सभी काव्य है। इन सभी में राजनैतिक और धार्मिक प्रभावों के साथ-साथ समाज का भी प्रभाव दिखलाई देता है। इन सभी ग्रंथों में कविता की प्रधानता होने के कारण हृदय-पक्ष की ही प्रधानता मिलती है। वेदों में हृदय-पक्ष के साथ ही साथ बुद्धिवाद की भी कमी नहीं है। वेदों में तर्क को भी पर्याप्त स्थान दिया गया है। भारतीय जनता धर्म-प्रधान है इसलिए इन धर्मं-प्रधान काव्यों का समाज पर आज भी कम प्रभाव नहीं है।
किसी भी काव्य का समाज पर प्रभाव दो कारणों से पड़ता है। एक तो उसके काव्य-तत्त्व के कारण और दूसरे उसके विषय के कारण। काव्य का विषय उपयोगिता और भावना के आधार पर प्रभावशाली होता है। कुछ काव्य उपयोगिता प्रधान होते हैं और कुछ भावना प्रधान दोनों में कौन-सा उच्च श्रेणी में रखा जा सकता है यह कहना कठिन है परंतु मानव और समाज दोनों से प्रभावित होता है; कम और अधिक की मात्रा समय और परिस्थिति के अनुसार होती है। प्राचीन काव्यों में धर्म-भावना को प्रधानता हमारे मनीषियों ने रखी है और इसी भावना का समाज पर प्रभावांकन हुआ है। पुराण रस और चमत्कार दोनों की प्रधानता के कारण समाज में व्यापक स्थान पा गए। इनके काव्य-तत्त्व और धर्म-भावना दोनों ने समाज को व्यापक रूप से प्रभावित किया और समाज ने उन्हें आत्मसात किया है। प्राचीन ग्रंथों ने समाज को क्या नहीं दिया है? राम जैसा कर्तव्यपरायण राजा दिया है जो अपनी प्रजा के लिए सीता-जैसी स्त्री का परित्याग कर सकता है; दशरथ-जैसा पिता दिया है जो पुत्र स्नेह में प्राण त्याग कर सकता है; राम-जैसा पुत्र दिया है जो पिता की आज्ञा-पालन करने के लिए चौदह वर्ष का बनवास ग्रहण करता है; भरत और लक्ष्मण-जैसे भाई दिए हैं जो बड़े भाई की सेवा पिता के समान करने को जीवन भर उद्यत रहे; हनुमान जैसे सेवक दिए हैं; कृष्ण-सुदामा-जैसे मित्र दिए हैं; बाल्मीकि जैसे तत्त्वज्ञानी ऋषि दिए हैं, परशुराम जैसे क्रोधी दिए है; सीता-जैसी रानी दी है; कृष्ण-जैसे नीति-परायण दिए है और युधिष्ठिर-जैसे सत्यवादी दिए है। इन उच्चादर्शों के साथ-ही-साथ समाज की कमियों को भी काव्यकारों ने अपने काव्यों में रखकर उनको मानव समाज के लिए हितकर बनाया है। मंथरा की कुटिलता; कैकयी की डाह, महाभारत में जुए में स्त्री तक को दाँव पर रख देना; युधिष्ठिर जैसे सत्यवादी का भी नीति के अंतर्गत झूठ बोलना; दुर्योंधन का लोभ; दानी हरिश्चंद्र का दास की भाँति बिकना इत्यादि मानव और समाज की कमियों को भी प्राचीन साहित्य में उचित स्थान मिला है। ये घट नाऐं मानव जीवन की न्यूनता से साहित्य में आकर साहित्य के सौंदर्य में वृद्धि ही करती हैं कुछ कमी नहीं।
साहित्य ने समाज को राम भक्ति दी है, कृष्ण-भक्ति दी है, अवतारवाद दिया है या इसके विपरीत यह भी कह सकते हैं कि राम भक्ति, कृष्णभक्ति और अवतारवाद ने समाज को राम और कृष्ण भक्ति का सुंदर और सरस साहित्य दिया है। मध्य युग के भक्ति-साहित्य ने समाज को आश्वासन दिया है, साहस दिया है, धेर्य दिया है, निर्भीकता दी है और दी है मंगलमय कामना समाज के नैराश्य में आशा का उदय किया है। वीर गाथा काल के साहित्य ने समाज का उत्साह बढ़ाया है। ज्ञान दिया है। साहित्य के रसोद्रक और उसकी रसानुभूति का समाज पर निरंतर प्रभाव पड़ा है, और पड़ रहा है परंतु सामाजिक चित्रणों से जो साहित्यकार पाठक को उसके अपने जीवन के बीच ले जाकर खड़ा कर देता है, उसमें पाठक अपनापन पाकर जिस आनंद की अनुभूति करता है वह आनंद उसे उत्कृष्ट रसोद्रक में भी प्राप्त नहीं हो सकता। साहित्य कठोर से कठोर हृदय को कोमल बना देता है। वह चट्टान से रसस्रोत बहा सकता है और कोमल से कोमल हृदय को कठोर बना देता है। साहित्य के पास रस है, अलंकार है। अनुभूति है, ज्ञान-तत्त्व है, कल्पना है, हृदय पक्ष है, सगुण और सदोष भाषा है, क्या नहीं है साहित्य के पास। मानव और अमानव जीवन से संबंध रखने वाली हर प्रकार की रचना साहित्य के क्षेत्र में आती है, इतना व्यापक है साहित्य का क्षेत्र। क्षेत्र व्यापक होने के साथ-ही-साथ समाज पर साहित्य का प्रभाव भी व्यापक है।
साहित्य भी दो प्रकार का होता है— व्यक्तिगत साहित्य और समाजगत साहित्य समाजगत साहित्य का तो आधार ही समाज है, जहाँ लेखक चलता ही समाज को लेकर है परंतु व्यक्तिगत अथवा व्यक्तिप्रधान साहित्य भी समाज से बाहर की कोई केवल कल्पना की आधारभूत रचना नहीं हो सकती। मानव समाज का एक अणु है इसलिए वह समाज से पृथक् अपना अस्तित्त्व स्थापित ही नहीं कर सकता। उसे पग-पग पर समाज की आवश्यकता होती है और उसी के सम्मिलन में उसके जीवन और साहित्य की पूर्ति है।
इस प्रकार हमने देखा कि साहित्य और समाज का बहुत घनिष्टतम संबंध है। प्राचीन साहित्य प्राचीन समाज का प्रतिबिंब है और आगामी समाज की रूपरेखा है। उसी प्रकार आज का साहित्य वर्तमान का प्रतिबिंब है और भविष्य की रूपरेखा है। व्यक्ति और समाज के निर्माण में साहित्य का बहुत बड़ा हाथ है और उसी प्रकार साहित्य के निर्माण में व्यक्ति और समाज का। साहित्य हमारे प्राचीन समाज का वह कोष है कि जिसे समाज धरोहर के रूप में वर्तमान समाज को दे गया है और यह समाज आने वाले समाज को दे जाए।