भारत का समाज धर्म और राजनीति दोनों से प्रभावित होता है। वास्तव में यदि हम संगठनों के प्राचीनतम रूपों पर विचार करें तो समाज मानव का सर्वप्रथम संगठन प्रतीत होता है। जब बहुत से मानव एक स्थान पर एकत्रित होकर रहने लगे तो उनकी बाहरी रक्षा के साथ-साथ उसके नित्य जीवन से संबंध रखने वाले नियमों की भी आवश्यकता हुई। इन्हीं नियमों के आधार पर समाज का निर्माण हुआ। शासन व्यवस्था का कार्य भार हल्का करने के लिए एक नियमित और सुसंगठित समाज की आवश्यकता हुई।
धीरे-धीरे मानव ने अपने जीवन को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए समाज व्यवस्था, राज व्यवस्था और धर्म-व्यवस्था का आधार लिया। प्रारंभ में राज्य व्यवस्था और धर्म-व्यवस्थाओं ने प्रबल रूप धारण किया और समाज को गौण रूप दे दिया परंतु सामाजिक संगठन मानव-जीवन के प्रति क्षण के कार्यक्रम से संबंधित होने के कारण मानव जीवन में गौण न हो सका और वह अपनी रूढ़ियों के आधार पर निरंतर अपने को बलवान बनाता चला गया। समाज मानव जीवन की आवश्यकता बन गई। जब तक भारत स्वतंत्र रहा उस समय तक समाज बराबर गौण रूप में ही रहा परंतु उसका आधार भी एक रूप से धर्म होता चला गया, समाज और धर्म दोनों ही मिल-कर एक से प्रतीत होने लगे।
भारत जब पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा गया और राजनीतिक शक्ति का पूर्ण रूप से ह्रास हो गया तो धर्म का राजनीति से संबंध विच्छेद होकर केवल समाज से ही जुड़ गया और दोनों ने मिलकर एक लंबे युग तक हिंदू समाज को जीवित रखने में सहयोग दिया। सामाजिक नियमों ने राजनैतिक सुविधाओं में अपने बंधनों को और दृढ़तर किया और धर्म के आचार्यों ने समाज के ढाँचे को इतना सुदृढ़ बनाया कि इसके नियंत्रण के लिए राज्य का मुँह न ताकना पड़े परंतु इस सुदृढ़ “व्यवस्था से धीरे-धीरे जीवन का ह्रास होने लगा और सामाजिक बंधन लोहे की चारदीवारियों की भाँति ऐसे बन गए कि समाज की सुधार व्यवस्थाएँ इत्यादि के लिए कोई स्थान शेष न रहा। इस अंधकार-काल में धर्म और समाज के नाम पर अंधविश्वास का उदय हुआ और बुद्धिवाद के लिए धर्म और समाज के क्षेत्र में कोई स्थान न रह गया। धर्म और समाज के झूठे पोंगापंथियों ने अपना प्रभुत्व जमाकर समाज को अपने पाखंड के ऐसे चंगुल में फँसाया कि समाज का भविष्य अंधकारपूर्ण हो गया।
समाज में इस काल की कठिन परिस्थितियों और अंधविश्वासों के कारण अनेकों बुराइयाँ पैदा होती चली गईं। मुसलमान-काल में जब शासकों के दुर्व्यवहार से समाज तंग आ गया तो उसने बाल विवाह की प्रथा निकाली। लड़का और लड़की पैदा हुए और उनका संबंध जोड़कर विवाह कर दिया। यह किया गया समाज की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए। परंतु इसके फलस्वरूप समाज में एक नवीन कुरीति का प्रादुर्भाव हुआ और वह थी बाल विधवाओं की समस्या।
मुसलमानों की पर्दा प्रथा का भी भारतीय समाज पर प्रभाव पड़ा। स्त्रियों की सुरक्षा के लिए उन्हें भी पर्दे में रखने का सामाजिक नियम बनाया गया। इस प्रकार पर्दे की कुप्रथा का जन्म भारतीय समाज में हुआ। पर्दे के साथ-ही-साथ भारत की नारियों में से शिक्षा का भी लोप होता चला गया। जीवन में सुरक्षा न रहने के कारण नारी को इस प्रकार सुरक्षित रखने की आवश्यकता होने लगी जिस प्रकार धन, माल और आभूषणों को चोरों और डाकुओं से सुरक्षित रखा जाता है। ग्रामीण जनता में आज भी नारी को ‘टूम’ के नाम से संबोधित किया जाता है और ‘टूम’ ग्रामीण भाषा में आभूषणों को कहते हैं। इसी प्रकार सती की प्रथा, विधवा-विवाह, अनेकों जातियों के प्रतिबंध इत्यादि समाज के क्षेत्र में ऐसी बुराइयाँ उपस्थित हो गई कि जिसके कारण मानव की प्रगति में पग-पग पर बाधाएँ उपस्थित होने लगीं और वह जड़ होकर रह गया।
इन बुराइयों का निवारण करने के लिए समाज में राजा राममोहन राय और स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे सुधारक पैदा हुए जिन्होंने समाज से उस संकुचित रूढ़िवाद के विपरीत विद्रोह किया और स्वयं विष पान करके समाज को अमृत प्रदान किया। उस काल से समाज ने फिर पनपना प्रारंभ किया। महात्मा गाँधी ने भी समाज की महानतम् बुराई अछूत समस्या के विरुद्ध आंदोलन किया और आज तो राज-नियमों द्वारा ही उनके अधिकारों को सुरक्षित कर दिया गया। समाज के माथे का यह कलंक अब मिट रहा है। धीरे-धीरे संभवतः मिट जाएगा, क्योंकि समाज की वर्तमान प्रगति में अंधविश्वासों और व्यर्थ के ढकोसलेबाजियों के लिए कोई स्थान नहीं है। मानव का दृष्टिकोण विस्तृत होता जा रहा है। सीमित वातावरण में आज का मानव नहीं पलना चाहता।
मानव अपने साधनों के साथ चलता है। ज्यों-ज्यों दृष्टिकोण के व्यापक बनाने के साधन विस्तृत होते जाएँगे त्यों-त्यों मानव का दृष्टिकोण, उसकी समस्याएँ उसके विचार, उसकी भावनाएँ, उसकी कल्पनाएँ और उसकी योजनाओं में भी विस्तार आ जाएगा। आज के युग में समाज के साथ धर्म के बंधन भी ढीले पड़ चुके हैं। आज राज्य सत्ता प्राचीन राज्य सत्ता न रहकर समाज की अपनी सत्ता बन गई है। इसलिए वह सत्ता भी जो कुछ करेगी वह समाज को स्वस्थ बनाने के लिए ही करेगी। जब तक समाज स्वस्थ नहीं होगा उस समय तक राष्ट्र सुदृढ़, सुसंगठित और सुव्यवस्थित नहीं हो सकता जिसका कि अभाव देश, राष्ट्र और समाज तीनों के लिए हानिकारक है।
आज के समाज में धर्म का प्रधान स्थान नहीं रह गया है। धार्मिक शृंखलाओं में बाँधकर समाज को नहीं रखा जा सकता। आज के प्रगतिशील समाज में हिंदू-मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी एक मेज पर बैठकर खाना खा पी सकते हैं। जहाँ तक खान-पान का संबंध है वहाँ तक सामाजिक शृंखलाएँ बहुत ढीली पड़ चुकी हैं परंतु जहाँ तक विवाह इत्यादि नाते-रिश्तों का संबंध है वहाँ अभी भी समाज बहुत पिछड़ा हुआ है। अंतर्जातीय विवाह होने अवश्य प्रारंभ हो गए हैं परंतु अभी उनकी संख्या ना के ही बराबर है और जो हो भी जाते हैं उन्हें फिर समाज में अपना जीवन चलाने में काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शहरों में इस प्रकार के संबंध कुछ प्रचलित हुए हैं परंतु भारत का अधिकांश जन-समूह ग्रामों में रहता है और वहाँ पर अभी यह प्रथा नाम मात्र के लिए भी प्रचलित नहीं। यदि कोई इस प्रकार का संबंध स्थापित करती भी है तो उसे ‘भगा ले जाना’ कहकर गिरा हुआ काम समझा जाता है। समाज में उसे घृणित दृष्टि से देखा जाता है। ग्रामों में भी इतनी सामाजिक स्वछंदता का आभास अवश्य मिलता है कि जातियों से जो व्यक्ति च्युत करके ‘बीसे’ से ‘दस्ते’ कहलाने लगे थे उनमें आपस में संबंध अवश्य स्थापित होने लगे हैं।
इस प्रकार आज समाज अपने संबंधों को धीरे-धीरे नमस्कार कर रहा है और भारत में एक ऐसे समाज का निर्माण होने की संभावना है कि जिसका आधार धर्म पर न होकर राष्ट्र पर हो मानवता के अमूल्य सिद्धांतों के आधार पर आज के समाज का निर्माण होकर रहेगा। उसमें से ऊँच-नीच की भावना का अंत होना अवश्यम्भावी है और वह होकर रहेगा। अपने-अपने कार्य क्षेत्र के अनुसार समानता नर और नारी दोनों में एकरूपता के साथ आएगी। दोनों को स्वतंत्रता रहेगी अपने-अपने कार्य क्षेत्र में सामाजिक बंधनों से दोनों ही मुक्त होंगे, धर्म उनके मार्ग में कोई रुकावट उपस्थित नहीं करेगा। स्त्री और पुरुष दोनों दो मतावलंबी होने पर भी अपना संबंध सुगमतापूर्वक संचालित कर सकेंगे। भारत में विविध धर्मों का होना ही आज भारत के समाज की प्रधान समस्या है। इस समस्या का समाधान होने में समय लगेगा।