Sahityik Nibandh

कविवर भारतेंदु हरिश्चंद्र

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बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म संवत्  1607 में काशी में हुआ था। उनके पूर्वजों में इतिहास प्रसिद्ध सेठ अमीचंद का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भारतेंदु जी धनी होते हुए भी अत्यंत सरल और स्वच्छ स्वभाव वाले व्यक्ति थे। साहित्य-रचना की प्रतिभा उनमें अपने बचपन से ही विद्यमान थी। उन्होंने हिंदी में कविताओं, निबंधों और नाटकों की रचना की है। वह युग- प्रवर्तक कलाकार थे। साहित्य को निरंतर विकास की ओर ले जाना ही उनका मुख्य लक्ष्य था। पत्र-पत्रिकाओं के संपादन द्वारा भी उन्होंने इस लक्ष्य को पूर्ण करने का प्रयत्न किया था। हिंदी में गद्य शैली को नवीन रूप में विकसित करने और खड़ीबोली में गद्य लिखने की ओर लेखकों का ध्यान आकर्षित करने का श्रेय भी उन्हें प्राप्त हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा है वह अत्यंत ठोस है और मनोरंजन के साथ-साथ मार्मिक उपदेश भी प्रदान करता है। उनकी मृत्यु संवत्  1941 में हुई थी।

कविवर भारतेंदु हरिश्चंद्र असाधारण प्रतिभा से युक्त कलाकार थे। वह अपनी शैली को विषय के अनुसार बदलने में पूर्णतः दक्ष थे। वह बोलचाल की सरल भाषा के प्रयोग के समर्थक थे। उन्होंने अपनी रचनाओं को बोझिलता से बचाने के लिए अनेक स्थानों पर शिष्ट हास्य की भी सुंदर योजना की है। उनकी रचनाओ में भारतीय संस्कृति को स्पष्ट करने का सर्वत्र ध्यान रखा गया है। उनके युग के अन्य कवियों में श्री बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन, पंडित प्रताप- नारायण मिश्र, श्री श्रीधर पाठक, बाबू राधाकृष्णदास और पंडित अंबिकादत्त व्यास के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन सभी कवियों ने भारतेंदु जी के काव्य से पर्याप्त प्रेरणा ली है। भारतेंदु जी अपने सहयोगियों को साहित्य- रचना के लिए विविध सुझाव भी दिया करते थे। इसी कारण जहाँ उन्होंने राष्ट्र और समाज को लेकर स्वयं नवीन विषयों पर काव्य लिखा है वहाँ उन्होंने अपने युग के अन्य कवियों को भी इसकी प्रेरणा प्रदान की है। इसके अतिरिक्त समय-समय पर साहित्यिक गोष्ठियों की योजना द्वारा भी वह साहित्यकारों को प्रोत्साहन दिया करते थे।

बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र युग प्रवर्तक साहित्यकार थे। उनकी रचनाओं में एक ओर तो भारत की प्राचीन संस्कृति के प्रति तीव्र अनुराग मिलता है और दूसरी ओर उन्होंने राष्ट्र के हित को ध्यान में रखकर भी अपने काव्य में अनेक उपयोगी भावनाओं को व्यक्त किया है। उनके काव्य का भाव-क्षेत्र विविध विषयों की ओर उन्मुख रहा है। उनके भावों में अनुभव और चिंतन की छाप सर्वत्र वर्तमान रही है। यही कारण है कि उनके काव्य का अध्ययन करने पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। राष्ट्रीय भावनाओं के अतिरिक्त उन्होंने अपने काव्य में भक्ति, प्रेम, विरह, कृष्ण-लीला तथा हास्य रस के प्रतिपादन की ओर भी उपयुक्त ध्यान दिया है। हिंदी कविता के गतिरोध को दूर कर उसे अनेक विषयों की ओर उन्मुख करना ही उनका मूल लक्ष्य था और इसमें उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।

कविवर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने काव्य में भाव-सौंदर्य की योजना की ओर उपयुक्त ध्यान दिया है। उनकी रचनाओं में रस का अबाध निर्भर प्रवाहित रहा है। उन्होंने मुख्य रूप से शृंगार रस शांत रस और हास्य रस का प्रयोग किया है, किंतु अन्य रसों में से भी अधिकांश उनके काव्य में उपलब्ध हो जाते हैं। उनके शृंगार रस और शांत रस का संबंध श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व से रहा है। शृंगार रस के छंदों में उन्होंने श्रीकृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मधुर चित्रण किया है। शांत रस के छंदों में भी उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति अपने भक्ति भावों को उपस्थित किया है। रस प्रयोग के अतिरिक्त उन्होंने कल्पना की आकर्षक योजना की ओर भी समुचित ध्यान दिया है। यद्यपि उन्होंने कल्पना का अधिक आश्रय नहीं लिया है, तथापि उनके काव्य में उसका प्रयोग कुशलतापूर्वक हुआ है।

भारतेंदु जी की कविताओं में प्रकृति चित्रण को भी पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने प्रकृति की मोहक छवि को अनेक रूपों में उपस्थित किया है। इस दृष्टि से उनकी ‘गंगा-वर्णन’ और ‘यमुना-छवि’ शीर्षक कविताएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनका प्रकृति वर्णन आलंबन रूप की अपेक्षा आलंकारिक शीर्षक कविता रूप में अधिक हुआ है। आगे हम उनकी ‘गंगा-वर्णन’ की कुछ उत्कृष्ट पंक्तियाँ उपस्थित करते हैं–

“नव उज्ज्वल जलधार, हार हीरक सी सोहति।

बिच-बिच छहरति बूंद, मध्य मुक्ता मनि पोहति॥

लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।

जिमि नर-गन मन विविध मनोरथ करत मिटावत॥”

भारतेंदु जी की काव्य-चेतना कुछ विशेष भावनाओं की परिधि में बँधी हुई नहीं थी। वह साहित्य, समाज, राष्ट्र भक्ति आदि विविध क्षेत्रों की ओर सहज रूप से उन्मुख रही थी। यही कारण है कि उनके काव्य में स्थान-स्थान पर अनुभव, चिंतन और कल्पना का सुंदर चित्रण प्राप्त होता है। इन तीनों से युक्त होने के कारण उनके काव्य का अध्ययन पाठक पर विशेष प्रभाव छोड़ता है। इनकी योजना में उन्हें अधिक सफलता इसलिए प्राप्त हुई है कि वे कवि के लिए मानव जीवन और समाज-व्यवहार से परिचित होना आवश्यक मानते थे। इन दोनों की ओर उन्मुख होने पर यह असंभव है कि कवि मार्मिक काव्य की रचना न कर सके।

भारतेंदु जी ने अपने काव्य की रचना मुक्तक रूप में की है। स्वतंत्र छंदों और गेय पदों के अतिरिक्त उन्होंने अपने नाटकों में भी कुछ कविताओं का समावेश किया है। छंद-योजना से युक्त काव्य की भाँति उन्होंने गाने योग्य पदों की अत्यंत सफलतापूर्वक रचना की है। वह हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे। राष्ट्र के विकास के लिए वह उसका अधिक से अधिक प्रयोग करने का परामर्श देते थे। हिंदी साहित्य को समृद्धि की ओर ले जाने के लिए उन्होंने एक ओर तो पद्य रचना के लिए नवीन विषयों को अपनाया और दूसरी ओर हिंदी की अव्यवस्थित गद्य-शैली को भी व्यवस्थित रूप में उपस्थित किया। गद्य रचना की दृष्टि से उन्होंने नाटक, निबंध, आलोचना और पत्र संपादन के क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का उपयुक्त परिचय दिया है। वह काव्य में सजीव, स्वाभाविक और बोलचाल में आने वाली भाषा के प्रयोग पर बल देते थे। उन्होंने अपने काव्य की रचना सरल ब्रजभाषा में की है और उसमें माधुर्यं गुण तथा प्रसाद गुण का उपयुक्त समावेश हुआ है। उनके काव्य की शैली भी प्रवाहपूर्ण रही है। विषय के अनुसार शैली का परिवर्तन करने में भी वह पूर्णतः कुशल थे। यही कारण है कि उनके काव्य में अनेक शैलियों का प्रयोग हुआ है। इनमें से प्रगति शैली मुख्य है। आगे हम इस शैली में लिखा गया उनका एक उत्कृष्ट भक्ति-पद उपस्थित करते हैं-

“रहे क्यों एक म्यान असि दोय।

जिन नैननि में हरि रस छायो, तह भावें किमि कोय?

जा तन में रमि रहे मोहन, तहाँ ग्यान क्यों आवै।

चाहौ जितनी बात प्रबोधो, ह्यां को जो पतियावै ॥

अमृत खाइ अब देखि इनारुन, को मूरख जो भूलें।

हरीचंद, ब्रज को कदली बन, काटौ तौ फिर फूलै॥”

उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने युग के प्रतिनिधि कवि थे। उन्होंने अपने काव्य में आदर्शवाद और यथार्थवाद, दोनों का ही आश्रय लिया है। इस दृष्टि से उन्होंने अपने युग के लोक-जीवन का चित्रण करते हुए जनता और शासक वर्ग को आदर्शो की ओर जाने का संदेश दिया है। उन्होंने देश की उन्नति और अवनति का चित्रण करने की ओर उपयुक्त ध्यान दिया है। जहाँ विदेशियों के शासन में देश को विकसित होते हुए देखकर प्रसन्नता होती थी वहाँ देश के धन को विदेश जाते हुए देखकर उन्हें अपार दुख भी होता था। इसी प्रकार की स्थितियों को देखकर उन्होंने निम्नलिखित भावों की करुण अभिव्यक्ति की है-

“रोबहु सब मिलि आवहु भारत भाई।

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हा ! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥”

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