आधुनिक हिंदी कविता का प्रारंभ कविवर भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताओं से होता है। उन्होंने स्वयं उत्कृष्ट काव्य की रचना करने के अतिरिक्त अपने युग के अन्य कवियों को भी नवीन विषयों पर कविता लिखने की प्रेरणा प्रदान की। इसी कारण उनके नाम से ‘भारतेंदु-युग’ प्रचलित है। इस युग की स्थिति संवत् 1900 से 1942 तक रही। इस समय भारतवर्ष पर अंग्रेजों का राज्य था और उनके साहित्य तथा संस्कृति का यहाँ धीरे-धीरे प्रचार हो रहा था। अंग्रेजों की उन्नति को देखकर भारतवर्ष की जनता भी प्रगति की इच्छा रखने लगी थी। इस प्रकार की परिस्थितियों के कारण भारतेंदु-युग में नए दृष्टिकोण से साहित्य की रचना की गई। आगे हम इस युग के काव्य की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करेंगे।
(1) भारतेंदु-युग से पूर्व रीति काल की कविता में शृंगार रस को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ था। भारतेंदु-युग के कवियों ने इसके स्थान पर देश की उन्नति, समाज विकास और जाति-सुधार आदि विषयों को लेकर काव्य- रचना की। उन्होंने आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए अपने काव्य में उस समय के लोक-जीवन का सुंदर चित्रण किया है।
(2) इस युग के कवियों का मुख्य लक्ष्य राष्ट्रीय जागरण की कविताओं को लिखना था। उन्होंने एक ओर तो अंग्रेजों के शासन में प्राप्त होने वाली सुख-सुविधाओं के लिए उनकी प्रशंसा की है और दूसरी ओर देश की भलाई के विरुद्ध किए जाने वाले कार्यों के लिए उनकी निंदा की है। उन्होंने अपनी कविताओं में नवीन आदर्श समाज और आदर्श शासन की माँग को निरंतर सामने रखा है।
(3) भारतेंदु-युग के कवियों ने अपने काव्य में शृंगार रस का पूर्णत: त्याग नहीं किया है। भक्ति की ओर ध्यान देते हुए उन्होंने मुख्य रूप से राधा-कृष्ण की भक्ति की है। उनके काव्य में नीति की भी अनेक सुंदर उक्तियाँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकार उनके काव्य में शांत रस को भी पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। इस युग में हास्य और व्यंग्य की कविताओं की भी पर्याप्त मात्रा में रचना की गई है। इससे पूर्व हिंदी काव्य में इस ओर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था।
(4) इस युग के कवियों ने प्रकृति-चित्रण की ओर भी अधिक ध्यान दिया है। इसी प्रकार उन्होंने कल्पना का भी व्यापक प्रयोग किया है।
(5) इस युग के कवियों का उद्देश्य हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य का विकास करना था। इसी कारण उन्होंने कविता, नाटक, निबंध, आलोचना तथा उपन्यास आदि साहित्य के विविध अंगों की रचना की ओर ध्यान दिया है।
(6) इस युग के काव्य की रचना अधिकतर ब्रजभाषा में हुई है, किंतु कुछ कवियों ने खड़ीबोली में भी काव्य लिखा है। उनके काव्य की भाषा सरलता और सजीवता से युक्त रही है। उन्होंने प्रबंध-काव्यों की रचना नहीं की है, किंतु मुक्तक काव्य के क्षेत्र में उन्होंने गीतों और छन्दो दोनों का ही सहारा लिया है। इसी प्रकार उनके काव्य में अलंकारों का भी स्वा- भाविक रूप में समावेश हुआ है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतेंदु युग में हिंदी काव्य को नवीन रीति से उपस्थित करने का प्रयत्न किया गया है। आगे हम इस युग के प्रमुख कवियों का परिचय देंगे।
(1) भारतेंदु हरिश्चंद्र-
बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म सम्वत् 1907 में और मृत्यु सम्वत् 1941 में हुई थी। वह इस युग के प्रतिनिधि कवि हैं। अतः उनके काव्य में इस युग की सभी विशेषताएँ प्राप्त होती हैं। उनकी रचनाओं में भारत की प्राचीन संस्कृति के प्रति तीव्र अनुराग वर्तमान रहा है। उन्होंने अपने काव्य में राष्ट्रीय भावना, भक्ति, प्रेम, विरह, कृष्ण-लीला, प्राकृतिक सौंदर्य और हास्य रस का सुंदर समावेश किया है। वह काव्य में मानव-जीवन के समावेश को आवश्यक मानते थे। उनकी रचनाओं में अनुभव, चिंतन और कल्पना का सुंदर समावेश हुआ है। वह हिंदी भाषा के प्रबल समर्थक थे। अतः पद्य की भाँति गद्य की रचना करने के अतिरिक्त उन्होंने मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया था। उनकी भाषा सरल, सजीव और स्वाभाविक है। वह अपनी शैली को विषय के अनुसार परिवर्तित कर लेते थे। उनकी भाषा और भक्ति भावना का एक उदाहरण देखिए-
“रहें क्यों एक म्यान असि दोय?
जिन नैननि में हरि-रस छायो, तह भावै किमि कोय?”
(2) पंडित बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन‘-
‘प्रेमघन’ जी भारतेंदु बाबू के सबसे महत्त्वपूर्ण सहयोगी थे। उनकी कविताओं का संग्रह ‘प्रेमघन – सर्वस्व’ शीर्षक ग्रंथ के पहले भाग में हुआ है। उसके दूसरे भाग में उनके गद्य-लेखों का संग्रह मिलता है। उन्होंने राष्ट्र-प्रेम, शृंगार रस, भक्ति, सामाजिक अवस्था और करुण रस आदि को लेकर अनेक विषयों की कविताएँ लिखी है। वह हिंदी भाषा के प्रबल प्रेमी थे। उन्होंने कविता, नाटक, निबंध और आलोचना उपस्थित कर अपने युग के साहित्य विकास में उपयुक्त योग दिया है। उनके काव्य में सरलता और मधुरता का सुंदर समावेश हुआ है। संगीत प्रेमी होने के कारण उन्होंने गेय पदों की भी रचना की है।
(3) बाबू राधाकृष्णदास –
बाबू राधाकृष्णदास ने मुख्य रूप से मुक्तक पदों में राधाकृष्ण की भक्ति को उपस्थित किया है। इस दिशा में उन्होंने भक्ति काल और रीति काल में प्राप्त होने वाले श्रीकृष्ण के स्वरूप को मिलाकर उपस्थित किया है। अतः उनके काव्य में शांत रस और शृंगार रस का सफल प्रयोग हुप्रा है। अनेक स्थानों पर उन्होंने नीति की श्रेष्ठ उक्तियाँ भी उपस्थित की हैं। काव्य के कला-पक्ष की दृष्टि से उन्होंने मधुर, साहित्यिक और प्रवाहपूर्ण ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। इसी प्रकार छंदों और अलंकारों के प्रयोग में भी उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।
(4) पंडित प्रतापनारायण मिश्र –
मिश्रजी का जन्म सम्वत् 1913 में और मृत्यु सम्वत् 1951 में हुई थी। उन्होंने देश-प्रेम, भक्ति, हास्य, व्यंग्य और हिंदी की उन्नति के संबंध में काव्य रचना की है। उनके काव्य में भक्ति के निर्गुण और सगुण, दोनों ही रूप प्राप्त होते हैं। उन्होंने नीति के भी अनेक सुंदर छंद लिखे हैं। काव्य के कला-पक्ष की अपेक्षा उन्होंने उसके भाव पक्ष की ओर अधिक ध्यान दिया है। इसी कारण कहीं-कहीं उनकी भाषा में व्याकरण की दृष्टि से अशुद्धियाँ मिलती है। कविता के अतिरिक्त उन्होंने नाटकों और निबंधों की भी अच्छी रचना की है। इसके अतिरिक्त वह ‘ब्राह्मण’ नामक एक मासिक पत्रिका भी निकाला करते थे।
(5) पंडित श्रीधर पाठक-
पाठकजी ने अपनी कविताओं में प्रकृति – चित्रण की ओर अधिक ध्यान दिया है। उन्होंने प्रकृति के अनेक शुद्ध और स्वतंत्र चित्र उपस्थित करते हुए कहीं-कहीं उनमें कल्पना का भी सुंदर उपयोग किया है। मौलिक कविताएँ लिखने के अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी के कवि गोल्डस्मिथ के तीन काव्यों का ‘ऊजड़ गाँव’, ‘एकांतवासी योगी’ और ‘श्रान्त पथिक’ के नाम से अनुवाद भी किया है। उन्होंने अपने काव्य की रचना ब्रजभाषा और खड़ी बोली, दोनों में ही की है। उनकी भाषा सरल तथा स्वाभाविक रही हैं।
(6) पंडित अम्बिकादत्त व्यास-
व्यासजी भारत की प्राचीन संस्कृति में गहन आस्था अपने काव्य में पाश्चात्य सभ्यता के दोषों पर तीव्र व्यंग्य किए हैं। उन्होंने काव्य की रचना ब्रजभाषा में की है, किंतु उनकी भाषा पर रखते थे। उन्होंने काव्य की रचना ब्रजभाषा में की है, किन्तु उनकी भाषा पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव रहा है। उन्होंने स्वतंत्र कविताएँ लिखने के अतिरिक्त महाकवि बिहारी के कुछ दोहों को कुण्डलिया छंद में उपस्थित किया है। यह छंद ‘दोहा’ और ‘रोला’ नामक छंदों के योग से बनता है। अतः उन्होंने बिहारी के दोहे में अपना रोला जोड़ दिया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतेंदु युग में हिंदी काव्य को पर्याप्त गति प्राप्त हुई। इस युग के कवियों ने अपने काव्य की रचना करते समय बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविताओं से पर्याप्त प्रेरणा ली है। इस युग में हिंदी- काव्य को भाव-पक्ष की दृष्टि से नवीन रूप प्रदान किया गया, किंतु कला- पक्ष की ओर इस युग के कवि अधिक ध्यान न दे सके। इस दिशा में उन्होंने गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को स्वीकार करते हुए भी भाषा की शुद्धि की ओर अधिक ध्यान दिया है। जिन कवियों ने काव्य-रचना के लिए खड़ी- बोली को अपनाया उनमें भी पंडित श्रीधर पाठक को छोड़कर अन्य कवियों को विशेष सफलता प्राप्त न हो सकी। इस प्रभाव को भारतेंदु युग के पश्चात् आने वाले द्विवेदी युग में पूरा कर दिया गया।