हिंदी साहित्य के ग्रंथों में ‘बिहारी सतसई’ अपना विशेष स्थान रखती है। ग्रंथ की सर्वप्रियता न धर्म के कारण है और न किसी अन्य प्रभाव के ही कारण। इसे सर्वप्रिय बनाने वाली है कवि-कला, कवि का साहित्य और काव्य का साहित्यिक सौंदर्य। इस काव्य ने किसी बाहर की भावना से बल नहीं प्राप्त किया वरन् बल स्वयं इसके अंदर निहित है और जब तक हिंदी साहित्य और इसके प्रेमी संसार में रहेंगे, ‘बिहारी सतसई’ का महत्त्व कम होने की संभावना नहीं।
यह ग्रंथ ब्रज भाषा में लिखा हुआ है और दोहा छंद का कवि ने प्रयोग किया है। प्रत्येक दोहा स्वतंत्र है। किसी कथा के आधार पर इस ग्रंथ का निर्माण नहीं हुआ। कवि ने स्वच्छंदतापूर्वक काव्य की रचना की है और यदि यह कह दिया जाए कि गागर में सागर भरने में वह सफल हुआ है तो यह कथन सत्य ही है। ‘बिहारी सतसई’ की प्रसिद्धि कवि के जीवन काल में ही होनी आरंभ हो गई थी। मतिराम जैसे प्रसिद्ध कवि पर भी उसका प्रभाव पड़े बिना न रहा और उस काल से ही बिहारी सतसई’ पर टीकाएँ लिखी जानी आरंभ हो गई। आधे शतक के ऊपर टीकाएँ ‘बिहारी सतसई’ पर लिखी गई। हिंदी साहित्य में जगन्नाथप्रसाद ‘रत्नाकर’ जी के शब्दों में ‘बिहारी सतसई’ से अधिक टीकाएँ आज तक किसी अन्य ग्रंथ पर नहीं लिखी गई।
जिस प्रकार कबीर के पश्चात् अनेकों संत हुए, पद्मावत के पश्चात् प्रेम-काव्य लिखे गए, मानस के पश्चात् राम साहित्य की रचना हुई और सूर-सागर के पश्चात् कृष्ण-साहित्य की झड़ी लगी, इसी प्रकार ‘बिहारी सतसई’ के पश्चात् हिंदी-साहित्य में सतसइयों का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रजभाषा के प्रायः सभी कवियों पर किसी-न-किसी रूप में ‘बिहारी सतसई’ का प्रभाव पड़ा है। दोहे, सवैये और कवित्तों में रीतिकाल में जो साहित्य रचा गया उसमें होने वाली स्वच्छंद कविता का ‘बिहारी सतसई’ प्रधान आधार रही है। बहुत से कवियों ने तो बिहारी के एक-एक दोहे पर कई-कई छंद लिखे हैं। पंडित पद्मसिंह जी ने अपनी तुलनात्मक समालोचना में इसके अनेकों उदाहरण दिए हैं।
‘बिहारी सतसई’ का रचना काल 1662 ई0 माना जाता है। ग्रंथ में लगभग 718 दोहे हैं, जो समय-समय पर लिखे गए हैं। राजा जयसिंह की आज्ञा से आपने इन सब दोहों को संग्रहित करके सतसई का रूप दिया-
“हुक्म पाइ जयसिंह को, हरि राधिका प्रसाद।
करी बिहारी सतसई भरी अनेक संवाद॥”
सतसई के दोहे इतने प्रभावशाली हैं कि एक जनश्रुति के अनुसार राजा जयसिंह नई-नई रानी से विवाह करने पर अपने राज्य के प्रति कर्त्तव्य को भुला बैठे थे। हर समय महलों में ही रहने लगे थे और राज्य कार्य में हानि होने लगी थी। उस समय कवि ने निम्नलिखित दोहे की रचना की, जिसे पढ़कर राजा राजमहलों से बाहर निकल आए और उन्होंने अपने राज्य कार्य को पूर्ववत् सँभाल लिया।
“नहि पराग नहि मधुर मधु, नहि विकास इहि काल।
अली कली ही सों विध्यो, आगे कौन हवाल॥”
इसी प्रकार कवि ने अन्य बहुत से दोहे लिखे हैं। कहते हैं राजा जयसिंह प्रत्येक दोहे पर कवि को एक अशर्फी देते थे। बिहारी ने सतसई के दोहे में सात-वाहन, गोवर्धनाचार्य और अमरुक आदि प्राचीन कवियों की रचनाओं से भाव लिए हैं परंतु उनमें इस प्रकार अपनापन ला दिया है कि पुरानी गंध भी शेष नहीं रह गई है। बिहारी ने उनमें बहुत चमत्कारपूर्ण परिवर्तन किए हैं।
‘बिहारी सतसई’ के दोहे व्यंजना-प्रधान हैं। इस प्रकार के काव्य को मुक्तक उद्भट काव्य या सूक्ति-काव्य कह सकते हैं। जीवन और साहित्य को ध्यान में रखते हुए कवि ने चमत्कारात्मक काव्य की रचना की है। सतसई का प्रधान विषय शृंगार है। यत्र-तत्र भक्ति, दर्शन नीति और ऐतिहासिक दोहे भी हैं परंतु प्रधानता शृंगार की ही है। संत-साहित्य, भक्ति-साहित्य और रीति-काल तीनों काल के साहित्य की झलक हमें सतसई में देखने को मिल जाती है। शृंगार के अतिरिक्त अन्य विषयों के दोहे साग में नमक की ही भाँति हैं और इस ग्रंथ का आज जो कुछ भी साहित्य में मान है वह भी शृंगार के दोहों के कारण है। सतसई में 600 दोहे शृंगार के हैं। नायिका सौंदर्य, दीप्ति, कांति, नख-शिख, हाव-भाव, अनुभाव, केलि-विलास सभी का सजीव चित्रण इस ग्रंथ में मिलता है। नेत्रों हावों और अनुभावों के चित्रण में सूर के बाद बिहारी ही आते हैं। एक-एक दोहे में अनेकों भावों को सुंदर ढंग से सजाना बिहारी साहित्य के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलता। एक दोहा देखिए-
“बतरस लालच लाल को मुरली धरी लुकाय।
सौंह कर, मोहनु हँसे, देन कहे, नटि जाए॥”
प्रेम की भारतीय रीति का बिहारी को हम पंडित मानते हैं। प्रेम की तन्मयता, उसमें लीन हो जाना, अपनत्व को उसमें खोकर बेबस हो जाना, इन सबका कवि ने सुंदर चित्रण किया है। एक दोहा देखिए-
“कागद पर लिखत न बनत कहत सदेसनु लजात।
कहि है सब तेरो हियो मेरे हिय की बात॥”
‘बिहारी सतसई’ में सुंदर शब्द चयन, मधुर शब्द योजना, उचित और भावपूर्ण शब्दों का प्रयोग, अनुप्रासिक शब्द-संग्रह, नाद-सौंदर्यपूर्ण शब्द-संकलन बहुत व्यवस्थित मिलता है। इसमें बिहारी के अतिरिक्त अन्य कोई हिंदी कवि सफल न हो पाया। बिहारी ने प्रकृति चित्रण भी सुंदर किया है। एक दोहा देखिए-
“चुवत से मकरंद कन तरु-तरु तर विरमाय।
आवत दक्षिण देस तो थक्यों बटोही बाय॥”
‘बिहारी सतसई’ पर फारसी विरह-निरूपण का भी स्पष्ट प्रभाव है। नायिका का विरह में दुर्बल हो जाना, नि:श्वासों के साथ छह-छह सात-सात हाथ आगे-पीछे झूलना, विरह-ताप में राधिका पर सखियों द्वारा शीत काल में भी गुलाब जल छिड़कवाना इत्यादि कल्पनाएँ विदेशी ही हैं।
‘बिहारी सतसई’ भाषा, भाव-चित्रण, सौंदर्य, प्रेम चित्रण तथा हाव-भाव-वर्णन में अद्वितीय है। हिंदी साहित्य को इस रचना पर अभिमान है। भारत की अंतर्प्रान्तीय भाषाओं में ‘बिहारी सतसई’ के समान रचना देखने को नहीं मिलती। साहित्य में यदि शृंगार और प्रेम का स्थान प्रधान है तो हिंदी-साहिय में ‘बिहारी सतसई का भी स्थान प्रधान ही रहेगा।