संकेत बिंदु-(1) युग का नामकरण (2) छायावाद की परिभाषाएँ (3) प्रमुख छायावादी कवि और विशेषताएँ (4) छायावाद में तत्त्व चिंतन, विज्ञान का प्रभाव (5) छायावाद में कलापक्ष।
द्विवेदी युग के पश्चात् हिंदी साहित्य में जो कविता-धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। वस्तुतः छायावाद इस युग की इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि उससे प्रभावित हुए और उसी के नाम पर युग का नामकरण कर दिया।
छायावाद अपने युग की अत्यंत व्यापक प्रवृत्ति है। फिर भी यह देखकर आश्चर्य होता है कि उसकी परिभाषा के संबंध में विचारक एकमत नहीं। विभिन्न विद्वानों ने छायावाद की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल-छायावाद एक शैली विशेष है, जो लाक्षणिक प्रयोगों, अप्रस्तुत विधानों और अमूर्त उपमानों को लेकर चलती है।
डॉ. रामकुमार वर्मा-छायावाद जीवन की परोक्ष अनुभूति है। यह रहस्यवाद की पूर्व स्थिति है।
महादेवी वर्मा-छायावाद प्रकृति के बीच जीवन का उद्गीथ है।
डॉ. नगेन्द्र-स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह छायावाद है।
हिंदी के प्रमुख छायावादी कवि हैं-सर्वश्री जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ तथा महादेवी वर्मा। अन्य कवियों में डॉ. रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, उदयशंकर भट्ट, नरेंद्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के नाम उल्लेखनीय हैं।
छायावादी काव्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(1) सौंदर्य-भावना-छायावाद की प्रमुख प्रवृत्ति है सौन्दर्यानुभूति। मानव के आंतरिक सौंदर्य का उद्घाटन प्रकृति के माध्यम से हुआ। अतः छायावादी कविता में प्राकृतिक सौंदर्य को विशेष महत्त्व मिला।
शशि मुख पर घूँघट डाले, अंचल में दीप छिपाए।
जीवन की गोधूलि में, कौतूहल से तुम आए॥
-प्रसाद
(2) प्रेमभावना-छायावादी काव्य में प्रेम-भावना का विकास विविध रूपों में हुआ। जैसे-प्रकृति-प्रेम, नारी-प्रेम, मानव-प्रेम, आध्यात्मिक-प्रेम।
यह तीव्र हृदय की मदिरा, जी भरकर छक कर मेरी।
अब लाल आँखें दिखलाकर, मुझको ही तुमने फेरी॥
-प्रसाद
(3) मानवतावादी दृष्टिकोण-छायावादी काव्य में रवींद्र और अरविंद की मानवतावादी दृष्टि का विकास हुआ।
मानव तुम सबसे सुंदरतम।
-पंत
(4) जीवन के बदलते पहलुओं की अभिव्यक्ति-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार इन कवियों में ‘मानवीय आचारों, क्रियाओं, चेष्टाओं और विश्वासों के बदले हुए और बदलते हुए मूल्यों को अंगीकार करने की प्रवृत्ति थी।’
धर्म, नीति और सदाचार का मूल्यांकन है जनहित।
सत्य नहीं वह, जनता से जो नहीं प्राण समन्वित॥
-पंत
(5) रहस्य-भावना-आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, ‘कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से अभिव्यंजना करते हैं।’ तथा ‘छायावाद का एक अर्थ रहस्यवाद भी है।’ अतः सभी आलोचक रहस्यवाद को छायावाद का प्राण मानते हैं-
प्रिय चिरंतन है सजनि, क्षण-क्षण नवीन सुहागिनी मैं।
-महादेवी
(6) तत्त्व-चिंतन-छायावादी कविता में अद्वैत दर्शन, योग-दर्शन, विशिष्टाद्वैतवाद, आनंदवाद आदि तत्त्वों का दार्शनिक चिंतन मिलता है। जैसे-प्रसाद का मूल दर्शन आनंदवाद है, तो महादेवी ने अद्वैत, सांख्य एवं योगदर्शन का विवेचन अपने ढंग से किया है।
(7) वेदना की युगानुरूप विवृत्ति-छायावादी कविता में वेदना की अभिव्यक्ति करुणा और निराशा के रूप में हुई है, किंतु प्रसाद और महादेवी की वेदनानुभूति में निराशा का अंधकार एवं भौतिक दुखों का धुंधलापन नहीं।
चिर पूर्ण नहीं कुछ जीवन में
अस्थिर है रूप जगत का मद।
-पंत
(8) विज्ञान का प्रभाव-वैज्ञानिक युग में बौद्धिक प्रक्रिया का प्राधान्य होने के कारण विज्ञान मानव संस्कृति की चेतना का इतिहास बना। शक्ति के संचार और मानवता की विजय की कामना बलवती हुई।
तांडव में थी तीव्र प्रगति, परमाणु विकल थे।
नियति विकर्षणमयी, त्रास से सब व्याकुल थे।
-प्रसाद
(9) देश-प्रेम एवं राष्ट्रीय-भावना-छायावादी कविता में देश-प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना अनेक रूपों में विकसित हुई।
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।
-माखनलाल चतुर्वेदी
(10) शृंगारिकता का प्राधान्य-छायावादी काव्य विशुद्ध सौंदर्यवादी और प्रेमवादी काव्य है।
नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग॥
प्रसाद
(11) वैयक्तिक चिंतन-छायावादी कविता वैयक्तिक चिंतन और अनुभूति की परिधि में सीमित होने के कारण अंतर्मुखी हो गई, कवि के ‘अहं’ में निबद्ध हो गई। दूसरी ओर कवियों ने काव्य में अपने सुख-दुख, उतार-चढ़ाव, आशा-निराशा की अभिव्यक्ति खुल कर की। बच्चन का ‘आज मुझ से दूर दुनिया’ इसका परिचायक है।
कलापक्ष-कलापक्ष की दृष्टि से छायावादी कविता में गीति तत्त्व का विकास हुआ। प्रतीकों की छठा यहाँ दर्शनीय है। बिंब-विधान का यहाँ बहुलता से प्रयोग हुआ है।
कलापक्ष का जितना उन्नयन छायावादी काल में हुआ, वह अद्वितीय है। छंद, शब्द-योजना, शब्द-संस्कार, शैली अलंकरण आदि सभी क्षेत्रों में क्रांति आई।
भाषा में माधुर्य गुण का समावेश हुआ। उसमें अर्थवत्ता बढ़ी, कोमलता आई, मुखर-चित्र प्रस्तुत करने की क्षमता आई। नए-नए शब्दों का निर्माण हुआ। भाषा को रागात्मक रूप और संगीत-सौंदर्य मिला। लाक्षणिकता, ध्वन्यात्मकता, वचनवक्रता, चित्रमयता आदि गुणों का समावेश हुआ। नए-नए छंद आए। पुराने छंदों का संस्कार हुआ। यही नहीं, छंदों से मुक्ति भी पाई गई। प्राचीन अलंकारों का त्याग हुआ। नए अलंकारों का प्रवेश हुआ। कविता आंतरिक सौंदर्य से विभूषित हुई। घिसे-पिटे उपमान छोड़कर नए प्रतीकों को अपनाया गया।
शीतल ज्वाला जलती है। ईंधन होता दुग-जल का।
यह व्यर्थ साँस चल कर करती है काम अनिल का॥
-प्रसाद
छायावादी कविता अपने अभिव्यक्ति पक्ष में पुष्ट और महत्त्वपूर्ण रहने के आकर्षण से छायावाद को ‘शैली-विशेष’ कहकर पुकारा गया।
झर चुके तारक-कुसुम जब। रश्मियों के रजत पल्लव
संधि में आलोकतम की। क्या नहीं नभ जानता तब
पार से अज्ञात वासंती। दिवस रथ चल चुका है।
-महादेवी (दीपशिखा)
छायावादी काव्यधारा की भी कुछ अपनी सीमाएँ हैं, जिनके कारण सन् 1935 के बाद यह काव्यधारा क्षीण होती गई।