Sahityik Nibandh

हिंदी का छायावादी काव्य

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द्विवेदी युग के पश्चात् हिंदी में ‘छायावाद’ के नाम से एक नवीन काव्य- धारा का प्रारंभ हुआ। इस काव्य का परिचय हमें सर्वप्रथम श्री जयशंकर प्रसाद की कविताओं में मिलता है। इस काव्यधारा में भावना और कला, दोनों ही क्षेत्रों में सूक्ष्मता लाने की ओर विशेष ध्यान दिया गया। इस ओर कवियों का ध्यान द्विवेदी युग की स्थूल कविताओं के कारण गया। इन कविताओं के कारण हिंदी – कविता धीरे-धीरे एक ऐसी परंपरा में बँधती जा रही थी, जिसे पश्चिम की कविताओं का अध्ययन करने वाले व्यक्ति तनिक पसंद नहीं करते थे। अतः उस समय के आलोचकों के विरोध की चिंता न करते हुए कुछ कवियों ने कल्पना और सौंदर्य के आधार पर अनेक श्रेष्ठ कविताओं की रचना की। धीरे-धीरे इस काव्यधारा का काफी प्रचार हुआ और बीस-पच्चीस वर्षों में ही छायावादी कवियों ने पर्याप्त साहित्य की रचना कर ली।

छायावादी काव्य में कल्पना और सौंदर्य को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। प्रायः सभी छायावादी कवियों ने अपनी कविताओं में कल्पना को अनिवार्य स्थान दिया है। वैसे तो उन्होंने अपने काव्य के सभी विषयों में कल्पना का प्रयोग किया है, किंतु प्रकृति-चित्रण के क्षेत्र में कल्पना से सबसे अधिक सहायता ली गई है। उसके आधार पर उन्होंने प्रकृति को चेतन रूप में उपस्थित किया है। इसे प्रकृति का मानवीकरण करना भी कहते है और इसके अनुसार कवि प्रकृति में मनुष्य की सभी क्रियाओं को होते हुए देखते हैं इस प्रकार उन्हें प्रकृति में हर्ष, शोक, प्रेम और करुणा आदि विविध मानवीय भाव दिखाई पड़ते हैं। यद्यपि यह सत्य है कि इस युग से पूर्व भी हिंदी काव्य में हमें कहीं कहीं इस प्रकार के वर्णन प्राप्त होते हैं, किंतु इसे व्यापक अभिव्यक्ति छायावाद युग में ही प्राप्त हुई। यह छायावाद की सबसे मुख्य प्रवृत्ति है।

कल्पना के उपरांत छायावादी कवियों ने अपनी रचनाओं में सौंदर्य के चित्रण की ओर सर्वत्र ध्यान दिया है। इस दृष्टि से प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण करने के अतिरिक्त उन्होंने मनुष्य के हृदय के सौंदर्य का भी व्यापक चित्रण किया है। छायावाद की एक अन्य प्रवृत्ति मूर्त को अमूर्त तथा अमूर्त को मूर्त के रूप में चित्रित करना है। अर्थात् छायावादी कवियों ने स्थूल को सूक्ष्म रूप तो प्रदान किया ही है, इसके अतिरिक्त अत्यंत सूक्ष्म तत्त्वों को भी उन्होंने कल्पना के आधार पर सफल रूप में उपस्थित किया है। इन भावों को उपस्थित करने के लिए उन्होंने अपनी भाषा में भी मधुरता, सूक्ष्मता और प्रतीकों की योजना की है। उन्होंने अलंकारों को भी उनके प्रचलित रूपों से भिन्न रूप में उपस्थित किया है। इसी प्रकार उन्होंने छंदों के कारण भावों में काट-छाँट करने को अनुचित मानकर मुक्त छंदों में भी काव्य-रचना की है। इस प्रकार की कविताओं में किसी विशेष छंद के नियमों का पालन नहीं किया गया है और कवि का ध्यान केवल भाव-गति पर ही केन्द्रित रहा है। आगे हम इस काव्यधारा के विकास में योग देने वाले प्रमुख कवियों की चर्चा करेंगे।

(1) श्री जयशंकर प्रसाद –

प्रसादजी की छायावादी कविताओं में मधुरता को विशेष स्थान प्राप्त हुआ है। इस काव्यधारा को प्रारंभ करने का श्रेय उन्ही को प्राप्त है। उनकी भावनाओं में सौंदर्य तत्त्व का व्यापक समावेश हुआ है, किंतु वह अपने काव्य को द्विवेदी युग की कविताओं के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त नहीं रख सके है। छायावादी सिद्धांतों को व्यक्त करने वाली स्वतंत्र कविताएँ लिखने के प्रति- रिक्त उन्होंने अपने ‘कामायनी’ नामक महाकाव्य में भी उन्हें उत्कृष्ट स्थान प्रदान किया है। यह छायावाद की सबसे उत्तम कृति है। प्रसादजी ने अपने नाटकों के कुछ गीतों में भी छायावाद का सफल समावेश किया है। उनके युग के अनेक कवियों ने उनसे प्रेरणा लेकर छायावादी काव्य की सफल रचना की है।

(2) श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला‘-

‘निराला’ जी ने अपने छायावादी काव्य में द्विवेदी युग की कविताओं और कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं की विशेषताओं का भी समावेश किया है। छायावाद में कल्पना और सौंदर्य के अतिरिक्त करुणा की भावना को भी विशेष स्थान प्रदान किया जाता है। ‘निराला’ जी की कविताओं में इस भावना का सबसे अधिक विकास हुआ है। प्रकृति का मानवीकरण करने की प्रवृत्ति भी उनके काव्य में पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होती है। इस दृष्टि से उनकी ‘जुही की कली’ शीर्षक कविता उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने काव्य की रचना कठिन भाषा में की है, फिर भी उनकी काव्य-कला छायावाद के अनुकूल है। हिंदी में मुक्त छंद – रचना की ओर भी उन्होंने ही अधिक ध्यान दिया है। उनकी छायावादी कविताओं का संग्रह उनके ‘परिमल’ नामक काव्य में हुआ है।

(3) श्री सुमित्रानंदन पंत –

पंतजी ने छायावाद में कोमलता का समावेश करते हुए भावनाओं को अत्यंत सूक्ष्म रूप में उपस्थित किया है। उनके छायावादी काव्य में सौंदर्य, संगीत और सुकुमारता को मुख्य स्थान प्राप्त हुआ है। प्रकृति का मानवीकरण करने की प्रणाली को उन्होंने ही सबसे अधिक स्वीकार किया है। मानवता- वादी दृष्टिकोण भी उनकी कविताओं में सर्वत्र व्याप्त रहा है। ‘पल्लव’ में उनकी छायावादी कविताओं का स्वच्छ रूप प्राप्त होता है। उनकी छायावादी कविताओं में कल्पना और भावुकता को व्यापक स्थान प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार करुणा की अभिव्यक्ति की ओर भी उन्होंने उपयुक्त ध्यान दिया है। जिस प्रकार उनकी भावनाओं में कोमलता प्राप्त होती है उसी प्रकार उनकी भाषा-शैली में भी कोमलता मिलती है।

(4) कवयित्री महादेवी वर्मा-

महादेवीजी के काव्य में दार्शनिकता को प्रधान स्थान प्राप्त हुआ है। अतः उनकी छायावादी कविताओं में भी एक विशेष गंभीरता मिलती है। उनके काव्य में मधुरता और वेदना के चित्रण को पर्याप्त स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपनी भावनाओं को गीतों के रूप में उपस्थित किया है। अतः उनके काव्य में एक विशेष आकर्षण छिपा हुआ है। उन्होंने छायावाद के अतिरिक्त अपने काव्य में रहस्यवाद को भी स्थान दिया है और दोनों की रचना में उन्हें लगभग बराबर सफलता मिली है। उनके काव्य में छायावादी कला की सूक्ष्मता भी पूर्ण रूप से प्राप्त होती है। छायावादी काव्य लिखने के अतिरिक्त उन्होंने छायावादी सिद्धांतों के विषय में भी अपने विचार प्रकट किए हैं।

(5) श्री इलाचंद्र जोशी-

जोशीजी ने छायावादी भावों और छायावाद की कला को सरल रूप में उपस्थित किया है। इस दृष्टि से उनका ‘विजयवती’ नामक कविता-संग्रह पढ़ने योग्य है। उनके काव्य में प्रकृति और मानव जीवन का स्वाभाविक चित्रण हुआ है। प्रकृति के शुद्ध चित्र उपस्थित करने में उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।

(6) डॉ. रामकुमार वर्मा

वर्माजी मुख्य रूप से रहस्यवादी कवि है, किंतु उन्होंने छायावादी काव्य की रचना भी की है। अपनी छायावादी कविताओं में उन्होंने चिंतन, सौंदर्य और करुणा तीनों को बराबर का स्थान प्रदान किया है। उनका काव्य सरल और स्वाभाविक शैली में लिखा गया है।

(7) पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन

‘नवीन’ जी ने छायावाद को गीतों का सौंदर्य प्रदान किया है। उनकी छायावादी कविताओं में शृंगार रस का सुंदर समावेश हुआ है। भावों को सरल रूप में उपस्थित करने के अतिरिक्त उन्होंने अपनी भाषा में भी कोमल संगीत का समावेश किया है।

उपर्युक्त कवियों के अतिरिक्त छायावादी काव्यधारा के विकास में अन्य अनेक कवियों ने भाग लिया था। इन कवियों में पंडित मुकुटधर पांडेय का उल्लेखनीय स्थान है। उस समय की मासिक पत्रिकायों में अनेक कवियों के छायावादी गीत प्रकाशित हुआ करते थे। यद्यपि छायावाद में कल्पना और सौंदर्य की सूक्ष्मता प्राप्त होती है, तथापि कुछ समय पश्चात् यह काव्य- धारा समाप्त हो गई। सूक्ष्मता की अधिकता के कारण इस काव्य का जनता में अधिक प्रचार न हो सका और इसका स्थान प्रगतिवाद ने ले लिया। इतना होने पर भी छायावाद अभी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ है। यद्यपि यह सत्य है कि अब छायावादी काव्य की किसी निश्चित धारा के अनुसार रचना नहीं होती है, किंतु उसकी विभिन्न विशेषताएँ पृथक्-पृथक् रूप से हिंदी कविता पर पूर्णतः छा गई है। इस समय लिखी जाने वाली हिंदी- कविताओं में कल्पना, सौंदर्य और भावुकता का जो विकास देखने को मिलता है वह छायावाद की ही देन है। छायावाद के इस महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता !

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